मंगलवार, 19 जनवरी 2010

चेन खिच गई

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट

एक बार मेरे मोबाइल का नेटवर्क किन्हीं दूसरे मोबाइलों के नेटवर्क से गुथ गया। जो चर्चा सुनाई दी वह हुबहू पेश है:-
‘‘ऐ जी, सुनो जी, आज मेरी भी खिच गई !’’
‘‘तुमसे कितनी बार कहा है कि ऊँची हिल की सैंडल मत पहना करो, सुनती ही नहीं हो!’’
‘‘ऊँची हिल की कहाँ पहनी, स्लीपर पहनी हुई थी टायलेट वाली!’’
‘‘मैंने यह भी कितनी बार कहा है कि फालतू इधर-उधर मत भटका करो!’’
‘‘मैं कहाँ इधर-उधर भटकी, अब क्या घर के सामने भी ना टहलूँ ?’’
‘‘घर के सामने ऊबड़-खाबड़ गढ्ढों में टहलोगी तो खिचेगी ही।’’
‘‘कोई नहीं, सरला भैंजी के घर के सामने बढ़िया चिकना सीमेंट कांक्रीट रोड़ है, उनकी तो उसपर भी खिच गई!’’
‘‘वो भी ऊँची हिल की सैंडल पहनती होंगी!’’
‘‘नहीं, वे तो बेचारी नंगे पॉव मंदिर जा रहीं थी तब खिच गई उनकी तो।’’
‘‘क्या ज़रूरत थी जाने की जब पता है कि मंदिर की सीढ़िया बहुत खराब और टूटी फूटी हैं!’’
‘‘उससे क्या होता है, विमला भैंजी की तो शॉपिंग मॉल की सीढ़ियों पर खिची थी!’’
‘‘तुम सब औरतों की यही आदत होती है, फालतू यहाँ-वहाँ भटकती फिरती हो फिर खिंच जाती है तो रोने बैठ जाती हो।’’
‘‘फालतू बातें मत करो, कुछ कर सकते हो तो करो।’’
‘‘अब मैं यहाँ बैठे-बैठे मोबाइल से क्या करूँ ? घर पर होता तो मूव मल देता!’’
‘‘मूव मलने से क्या चेन वापस मिल जाती ?’’
‘‘चैन मिल जाता है, हिन्दी भी ठीक से नहीं बोल सकती!’’
‘‘अरे मैं चेन की बात कर रही हूँ, चेन खिच गई मेरी!’’
‘‘क्या ? चेन खिच गई ? बता क्यों नहीं रही हो इतनी देर से! मैं समझ रहा था पॉव की नस खिच गई है तुम्हारी!’’
‘‘तुम तो यूँ ही हरकुछ-हरकुछ समझ लेते हो! अब तो कुछ करो!’’
‘‘पहले बताओ कब गई, कैसे गई, कौन सी गई.......!’’
‘‘अरे बताया तो सुबह-सुबह पपी को बाहर सुसु करा रही थी, एक छोकरे ने आपका पता पूछा और गले से आधी चेन खीच कर भाग गया!’’
‘‘आधी क्यों ? पूरी नहीं चाहिए थी क्या उसको ?’’
‘‘आधी मेरे पास रह गई!’’
‘‘कौन सी गई दस तोले वाली कि बीस तोले वाली ?’’
‘‘तौली तो थी नहीं कभी.....!’’
‘‘ऐसे कैसे नहीं तौली, फालतू बात करती हो। बिना तौले कहीं चेन मिलती है!’’
‘‘ये तो पता नहीं, तुम्ही ने लाकर दी थी!’’
‘‘बताओ कैसा था छोटा, लम्बा, ठिगना, मोटा, गोरा, काला, मोटर साइकिल कैसी थी, काली, सफेद, लाल, पीली, बताओं मुझे, अभी फोन खड़काता हूँ। पूरा प्रशासन हिलाकर रख दूँगा। मजाल है, एक पुलिस अफसर की बीवी की चेन खिच जाए!’’
‘‘भूल रहे हो, अब तुम रिटायर हो गए हो!’’
‘‘तो क्या हुआ ?’’
‘‘तुम कुछ हिला-हिलू नहीं सकते। जैसे आम आदमी की बीवी की खिचती है वैसी तुम्हारी बीवी की खिंच गई।’’
‘‘तेल लेने गया आम आदमी, तुम तो बताओ वह मोटी वाली गई कि उससे पतली वाली कि उससे पतली वाली कि एकदम पतली वाली ?’’
‘‘अरे आहां, मेरे पिछले बर्डे पर तुम खरीद कर लाए थे ना वो चपटी वाली, वही थी!’’
‘‘चपटी वाली !’’
‘‘हा वही चपटी वाली।’’
‘‘अच्छा...........वोऽऽऽऽऽह, वो चपटी वाली.........’’
‘‘हाँ वही, वो जो मुझे पटाने के लिए तुमने गिफ्ट में दी थी!’’
‘‘हाँ हाँ याद है....... आधी बच गई ना..... चलो जाने दो.....क्या करना है!’’
‘‘करना क्या है, पुलिस में रिपोर्ट डालना है और क्या! ’’
‘‘अरे छोड़ो, क्या करना है, सब बदमाश है साले वहाँ आजकल !’’
‘‘अरे वाह, करना क्यों नहीं है, हराम की थी क्या!’’
‘‘ऊँहू...... वह बात नहीं है, जाने दो......कौन पुलिस के झँझट में पड़े!’’
‘‘अरे क्यों जाने दो........! तुम तो एफ.आई.आर. लिखवाओ।’’
‘‘अरे क्या करना है, आधी ही तो गई है, जाने दो!’’
‘‘ऐसे कैसे जाने दो, चोर के बाप का माल है क्या ?’’
‘‘अरे अब छोड़ो भी तुम्हें दूसरी ला देंगे।’’
‘‘अरे दूसरी भी ले लूँगी, पर इसे भी नहीं छोडूँगी!’’
‘‘अरे जाने भी दो, ऐसी ही थी बेकार!’’
‘‘क्यों बेकार क्यों, तेइस कैरट शुद्ध सोने की चेन थी मेरी वो, मैं तो नहीं छोड़ने वाली!’’
‘‘अरे कह तो दिया बेकार थी, लगी हो जबरन फकर-फकर करने! दस रुपल्ली में हर माल वालों से खरीदी थी, सौ आने शुद्ध नकली चेन थी, हाँ नहीं तो !’’
‘‘क्या कहा ? बेईमान कहीं के, धोकेबाज़! सारे पुलिस वाले ऐसे ही होते है, धोकेबाज़। तुमने शादी भी मेरे माँ-बाप को धोका देकर की! बच्चे भी धोका देकर पैदा कर लिए। घर आओ आज तुम......बताती हूँ। नकली चेन के बदले ना तुम्हें असली जूतों का स्वाद चखाया तो मेरा नाम नहीं!’’
दोनों मोबाइल बंद हो गए। उसके बाद कौन जाने क्या हुआ।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

यह साम्राज्यवादी थपथपाहट

अभिव्यक्ति के 11 जनवरी के अंक में पढ़िए यह साम्राज्यवादी थपथपाहट

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट

अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपने परिवार का सदस्य बताया है। उनकी पत्नी ‘मिशेल’ और बच्चे एक ‘सरदारजी’ को अपने बीच में पाकर कैसा महसूस करेंगे यह तो जिज्ञासा का विषय है, मगर भारतीय होने के नाते मेरे लिए तो यह बड़ी खुशी की बात है। यूँ तो ओबामा स्वयं एक अमरीकी माता और केन्याई मुसलमान पिता की संतान हैं, और अब उनके परिवार का एक सदस्य पगड़ी‍‌‍धारी भारतीय सरदार निकल आया है। दुनिया के लिए यह एक बड़े आश्चर्य की घटना हो सकती है क्योंकि बेसिर-पैर की ही सही ‘धर्मनिरपेक्षता’ का अखंड ठेका तो पूरी दुनिया में सिर्फ भारतीयों के ही पास है, अमरीका में यह परम्परा कब पलायन कर गई, किसी को पता ही नहीं चल पाया।
नरेन्द्र मोदी को वीज़ा न देने की अमरीकी कूट-पॉलिसी पर ओबामा के सत्तारूढ़ होने के बाद क्या परिवर्तन आया है इसका अद्यतन ज्ञान तो मुझे नहीं है मगर मुझे पूरा भरोसा है कि वे भी यदि भारत के प्रधानमंत्री होते तो ओबामा अपनी वैश्विक धर्मनिरपेक्षता का परिचय देते हुए उन्हें भी अपने परिवार का सदस्य बताते। मोदी क्या, यदि उनसे निचले दर्जे का कोई और भी नेता होता तो भी ज़रूर ओबामा यही करते। ऊपर वालों में अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण अडवाणी, यहाँ तक कि वकैया नायडू भी होते तब भी ओबामा के बयान में कोई परिवर्तन नहीं आता, यह बात पक्की है। इनकी छोड़िए, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, पासवान, मायावती बहन, ज्योतिबसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य, इनमें से कोई भी यदि भारतीय प्रधानमंत्री होता तब भी ओबामा यह करने में नहीं हिचकिचाते, मुझे पूरा भरोसा है।
भारतीय वामपंथियों ने राज-पाट के मामले में वह दर्जा हासिल कर लिया है कि एक धुर दक्षिणपंथी ताकत को उन्हें भी अपने परिवार का सदस्य बताने में कोई दिक्कत नहीं होती यदि उनका प्रधानमंत्री होता। जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत पसंद का सवाल है, कोई माने या ना माने, जब ओबामा मायावती बहन को अपने परिवार का सदस्य बनाते तब मुझे जितनी खुशी होती वह डॉ. मनमोहन सिंह या किसी और के लिए होने वाली खुशी से लाख गुणा ज़्यादा होती। इसी बहाने बहनजी अपना एक पुतला व्हाइट हाउस में भी ठोक आतीं और अपनी ओबामा परिवार की सदस्यता पक्की और दीर्घजीवी कर लेतीं।
कांग्रेसी पाठक भाइयों के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि यह हरामज़ादा सारे विपक्षियों के नाम ले रहा है मगर कांग्रेसियों में मनमोहन सिंह के अलावा किसी का नाम नहीं ले रहा है, तो मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि भैया तुम्हारे कुनबे में और कोई प्रधानमंत्री की कद-काठी वाला नेता है कहाँ, विपक्षियों में तो एक से एक भरे पड़े हैं। देश में यदि बीस प्रधानमंत्रियों की एक साथ ज़रूरत पड़ जाए तो विपक्ष आराम से थोक सप्लाई कर सकता है। तुम्हारे पास एक शिशु प्रधानमंत्री ज़रूर है मगर उसे कुर्सी हासिल करने में कम से कम दस साल लगेंगे। उनकी मम्मी को अपने परिवार का सदस्य मानने न मानने के लिए ओबामा स्वतंत्र हैं क्योंकि यदि वे भारत की प्रधानमंत्री बन भी गईं तो इटली वालों को अपने परिवार में शामिल करना है कि नहीं यह फैसला तो उनके विवेक पर ही निर्भर। वैसे अगर उन्हें इटली वालों को अपने परिवार में शामिल करना ही होता तो वे इस मौके पर इटली के मौजूदा प्रधानमंत्री को अपने परिवार में शामिल कर अपना इरादा साफ कर देते।
जो भी हो, मुझे तो घोर आश्चर्य होगा अगर भारतीय प्रधानमंत्री को अमरीकी राजकीय अतिथि का यह सम्मान मिलने के बाद पाकिस्तानी नेतागण दाना-पानी लेकर ओबामा पर ना चढ़ बैठें कि - ऐसे कैसे तुमने हमारे पुश्तैनी दुश्मन को अपने परिवार का सदस्य बना लिया! हम क्या मर गए हैं! जो भी हो बाप-दादों की तरफ से हो तो मुसलमान ही! तो पाकिस्तानी मुसलमानों को छोड़कर किसी भारतीय सिख-हिन्दु को अपने परिवार का सदस्य बनाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ? फौरन से पेश्तर हमें भी अपने परिवार का सदस्य बनाओं या मनमोहन सिंह को अपने परिवार से बेदखल करों! वर्ना, हमसे बुरा इतिहास में न कोई हुआ है, ना होगा! हम भारतीय सीमा पर गोलीबारी तेज़ करके तुम्हारे परिवार के इस नए सदस्य की ऐसी-तैसी कर देंगे।
ज़ाहिर है व्हाइट हाउस में अर्जियों की बाढ़ आने वाली है। सारे के सारे देश गुहार लगाऐंगे-हुजूर हममें क्या कमी थी जो एक ‘सरदारजी’ को परिवार का सदस्य बना लिया, हमें छोड़ दिया। मगर इन सब ख़्याली बातों से परे मेरी एक चिंता है जो कि खासी गंभीर है। आखिर ओबामा ने किस परिवार का सदस्य माना है हमारे प्रधानमंत्री को? विश्व साम्राज्यवादी परिवार का या जी-८, जी-१५ के परिवारों का? आखिर इसका मतलब क्या है? क्या आर्थिक और राजनैतिक रूप से हमारा देश भी साम्राज्यवादी रूप-रंग, गुण-धर्म में ढल गया है, जो दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य के द्वारा दुनिया के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र के मुखिया की पीठ यूँ थपथपाई जा रही है।

