सोमवार, 27 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार चिन्तन

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          कुछ प्रबुद्ध नागरिक गम्भीर चिन्तन करने के लिए एकत्र हुए। एक नेताजी ने चिन्तन शुरू करते हुए कहा-कितनी चिन्ता की बात है कि देश में भ्रष्टाचार एक बहुत ही चिन्ताजनक दशा में पहुँच गया है। हम किसी मन्त्री के पास कोई काम करवाने जाते हैं तो उसे काम करने से ज़्यादा इस बात की चिन्ता रहती है कि हमंने उस काम के लिए कितना माल लिया है।
          तत्काल मन्त्रीजी बोल पड़े- नेताजी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। बेइमान लोग काम हाथ में लेते वक्त हमारे नाम से रिश्वत लेते हैं, मगर इधर देते-दवाते कुछ हैं नहीं, पूरा माल खुद ही हड़प कर जाते हैं। भ्रष्टाचार का यह तरीका बेहद चिन्ताजनक है। जिसके नाम से जो लिया है वह उसे दिया जाना चाहिए।
          एक आला अफसर बोले- हम जब लाखों रुपया खर्च कर अपनी पोस्टिंग करवाते हैं तो हमारी यह अपेक्षा रहती है कि हमारे मातहत अफसर जल्दी से जल्दी हमारी रकम की भरपाई करें। मगर वह कम्बख्त उगाही तो कर लेता है, पर हम तक पहुँचाने में मक्कारी करता है। हम अगर तबादला कर दें तो हमारा ही हिस्सा ऊपर वालों को खिलाकर अपना तबादला रुकवा लेता है। बहुत ही खराब समय आ गया है।
          एक पुलिस महकमें के अफसर बोले- सभी जगह यही हाल है श्रीमान। अब बताइये आजकल इतना अपराध हो रहा है, इतना अपराध हो रहा है कि पूछिये मत, पैसे की रेलमपेल है। मगर नीचे वाले हफ्ता वसूली तक में चुंगी कर लेते हैं, ऊपर वाले सोचते हैं कि हमने कर ली। डिपार्टमेंट में बेइमानों की संख्या बहुत बढ़ गई है।
          एक प्रकान्ड कानूनविद उठकर बोले-देखिए सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार कानून के धंधे में है। आदमी को सबसे पहले पुलिस वाले थाने में ही चूस लेते हैं, फिर अदालत में दलाल, मुशी, वकील उसके कपड़े उतार लेते हैं और एक नंगे चुसे हुए आदमी को हमारे पास भेज दिया जाता है। यह कोई बात हुई। आखिर हमने इतनी मोटी-मोटी कानून की किताबें इसलिए पढ़ी हैं कि हमारे हाथ कुछ लगे ही नहीं ? यह अच्छी बात नहीं है। करप्शन एक दिन देश को खा जाएगा।
          एक व्यापारी अपनी व्यथा सुनाता हुआ बोला-आजकल व्यापार करना बड़ा मुश्किल हो गया है साहेबान। नकली माल की कीमत इतनी बढ़ गई है कि हमें कुछ बचता ही नहीं रहा है। असली माल बेचो तो इस्पेक्टर केस बना देता है। इस कदर भ्रष्टाचार हो गया है कि बच्चों के भूखों मरने की नौबत आ गई है। यह स्थिति सुधरनी चाहिए।
          कार्पोरेट घराने का एक प्रतिनिधि बोला- आजकल देश चलाना कितना मुश्किल हो गया है। हर मंत्री, नेता, अफसर, पुलिस-प्रशासन की नज़र हमारी तिजोरी पर ही रहती है। हर आदमी जनता को लूटकर कमाए धन में से हिस्सा चाहता है। यह कोई अच्छी बात है क्या ? देश में जल्दी से जल्दी एक नई क्रांन्ति आना चाहिए।
          तमाम प्रबुद्धजन भ्रष्टाचार के सम्बंध में अपने कटु अनुभवों से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने के बारे में चिंतन करते रहे, देश अपनी रफ्तार से चलता रहा।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

चोरों का डाटा चोरी करने की तकनीक

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//  
    हाल ही में एक धुरन्धर भारतीय गुप्तचर ने भारत के आन्तरिक सुरक्षा विभाग को एक अत्यंत गुप्त रिपोर्ट भेजी है। गुप्त इतनी है कि भेजने वाले तक को पता नहीं है। रिपोर्ट में यह महत्वपूर्ण खुलासा किया गया है कि अमरीका में कुछ ही दिनों पहले एक बहुत ही जबरदस्त आतंकवादी हमला किया गया है जिसका जिम्मेदार कोई ‘असाजे’ नामक खूँखार आतंकवादी संगठन है और इस संगठन का सरगना कोई ‘विक्की’ नाम का आतंकवादी है। विक्की इन दिनों ब्रिटेन में फरारी काटता हुआ पकड़ा गया है।
    यह आतंकवादी जिसके बाप का नाम ‘लीक्स’ बताया जाता है, एक नई तरह का आतंकवादी है जो कम्प्यूटर में से गोपनीय सरकारी जानकारियों को चुराने में माहिर है। अमरीका की बहुत सारी गुप्त जानकारियाँ चुराकर उसने अमरीकी गोपनीयता प्रणाली की खटिया खड़ी कर दी है। इसमें सबसे अहम खुलासा जो हुआ है वह अमरीकियों द्वारा दुनिया भर के नेताओं को दी जाने वाली गालियों के संबंध में है। इसके अलावे उसने ऐसी-ऐसी जानकारियाँ चुराने में सफलता हासिल की है जिन्हें चुरा सकने की क्षमता और कुशलता केवल अमरीका के पास ही मौजूद है। अमरीका वाले ‘विक्की लीक्स’  के प्रत्यर्पण की कोशिश में हैं, हो सकता है इस रिपोर्ट के श्रीमान तक पहुँचने के पहले ही उसे अमरीका को सौंप दिया जाए।
    समझा जाता है कि इस जानकारियाँ चुराने वाले शख्स की अमरीका को इसलिए ज़रूरत है ताकि उसे पकड़कर दूसरे मुल्कों की गोपनीय जानकारियाँ चुराने के काम में लगाया जा सके। चुराए जाने की दृष्टि से हमारे देश में कई सारी अहम जानकारियाँ है जिन्हें इस आतंकवादी के चुंगल से बचाया जाना बेहद ज़रूरी है। जैसे हमारे देश के नेता लोग यदि दूसरे मुल्कों के शासनाध्यक्षों को गालियाँ देते होंगे तो वे अवश्य ही बहुत गंदी-गंदी होती होंगी और उनका दुनिया के सामने आना हमारे लिए बहुत ही नुकसानदेह होगा। हमारी गालियाँ सारी दुनिया में फैल जाएँगी और यह बौद्धिक सम्पदा अधिकार के हनन का मामला बन जाएगा। फिर, भ्रष्टाचार, दलाली, कमीशनखोरी, यत्र-तत्र-सर्वत्र सांठगांठ, कालेधन संबंधी सूचनाओं का जो भंडार हमारे देश के कम्प्यूटरों में भरा होगा वह तो दुनिया के तमाम सूचनाओं के भंडार से कई गुना ज़्यादा हो सकता है। वैसे तो अपने महारथी अपनी गोपनीय सूचनाएँ ज़्यादातर अपने दिमागों में ही सुरक्षित रखते हैं जहाँ ‘विक्की’ के पहुँचने की संभावना शून्य है, फिर भी एहतियात बरतने की आवश्यकता है।
    एक और महत्वपूर्ण बात मैं विभाग के माध्यम से सरकार के ध्यान में लाना चाहता हूँ वह यह कि इस आतंकवादी द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली चोरों का डाटा चोरी करने की यह एक नई तकनीक है इसे हमारे देश के स्कूल-कालेजों में सिखाने के लिए विशेष प्रयास किये जाने चाहिये ताकि हमारे देश के लाखों-करोड़ों नौजवान अपनी बेरोज़गारी दूर करने के लिए सरकार के भरोसे ना बैठकर स्वरोजगार के ज़रिए अपना भविष्य सँवार सकें।
नईदुनिया में दिनांक 13.12.2010 को प्रकाशित ।   

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

सुने न सुने

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//       
            एल्लो, यह भी कोई बात हुई! पूछा जा रहा है कि हमने पी.एम.की क्यों नहीं सुनी ! एक बात साफ-साफ कहे दे रहे हैं कि एक यही आदत हममें कभी नहीं रही। बड़ों की बात सुनना अच्छी बात है, मगर हममें यह गुण ही होता तो क्या हम राजनीति में आते ? बचपन से इसी बात पर पिटते आ रहे हैं कि हम किसी की सुनते नहीं। पहले माँ-बाप से पिटे, फिर मास्टरों से पिटे, फिर गली-मोहल्लों में पटक-पटक कर पीटे गए। पिटते-पिटते कब राजनीति में आ गए पता ही नहीं चला। राजनीति में भी पहले अपोज़िट पार्टी वालों से पिटे फिर अपनी ही पार्टी के अपोज़िट गुट वालों से पिटे, मगर मजाल है जो हमने कभी किसी की सुनी हो। अरे, अगर सुनना ही होती तो पुलिस में जाते, फौज में जाते, दिन-रात सुनते रहते दाएँ मुड़, बाएँ मुड़। मगर जब सुनने-वुनने के संस्कार हमने विरसे में पाए ही नहीं तो फिर यह गिरी हुई हरकत हम करते ही क्यों ?
            अव्वल तो हमें यह बताया जाए कि मंत्री बनाते समय हमसे कब कहा गया कि हमें पी.एम.की सुनना ही पड़ेगी! दूसरे यदि हमसे सुनने का ही काम कराना था तो फिर क्यों हमें मंत्री बनाया गया! चलो बना दिया तो बना दिया, फिर क्यों नहीं पार्लियामेंट में हमसे शपथ खवाई गई कि हम ऐसे पी.एम.की बात भी सुनेंगे जो कुछ बोलता ही नहीं। चार लोगों के सामने अगर हमसे माइक पर यह कसम खवा ली जाती तो हम सुनते, बिल्कुल सुनते। बल्कि, उन्हीं की सुनते, और किसी की सुनते ही नहीं। जनता की तो बिल्कुल ही नहीं सुनते।
            चलो छोड़ो, आप तो यह बताओ कि संविधान के, किस पन्ने के, किस अध्याय की, किस धारा की, किस उपधारा के, किस संशोधन में यह लिखा हुआ है कि हमें पी.एम.की सुननी ही सुननी है। अगर लिखा हो तो बताओ, हम सुनने को तैयार हैं। हमें फिर मंत्री बनाओं, पी.एम.कहेगा कि सर के बल खड़े हो जाओ, तो हम सर के बल खडे़ हो जाएँगे। मगर संविधान में जब ऐसा कुछ लिखा ही नहीं है तो फिर हमसे ऐसे असंवैधानिक सवाल-जवाब क्यों किये जा रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा।
            ठीक है कि हमें किसी की सुनने की आदत नहीं, परन्तु ऐसे कोई कान के हम बहरे नहीं है कि कोई कुछ कहे और हम सुने ही ना! मगर यदि कोई बहुत ही धीमें-धीमें कुछ कहे तो हम भला कैसे उसकी बात सुन लें। अच्छा हो कि सभी को सरकारी खर्चे पर कान की मशीन दिलवा दी जाए ताकि यह समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाए।
          आइन्दा के लिए यह भी सुनिश्चित कर लिया जाए कि पी.एम.ऐसा बनाया जाए जो बोलता हो और ज़ोर से बोलता हो। तभी हम उसकी बात कान खोल कर सुन पाएँगे। अगर ऐसा ही शांत, धीर-गम्भीर, विद्वान, बुद्धिजीवी किस्म का पी.एम.बनाया गया तो हम बताए दे रहें हैं कि हम सुने ना सुने कोई गारन्टी नहीं।   
दिनाँक 10.12.2010 को पत्रिका में प्रकाशित।