सोमवार, 14 दिसंबर 2009

आओ बनाएँ पब्लिक को सभ्य

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट

सुना हैं कि मजदूर-किसानों के साम्यवादी मुल्क चीन ने अपने आप को असभ्य दिखने से बचाने के लिए अपने नागरिकों के पाजामा पहनकर बाहर निकलने पर भृकुटियाँ वक्र कर लीं हैं। वे नहीं चाहते कि वहाँ होने वाले वर्ल्ड एक्सपों 2010 के दौरान चीनी जन सार्वजनिक जगहों पर पाजामा पहनकर असभ्यता का प्रदर्शन करें। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर क्लासी दिखाने के लिए शंघाई प्रशासन ने चीनियों की छोटी सी नाक में नकेल डालना शुरू कर दी है। नेक इरादा है। मजदूरों के मुल्क में जब पूँजीवादियों का जमावड़ा हो तो एहतियात तो बरतना ही चाहिये। हमें भी समय-समय पर अपने देश में होने वाले भूमंडलीय आयोजनों के मद्देनज़र तुरंत चीनियों के इस कदम का अनुसरण कर लेना चाहिए।

हमारे महानगरों में गाँव-खेड़ों से लाखों की तादात में पहुँचने वाले गंवार और जाहिल लोग पाजामा, धोती-कुर्ता और लुँगी को घुटनों से भी ऊपर तक चढ़ाए हुए यहाँ-वहाँ स्वछंद घूमते, हमारी आधुनिक सभ्यता को मुँह चिढ़ाते नज़र आते हैं। कई तो ऐसे भी मिल जाऐंगे जो कच्छा या घुटन्ना पहने ऐन एयर कंडीशन्ड शापिंग मॉल के सामने खड़े विशाल अर्ध-गगनचुंबी मॉल और उसमें आने-जाने वाले सभ्यजनों को मूर्खों की भांति ताकते खडे़ होंगे और कुछ इन कच्छेधारियों की दो-तीन प्रतिशत सभ्यता को भी मुँह चिढ़ाते हुए, ठीक जैसे माँ के पेट से आए थे वैसे ही सम्पूर्ण सभ्यता से अक्षुण्ण, शत-प्रतिशत वस्त्र विहीन दाँत निपोरते खड़े पाए जाएँगे।
भारत में अगले साल जोर-शोर से होने वाले कामनवेल्थ खेलों के समय दुनियाभर की विस्फारित नज़र हम पर होगी। कुछ की नज़र में तो यह प्रश्न टका होगा कि आखिर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का इतना बड़ा आयोजन हम करेंगे कैसे जबकि हमारे पास लोगों को निवृत कराने के लिए रेल पटरियों और खुले मैदानों के अलावा कुछ नहीं है, मगर कुछ लोग हमारी कार्पोरेट जगत की कंठ-लंगोटीय संस्कृति से प्रभावित होकर आयोजन में शामिल होने चले आएँगे। हम यूँ धोती-कुरते, लुंगी-पाजामों और कच्छों में यहाँ-वहाँ घूमते नज़र आ गए तो हमारी आधुनिक कार्पोरेटिव छवि को कितना धक्का लगेगा, देश की कितनी बदनामी होगी ! विकसित देशों के लोग कहेंगे भारत में सभ्यता नाम की चीज़ अब भी नहीं है लोग अभी भी धोती-कुर्ता, कच्छा-पाजामा पहनकर सड़क पर चले आते हैं। इसलिए हमें अभी से व्यवस्था चाक-चैबंद कर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोग अपनी-अपनी झुग्गियों, टपरों, कच्चे मकानों से बाहर ही ना निकलें। बल्कि ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि गाँवों, कस्बों छोटे-मोटे शहरों की झोपड़-पट्टियों में मौजूद मटमैले, चीकट लोग अपने-अपने दड़बों में ही बंद रहे। वे बाहर निकलेंगे तो सीधे शहरों की तरफ भागेंगे और आधुनिक सभ्यता का सत्यानाश करेंगे।
महिलाएँ भी देखिए बाबा आदम के ज़माने के घाघरे पहनकर जा पहुँचतीं है दिल्ली, मुंबई। हमारी प्रगति की रफ्तार के हिसाब से तो सलवार सूट और साड़ियाँ भी अब परिदृष्य से बाहर हो गईं हैं, और छोटे-छोटे लधु-मध्यम आकार के कपडे़ सभ्यता की निशानी बन गए हैं। ऐसे में औरतों का यूँ कुछ भी पहनकर टेक्नालॉजी पार्कों, सायबर-सिटियों और आधुनिक कॉल सेंटरों के सामने जाकर चाट-पकौड़ी खाते खड़े रहना कहाँ की सभ्यता है। इस गांवरूपने पर भी हमें कुछ कठोर निर्णय लेकर आधुनिक सभ्यता का संरक्षण करना चाहिए।
ग्लोबलाइजेशन का तकाज़ा है कि जो आप वास्तव में हैं वह आप बिल्कुल ना दिखें। दुनिया के सभ्य लोगों के सामने हमारी ऐसी तस्वीर पेश हो कि लोग बेवकूफ बनकर हमारे पास दौडे़ चले आएँ। आप भले ही ऊपर से बेहतरीन थ्री पीस सूट, महँगी टाई और जूते चढ़ाए हुए हों पर अन्दर कसी हुई लंगोट किसी को दिखना नहीं चाहिए। हमारे लोग भले ही मंदिरों, रेल्वे स्टेशनों, बस स्टेंडों, बाज़ारों और लाल बत्तियों पर भीख माँगते नज़र आएँ पर उन्हें अच्छे साफ-सुथरे कलफ लगे, इस्तरी किये कपड़ों में होना चाहिए। देश के तमाम मेट्रो शहरों में रेल्वे लाइन के इर्द-गिर्द मौजूद नर्क को तो हम कुछ नहीं कर पाएँगे परंतु उसमें बसे लोगों के कच्छे-पाजामें छीनकर हम उन्हें सभ्य तो बना ही सकते हैं। क्या देर-दार है भाई, हम जैसे अपने देश को आधुनिक बनाने की तैयारी में जोरशोर से लगे हुए हैं चीन की तरह हमारी पब्लिक को भी सभ्य बनाने में जुट जाएँ तो क्या हर्ज है।
दिनाँक 29.11.2009 को हरिभूमि में प्रकाशित

5 टिप्‍पणियां:

  1. बात तो पते की कही है प्रमोद जी अब देखिये ये कॉमन वेल्थ गेम्स क्या क्या रंग रोगन करते हैं।

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  2. राष्ट्रमंडल खेल तक तो हम बिल्कुल सभ्य हो चुके होंगे जी ....पक्का ...अरे सरकार इतनी कोशिश जो कर रही है

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  3. हम भी कुर्ता पायजामा पहनना छोडकर कोट पैन्ट ट्राई करते हैं...आखिर सभ्य जो दिखना है :)

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  4. प्रमोद जी,
    ये व्यंग्य के नाम पर आप क्या लिख रहे हैं.... वेश-भूषा, आचार-विचार, रहन-सहन, संस्क्रति के हिस्से होते हैं इन पर टीका-टिप्पणी कितनी न्यायसंगत है ये सोचने वाली बात जान पडती है !!!!

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  5. अर्ध गगनचुम्बी माल,//जैसे मां के पेट से आये थे /वस्त्रविहीन दांत निपोरते/कंठ-लंगोटीय संस्क्रति/ नर्क का को कुछ नही कर पायेंगे मगर उन्हे सभ्य तो बना सकते है । प्रमोद जी बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा है ।

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