रविवार, 10 जनवरी 2010

उस सज्जन पुरुष को लंपट और औरतबाज मानने के लिए तैयार नहीं है चाहे कितनी भी "बिना बाप की औलादें" आकर उसे अपना नाज़ायज़ बाप घोषित करें।

// व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट //



चाहे कोई हथेली पर अंगार रखकर कहे या पूरा का पूरा अग्नि में खड़ा होकर मुनादी करे कि एक वयोवृद्ध महामहीम आदमी ने राजभवन में अय्याशी कांड रचाकर राजभवन की मर्यादा की वाट लगा दी है, तब भी हम यह मानने के लिए तैयार नहीं है। क्या बात कर दी ! हो ही नहीं सकता ! एक पड़दादा-पड़नाना की उम्र का कब्र में पाँव लटकाकर बैठा हुआ बूढ़ा, एक नहीं दो नहीं, तीन-तीन स्त्रियों के साथ अय्याशी का कृत्य करे, संभव ही नहीं है। एक क्षीण, शिथिल, निस्पंद, निस्तेज, ढीले, थके हुए निर्वाणोन्मुख शरीर से इतनी उच्च गत्यात्मक, ऊर्जाखाऊ गतिविधि की कल्पना कैसे की जा सकती है ! अगर जबरदस्ती यह कल्पना करना ही पड़ी तो वृद्धावस्था के प्रति भारतीय नज़रिया बदलकर ही यह संभव हो सकता है।
बता रहे हैं कि महामहीम तीन औरतों के साथ रासलीला करते हुए रंगे हाथों कैमरे में कैद किये गए हैं। यह भी कोई बात हुई! एक इतने आला रुतबे वाला, ऊँचे अख्तियार वाला, ताकतवर, संवैधानिक पद पर आसन्न राजनेता, महज तीन औरतों के साथ रंगरेलियाँ मनाए!! जबकि उसके एक इशारे पर तीन क्या, तीस क्या, तीन सौ औरतें राजभवन में आ खड़ी हो सकती हैं। सिर्फ तीन औरतों के साथ रंगरेलियाँ मनाने की बात कुछ गले नहीं उतरती। ज़रूर उस शरीफ आदमी के साथ कोई बहुत बड़ी साजिश रची गई है। राजनीति में बुढापा कई लोगों की आँखों में खटकता रहता है। जवान सोचते रहते हैं कि आखिर कब तक बुढ्ढा कुर्सी पर जमा रहेगा ! हमें भी मजे करने का मौका मिलना चाहिए, सो पत्ता साफ करने के लिए तिरिया तुरप चला गया हो, यह भी हो सकता है।
आम मान्यता है कि राज्यपाल तो रबर स्टेंप किस्म की चीज़ होता है। अब बताइये, एक रबर स्टेंप, जिसकी नियति है बिना हिले डुले एक जगह पड़े रहना, जो अपनी मर्जी से किसी कागज़ पर छप तक नहीं सकता वह लाचार, मजबूर रबर स्टेंप हाड़ मास वाले लंपट, कामातुर चरित्र वाले छिछोरे आदमी जैसी हरकतें कभी कर सकता है ? रबर स्टेंप कभी इस तरह का कोई जटिल काम कर सकता है भला जिसे करने के लिए किसी भी संवेदनशील इंसान को अपनी तमाम इन्द्रियाँ जाग्रत करनी होती हैं। देखा है किसी ने रबर स्टेंप को अपनी इन्द्रियाँ जाग्रत करते हुए ? अगर उसकी इन्द्रियाँ जाग्रत हो ही जातीं तो फिर वह यूँ हर किसी के हाथ का खिलौना बन पाता। फिर ! फालतू बेचारे एक सीधे-साधे आदमी को बुढापे में ऐसे काम में फँसाने का क्या मतलब है जिसे करते हुए अब तो उसके पोतों-पड़पोतों के फँसने की उम्र हो।
जो इन्सान चार कदम बिना किसी की मदद के चल नहीं सकता, समारोहों में दीप प्रज्वलन के लिए माचिस की तीली नहीं जला सकता, उद्घाटन में रिबिन काटने के लिए हल्की-फुल्की चाइनीज़ कैची नहीं उठा सकता, लोकार्पण-अनावरण में पर्दे की रस्सी नहीं खींच सकता, वह तीन-तीन औरतों के साथ मस्ती कैसे कर सकता है! और चलिए किसी की मदद से वह उपरोल्लेखित सारे काम कर भी लेता हो तो, उन तीन औरतों के साथ प्रणय लीला में भी तो किसी ने उसकी मदद की होगी! बुलाओं उसको, वह हाथ पकड़कर प्रणयलीला में मदद करने वाला शख्स भी अगर आकर यदि कहे कि हाँ हम चश्मदीद गवाह हैं, जो कुछ हुआ, हमारी आँखों के सामने हुआ, तब भी हम मानने के लिए तैयार नहीं होगे कि ऐसा कुछ हुआ होगा। फिर भी आप जबरदस्ती हमें मनवाने के लिए तुले हुए हैं, कि हम मान लें कि भारतीय राजनीति में लम्बे समय से जमा यह ‘नेता’ पुराना अय्याश है। हम तो बिल्कुल भी उस सज्जन पुरुष को लंपट और औरतबाज मानने के लिए तैयार नहीं है चाहे कितनी भी "बिना बाप की औलादें" आकर उसे अपना नाज़ायज़ बाप घोषित करें।
अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ और मीडिया वाले चाहे जितना हल्ला मचाएँ, भाई हम तो सोहार्द की भारतीय संस्कृति में रचे बसे लोग हैं, ऐसी फालतू की बातों पर यू ही आँख-कान बंद करके विश्वास नहीं कर लेते चाहे कोई हमें स्टिंग का वीडियो ही क्यों ना दिखा दे। हमारे भी कुछ उसूल हैं, उसूलन बुजुर्गों को हम हमेशा अपना पथ प्रदर्शक, दिशादर्शक मानते आ रहे हैं और मानते रहेंगे चाहे उनकी कारस्तानियों से हमारा सिर शर्म से नीचे क्यों ना झुक जाए।