बुधवार, 1 सितंबर 2010

हबीब तनवीर - जयन्ती, उन्होंने सिर्फ किया नहीं बल्कि बेहतरीन किया

हबीब साहब से हर मुलाकात की याद लम्बे समय से अब भी बिल्कुल तरोताज़ा है, हालाँकि उनसे रूबरू होने का मौका ज़्यादातर उनके नाटकों के ज़रिए ही हुआ, लेकिन एक ख़ास मुलाकात आज भी एक महत्वपूर्ण घटना के तौर पर जे़हन पर नक्श है। उन दिनों वे रंगमडल (भारत भवन) भोपाल के निर्देशक हुआ करते थे। सुप्रसिद्ध सिने निर्देशक सुधीर मिश्रा ख़ास हबीब साहब से मिलने के लिए भोपाल आए तो पहले से ही तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं और पूर्व रंगकर्मी/समाजसेवी आलोक प्रतापसिंह उनके साथ भारत भवन पहुँचे। सच कह रहा हूँ, रंगमंडल के निर्देशक के उस चेम्बर में, जिसकी धज किसी ऊँचे प्रशासनिक अधिकारी के चेम्बर सी थी, हबीब साहब को बैठा देखकर मुझे बड़ा अजीब लगा। वे इस माहौल में एकदम डपेपिज लग रहे थे। दो-तीन घंटे की इस मुलाकात में काफी बातें हुई, सुधीर भाई और हबीब साहब ने अपनी फिल्म - ये वो मंज़िल तो नहीं की यादें ताज़ा की जिसका केन्द्रीय पात्र विश्वविद्यालयीन ज़माने के आलोक प्रताप सिंह पर आधारित था। आलोक प्रताप सिंह और मैं थे तो भोपाल गैसकांड आन्दोलन की बातों के साथ हमारे नुक्कड़ नाटक दास्तान-ए-गैसकांड की बातें भी चलीं, उन्होंने इस नुक्कड़ नाटक के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। इस मुलाकात के एक-दो दिन पहले ही मैंने के.जी. त्रिवेदी के एक नाटक राम की लड़ाई में अभिनय किया था जिसे हबीब साहब ने रवीन्द्र भवन की सबसे आगे की सीट पर बैठकर देखा था। उन्होंने तुरंत मुझे पहचान लिया और मेरे अभिनय की तारीफ की। इस दौरान हबीब साहब रंगमंडल के पुराने कलाकारों और प्रशासन के असहयोगात्मक रवैये के कारण भी काफी आहत महसूस हुए, जिसके नतीजे के तौर पर उन्हें बाद में रंगमडल छोड़ना पड़ा।
बहरहाल, जनपक्षीय सामाजिक राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना से लैस हबीब साहब ने जहाँ रंगकर्म के प्रति अपने समर्पण और अनोखे लोक प्रयोगों के ज़रिये जनसाधारण व रंगमंच की दूरी को पाटकर रख दिया था, वहीं दुनिया भर में भारतीय रंगमंच की धाक जमाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारत भर में और वैश्विक स्तर पर भी भारतीय रंगकर्म का परचम फहराने में देश की दूसरी कोई भी हस्थी सत्ता की निकटता के बावजूद सफल नहीं हुई जबकि लगातार विरोध और बाधाओं के बाद भी हबीब तनवीर ने सिर्फ अपनी रंग दृष्टि के दम पर यह संभव कर दिखाया। वे रंगकर्म का एक सम्पूर्ण संस्थान थे, एक समूचा अध्याय थे जिसके बिना भारतीय रंगमंच का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता। उन्होंने सिर्फ किया नहीं बल्कि बेहतरीन किया। उनकी अनुपस्थिति से भारतीय रंगमंच पर एक अजीब सा सन्नाटा खिच आया है, एक बड़ा निर्वात सा पैदा हो गया है जिसका भरना लगभग नामुमकिन सा लगता है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ख़ूब कहा आपने

    कला के शिखरपुरूष हबीब तनवीर की स्मृति को विनम्र प्रणाम

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