सोमवार, 15 नवंबर 2010

आका का घेरा

//व्यंग्य- प्रमोद ताम्बट//
    दुनिया के आका तशरीफ लाए, पंचतारा पीड़ितों से हाथ मिलाया, बच्चों के साथ नाचे-कूदे, हमारे धुरन्दर भाषणवीरों को पछीट-पछीटकर भाषण पिलाया और दोनों देशों की आम जनता के करोड़ों रुपए फूँककर अपनी तशरीफ वापस ले गए।
    आका, दुनिया भर में कहीं भी जब अपनी तशरीफ लेकर जाते हैं, तो उनकी फौज, चाहे वो कुत्तों की हो, सिपाहियों की हो, फौजी गैर-फौजी बाबुओं-अफसरों की हो, ‘गुप्त’ रूप से दूसरे मुल्कों का सब कुछ ‘चर’ जाने वाले सी.आई.ए., पेन्टागन के तेज़तर्रार एजेन्टों की हो, पूरे ठसके के साथ उनसे पहले वहाँ पहुँच जाती है और मोहल्ला-पड़ोस, दूर-पास की तमाम इमारतों इत्यादि को चारों ओर से घेर लेती है। वे जिस हवाई अड्डे से चढ़ेंगे-उतरेंगे उसे घेर लिया जाएगा, वे जिस हवाई जहाज से उडेंगे उसे घेर लिया जाएगा, वे जिस ट्रेन में बैठेंगे उसे घेर लिया जाएगा। मकान, दुकान, होटल, बगीचा, सड़क, गली, गाँव, शहर जहाँ कही भी उन्हें जाना हो पहले उसे चारों ओर से घेरा जाएगा ताकि वह कोई पतली गली ढूँढ़कर भाग ना खड़ा हो। यह उनकी अन्तर्राष्ट्रीय पॉलिसी का महत्वपूर्ण हिस्सा है कि कहीं भी जाओ तो पहले उस जगह को अच्छी तरह से घेर लो, बाकी काम बाद में। घेरने की क्रिया को सबसे पहले महत्वपूर्ण कार्यवाही के रूप में अन्जाम दिया जाता है, चाहे कुछ भी हो जाए। उनका बस चले तो वे पहले मेजबान के पूरे देश को ही घेर लें तब कहीं जाकर मेहमानी के लिए आका अपने हवाई-महल से बाहर कदम रखें। बड़ी भारी गनीमत है कि आमतौर पर इस किस्म के आका लोग पान-वान खाने का शौक नहीं रखते वर्ना उनकी फौज पहले पान की दुकान को सभी दिशाओं से घेरे, दो-चार लोगों को पीटे, तब कहीं जाकर आका पान खाने की रस्म अदा करें।
    वे सब के सब किसी भी मुल्क में कुछ इस तरह घुस आते हैं जैसे ‘अब्बा का घर’ हो। अब्बा के घर में भी लोग बड़ी शराफत से जाना पसंद करते हैं। मगर ये आऐंगे, खोजेंगे-खकोरेंगे, तोड़ेंगे-फोड़ेंगे, पूरा घर उलट-पुलटकर रख देंगे और हम ‘अतिथि देवों भवः’ की तख्ती हाथ में लिए सहमें, ठिठके से चुपचाप एक तरफ खड़े रहकर प्रशंसा भाव से तमाशा देखते रहेंगे। उनका कुत्ता हमारे कुत्ते को बुरी तरह भंभोड़कर, मार-पीटकर चला जाएगा, हम उस कुत्ते की मर्दानगी की तारीफ करते रहेंगे, वाह क्या कुत्ता है।
    वे मेजबान के किसी आदमी, कुत्ते, फौज-पुलिस-जासूस, यहाँ तक कि खुद मेज़बान पर भी राई-रत्ती का विश्वास नहीं करते, जो कि मुझे लगता है ठीक ही करते हैं। जिस देश में जगह-जगह लिखा मिलता हो कि ‘‘अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें’’ और जहाँ हर आदमी दूसरे की लुटिया, लाठी, लंगोटी लेकर भागने की जुगत में हो, वहाँ अगर कोई खुद अपनी सुरक्षा का निजी प्रबंध साथ लेकर न चले तो हम तो मौका लगते ही बीच चैराहे पर खडे़-खडे़ उसे बेच खाएँ। वे कितनी ही तगड़ी घेराबन्दी कर लें हम अपनी पर आएँगे तो ‘सुरक्षा परिषद’ भी उन्हें बचा नहीं पाएगी वे अच्छी तरह जानते हैं।
दिनाँक 15.11.2010 को पत्रिका में प्रकाशित

2 टिप्‍पणियां: