मंगलवार, 8 जून 2010

हरिभूमि में व्यंग्य - लेखन क्षमता का अदृभुत कमाल

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं लेकिन विकट प्रतिभाएँ गिनी-चुनी हैं। एक विकट प्रतिभा का अभी कुछ ही समय पहले आविर्भाव हुआ है। आई.पी.एल,. जिसका फुल-फार्म इंडियन पिसाई लीग, इंडियन पैसा लीग, इंडियन पापी लीग आदि-आदि किया जाकर अब भी अन्तिम होना बाकी है, के कमिश्नर ललित मोदी ने उनके ऊपर लगे छत्तीस-पेजी आरोपों का जवाब पन्द्रह हज़ार पन्नों में देकर बड़े-बडे़ लिख्खाड़ों को धराशायी कर दिया है। आम तौर पर जिस देश में चार लाइन मात्र लिखने में लोगों की नानी मरती हो, और खास तौर पर, लिखने वालों में चार पन्ने लिखने के बाद मौलिकता का गधे के सिर से सींग की तरह लोप होने लगता हो, उस देश में जीवन भर नोट कमाने की जुगत में रहने वाले एक खान्दानी बनिए ने रातों-रात मौलिकता की सम्पूर्ण भावनाओं के साथ पन्द्रह हज़ार शुभ्र-सफेद पन्ने काले कर मारे, वह भी बिना यह साहित्यिक चिंता पाले कि इन पन्द्रह हज़ार पन्नों को कोई पढ़ेगा भी या नही, है ना कमाल की बात ?
आई.पी.एल. के दीवानों के लिए भले ही यह कान पर जूँ रेंगाने वाली घटना ना हो मगर साहित्यकारों के लिए यह अवश्य ही एक चिंता में डालने वाली घटना हो सकती है। अवश्य ही यह एक महान व्यावसायिक जलन का विषय हो सकता है कि वे, जो जीवन भर कलम घसीट-घसीट कर रीम का रीम कागज़ काला करते रहने के लिए बदनाम हैं, मगर फिर भी कुल मिलाकर पन्द्रह हज़ार पृष्ठों का रद्दी में बिकने लायक कचरा तैयार नहीं कर पाते, इधर इस कल के छोकरे ने एक झटके में इतना कागज़ गोद दिया कि उसे छः बक्सों में रखकर ढोने के लिए चार कारों की व्यवस्था करना पड़ी। कमाल की उत्पादन क्षमता है। मेरा दावा है कि देश के सारे साहित्यकार भी अगर मिलकर इतने पृष्ठों का उत्पादन करना चाहे तो इतने कम समय में हरगिज़ नहीं कर सकते। उत्पादन तो दूर, आयतन की दृष्टि से इतने कम समय में तो वे शांत चित्त से पन्द्रह हज़ार पृष्ठों की सामग्री के समानुपातिक सोच भी लें तो साहित्य जगत में, विशेषकर साहित्य जगत के पुरस्कार खेमे में तूफान आ जाए।
यूँ तो मोदी की उस ऐतिहासिक रचना को कोई खानदानी किताबी कीड़ा तक पलटकर देखना नहीं चाहेगा, मगर फिर भी तीव्र गति से समसामयिक लेखन के इस कौशल को बिना किसी मूल्यांकन प्रक्रिया को अन्जाम दिए सम्पूर्ण सम्मान की नज़र से देखा जाना चाहिए। तत्काल सम्मान इत्यादि की घोषणा भी कर दी जाए तो इतर लोग भी जिनके पढ़ने के लिए इस कालजयी साहित्य की पन्द्रह हज़ार पेजी रचना की गई है, इसे पढ़ने से बच जाऐंगे। रचनाशीलता के इस महान जज़्बे की इज्ज़त करते हुए मोदी की इस कृति को अवश्य ही नोबल पुरस्कार के लिए भेजा जाना चाहिए। यह नोबल पुरस्कार के लिए भी सम्मान की बात होगी क्योंकि आज तक इतनी हृष्ट-पुष्ट कृति पुरुस्कारार्थ नहीं आई होगी। वे दें या ना दें, मोदी लें या ना लें, उनकी मर्ज़ी, मगर हमें मोदी जैसे भारतीयों की लेखन क्षमता का झंडा ऊपर उठाने के लिए यह प्रयास जरूर करना चाहिए।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बढ़िया व्यंग....साहित्यकार तो बेचारे कुछ ही कागज़ खराब करते हैं...

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