मंगलवार, 24 अगस्त 2010

बहना मेरी राखी के बंधन को निभाना

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
         आज रक्षा बंधन है। धूम-धड़ाके के रिक्टर पैमाने पर अपेक्षाकृत सुस्त यह भावभीना त्योहार आजकल उतना उत्साहवर्धक नहीं रह गया है जितने दूसरे आयातित विदेशी त्योहार। बाज़ार की दृष्टि के इस त्योहार पर उतना मेहरबान ना होने से (जितनी वेलेंटाइन डे, फेंडशिप डे आदि-आदि पर होती है) यह एक ठंडे से त्योहार के रूप में आकर चला जाता है। आजकल यूँ भी परिवार नियोजन की वजह से पहले की तरह घर-घर में ढेर-ढेर बहनें नहीं होती हैं, फिर कन्या भूण हत्या की वजह से बहनों की संख्या और भी कम होती चली जा रही हैं। सबसे अखरने वाली बात ‘बहनापे’ की घोर कमी हो गई है।

         भारतीय फिल्मों के बारे में कलावादी समीक्षक चाहे जो भी कहें, मुझे तो लगता है माहौल खीचने में फिल्मों की बड़ी जबरदस्त भूमिका रही है। पारम्परिक वाद्यों की सुरीली सुर-लहरियों से पवित्र बहनापे का वह समा बंध जाता था कि हॉल में बैठा भाई, भले ही वह कितना भी कठोर क्यों ना हो, ज़ार-ज़ार रो पड़ता था और लौटते समय बहन के लिए कोई ना कोई तोहफा ज़रूर ले जाता था। पवित्रता की भावनात्मक लहरें उमड़कर ड्रेस सर्किल से होते हुईं गाँव-गाँव शहर-शहर फैल जाती थी। हीरोइन, ‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’ गाते-गाते भाइयों में बंधन निभाने का जज़्बा कूट-कूट कर भर देती थी, जिसकी परिणति रास्ते में किसी शोहदे की पिटाई हुआ करती थी। मगर जब से हिन्दी फिल्मों में बहन की भूमिका का लोप हुआ है हमारे इर्द-गिर्द भी बहन की व्यापक उपस्थिति लुप्तप्राय हो गई है।

         पुराने ज़माने में स्त्री को बहन कह कर पुकारना आम शिष्टता थी, मगर आजकल पुरूष इस शिष्टाचार से दूर भागने लगे हैं। जाने कौन स्त्री, खुद को बहन कहने पर कौन सा रूप अख्तियार कर ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। पहले, ‘बहना ओ बहना तेरी डोली मैं सजाऊँगा’ गाते हुए भाई बेहद फक्र महसूस करता था, लेकिन जमाना बदल गया है। आजकल की बहनें तो ऐसी हैं कि भाइयों को ही डोली में बिठाकर विदा कर दें।

         इन बहनों ने भी गज़ब की चाल पकड़ी है। वे पश्चिम की बहनों से प्रेरणा लेकर कपड़ा व्यापार को चौपट कर रहीं हैं। साड़ी, सलवार-कमीज़ हमेशा के लिए घड़ी कर रख दी जाएगी तो कपड़े का धंधा तो चौपट होगा ही। बहनों के विकट जज़्बे से भाई लोग घबराए हुए हैं। बहने रैम्प पर  जलवे बिखेर रहीं हैं। विडियो, सिनेमा में देहदर्शन की पराकाष्ठा से भाइयों की जबरदस्ती अग्नि परीक्षा ले रहीं हैं। भाई की डोली को लात मारकर स्वयंवर रचा रहीं हैं। भाई बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा परदे के पीछे से तमाशा देख रहा है। बहन आधुनिकता की धुंआधार आंधी में काफी आगे निकलती चली जा रही है । भाई, बहन के चॉटे के डर से दुबके रहने को मजबूर है। इस मामले में अगर उसने ज़्यादा बहादुरी दिखाने की कोशिश की तो स्पासंर तो जूते मारेंगे ही, बहनें भी एकजुट होकर कुटम्मस कर सकती हैं।

    कुछ सीधी-साधी बहनों को रक्षा की दरकार है, लेकिन रक्षा का पारम्परिक भार भाई लोग उठा नहीं पा रहे हैं, क्योंकि गुंडे भाइयों से ज़्यादा ताकतवर और संगठित हैं। बहनें दब रही है, भाई रक्षा नहीं कर पा रहा है, दबाने वाला भाई से ज़्यादा पहुँच वाला है। बहनें दहेज के लिए जिन्दा जलाई जा रहीं हैं, भाई निरीह खड़ा भस्म होती चिता को देखता रहता है। पृष्ठभूमि में कहीं कोई गीत नहीं सुनाई देता, ‘भैया मेरे राखी के बन्धन को निभाना’।

    दिनांक 05.08.2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित ।

3 टिप्‍पणियां: