बुधवार, 11 अगस्त 2010

हरिभूमि में व्यंग्य - खेलोगे कूदोगे तो बनोगे नवाब


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          बचपन में माँ-बाप और मास्टरों से सैंकड़ों बार सुना करते थे- ‘‘पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब!’’ उन दिनों माँ-बाप और मास्टर इन दोनों ही केटेगरी के जन्तुओं से बहस मुबाहिसे की गुंजाइश ज़रा कम हुआ करती थी, लिहाज़ा उनकी बात मानकर जो लोग खेल के मैदान में कम और किताबों में ज़्यादा ध्यान देते रहे, उनकी किस्मत पर ताला लगा हुआ आज भी देखा सकता है। जिन्होंने खेलों के सर्टिफिकेट इकट्ठा किए वे महत्वपूर्ण विभागों में अच्छे-अच्छे पदों पर जम गए और देश-विदेश भी घूम आए और जिन्होंने किताबों में खोपड़ी दिए मार्कशीटें इकट्ठा कीं, हो सकता है उनमें से कई अब भी वे मार्कशीटें गले में लटका कर घूम रहे हों।
          पढ़ने लिखने वालों का हाल तो सभी जानते हैं कोई कौड़ी को नहीं पूछता, हम खुद प्रत्यक्ष गवाह हैं। बुद्धिजीवी, कवि, लेखक, साहित्यकारों के लिए इतना बड़ा आयोजन होते कभी किसी ने देखा-सुना है! कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। इतने बड़े बडे संस्थान, सभागार, रंगमंच, नाचने- गाने के लिए जगह वगैरह वगैरह के बारे में देश में कोई सोचता है ! कभी नहीं ! आज़ादी के बाद बासठ सालों में बजट के पन्नों पर मजाल है इस मद का नाम कभी आया हो। मगर खेलने कूदने वालों के लिए अरबों रुपए लगाकर देश की राजधानी का पूरा नक्शा बदलने का काम अब अन्तिम से चरण में है। जो भी हो, खेल कूँद के लिए बड़े बड़े स्टेडियम, बड़े-बडे़ स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स, स्वीमिंग पूल और कोर्ट, देश भर में सैकड़ों की तादात में हैं। अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन, पहले एशियाड और अब कामन वेल्थ ! क्या कहने। भ्रष्टाचार के प्रदर्शन के लिए कला-संस्कृति में ऐसे मौके कहाँ ?
          बड़े-बड़े पढ़ने लिखने वाले हुए आज़ादी के बाद, उन्होंने अपनी तरफ से ज़ोर भी लगाया कि देश की जनता भी पढ़-लिखकर नवाब बनने की दिशा में अग्रसर हो मगर हुआ उल्टा, पढ़ने लिखने वाले या तो किसी सरकारी दफ्तर में बाबू या चपरासी हो गए या ज़्यादा से ज़्यादा किसी स्कूल कॉलेज में मास्टर। मजे़ उनके हुए जो पढ़ाई के पीरियड में डंडी मारकर खेल मैदान में खराबबनने की प्रेक्टिस करते रहे। उनके लिए आज देश में क्या कुछ नहीं है, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम और दाम कमाने के अनेक मौके हैं। ऐसे आयोजनों, आयोजनों में भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार में भाई-भतीजावाद, भाई-भतीजावाद में मंत्रियों अफसरों और व्यापारी-ठेकदारों के साथ षड़यंत्र रचने की सुविधाएँ इत्यादि इत्यादि क्या कुछ नहीं है। इस सबको देख-देखकर जलने और बुराई करने के अलावा पढ़ने-लिखने वालों के पास और क्या है!
          बदले हुए माहौल में वह पुरानी कहावत बदलने की जरूरत है-‘‘पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे खराब खेलोगे कूदोगे तो बनोगे नवाब!’’

हरिभूमि में दिनांक 11.08.2010 को प्रकाशित

4 टिप्‍पणियां: