रविवार, 9 जनवरी 2011

नीलाम-बोली क्रिकेटरों की

    //व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
    भारत में निजीकरण की पराकाष्ठा तो खैर अभी देखना बाक़ी है, फिलहाल तो क्रिकेटरों की खरीदी-बिक्री देखने में सब्जी मंडी का सा आनंद आ रहा है। क्रिकेट से ज्यादा रोमांचकारी खेल आजकल यही लग रहा है। देश के लिये खेलने का दम भरने वाले चोटी के देश-प्रेमी क्रिकेटरों के भावलग रहे हैं, बोलियाँ बोली जा रहीं हैं नीलामी चल रहीं है -ढाई करोड़  एक, ढाई करोड़  दो - तीन करोड़  एक, तीन करोड़  दो………। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में खुले आम नीलाम होते नामचीन खिलाड़ी, मंडी के बैंगनों की तरह खामोश, निर्विकार से अपनी नीलाम-बोली का तमाशा देख रहे हैं। क्या खूब नज़ारा है।
      करोड़पति लोग, पैसा कमा-कमा कर अतरा चुके अरबपति- खरबपति, शेयर बाजार से लेकर केसिनों, मटके, जुए-सट्टे तक अपनी बोरियत दूर करने की नाकाम कोशिश कर थक चुके धन-कुबेरों ने अपने मनोरंजन के लिये नया तरीका ढूँढा है। ये उकताए लोग अब चल-अचल संपत्ति की तरह क्रिकेटरों की बोलियाँ लगा रहे है, मोल भाव कर रहे है, उन्हें खरीद रहे हैं, और बडे-बडे क्रिकेटर दास होने का गर्व महसूस करते हुए नतमस्तक हुए जा रहे है। गले में पट्टा और चेन बँधवाकर किसी धन कुबेर के दरवाजे पर मुस्तैदी से खडे होने का बेकरारी से इंतजार कर रहे है।
      जो पहले लाट में सफलता पूर्वक बिक चुके वे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, वाह क्या खूब बिके ! देश भर से बिकने की बधाईयाँ ले रहे थे। जो वाजिब दाम में नहीं बिके वे अफसोस में पडे़ हैं, काश दो-चार चौके और मारे होते, एखाद-दो विज्ञापन और कबाडे़ होते, कुछ तो वेल्यू बढ़ती। जो बिक ही नहीं पाए उन्हें मलाल हो रहा है कि हाय इस मंडी में अपनी तो कोई औकात ही नहीं लगी, बेकार समय बरबाद किया क्रिकेट खेलकर। वे आशा भरी नजरों से मालिकों की ओर देख रहे हैं, मन में दुआएँ कर रहे है कि  -हे ऊपर वाले मालिक इस नीचे वाले किसी मालिक की मति फिरा, मेरा भी तो दाम लगवा, भले ही मरे के मोल ही बिकवा, मगर बिकवा तो। चिंता की कोई बात नहीं, नीलामी का यह बाजार अब बारबार भरने वाला है। अगर पहले नम्बर नहीं लगा तो आगे जरूर लग जाऐगा। 
      मानव इतिहास में पढ़ा है, किसी समय दुनिया भर में दास प्रथा चला करती थी। धनाड्य सामंतगण अपनी-अपनी औकात के हिसाब से दासों की मंडी से दास खरीदते थे। अच्छे-अच्छे हट्टे-कट्टे, हर काम में माहिर दास ऊँची से ऊँची कीमत चुकाकर खरीदे जाते और दड़बों में ले जाकर बंद कर दिये जाते। कोड़ो की फटकार के बीच दास अपने मालिकों का सारा घरेलू कामकाज, खेती-बाड़ी, व्यापार-व्यवसाय उनकी तेल-मालिश के अलावा दीगर मेहनत-मजूरी भी करते थे, उनको पहलवानी दिखाते, उनके लिये कुश्तियाँ लडते, खूना-खून तक हो जाते। इस तरह नाना प्रकार के मनोरंजन से अपने मालिकों को खुश रखते। वे कद्दावर दास हर काम में माहिर होते थे इसीलिये उनको हासिल कर उनपर गुलामी का जुआ लादने के लिये ऊँची से ऊँची बोली लगाई जाती थी। वे गुलाम तो दुनिया के सारे काम करना जानते थे, मगर ये हमारे महान क्रिकेटर अब क्या करेंगे ? वे बेचारे तो क्रिकेट खेलने के अलावा दूसरा कोई काम जानते ही नहीं ? बचपन से ही माँ-बाप ने हर चीज से दूर रखकर बल्ला जो पकड़ा रखा है। अपने देश की तो खासियत ही यही है, अगर आपके हाथ में पैसा कमाने का सूत्र लग जाए तो न पढाई-लिखाई की जरूरत है ना नीति-नैतिकता सीखने की। पैसा आऐगा तो इस सब बकवास को कोई नहीं पूछेगा। अब, जब नीलाम-बोली में बिककर मालिक की अर्दलाई करना पड़ेगी तो आटे-दाल का भाव पता चलेगा।
      एक और मुसीबत उनपर पड़ेगी जिन्होंने बल्ला चलाने के अलावा कुछ नहीं सीखा। मान लीजिए शाहरुख, प्रिटी जिंटा का मन कभी करे कि चलो अब ठुमके लगाओं तो कच्चे-पक्के ठुमके तो वे लगा लेंगे, क्योंकि आजकल सारे क्रिकेटरों को यहाँ-वहाँ ठुमके लगाते काफी देखा जा रहा है, लेकिन खुदा ना खास्ता खरीदारों का कभी मन करे कि -बहुत हुआ क्रिकेट अब जरा बाज़ार से सब्जी-भाजी ले आओ, तो फिर वे बेचारे क्या करेंगे। सब्जी तो उनके बाप ने कभी नहीं खरीदी ! या मान लो कभी मालिक का मन करे कि आज पाँच सितारा होटल का खाना नहीं खाना है, और वह गुलाम से कहे, चल रे आज मक्के दी रोटी सरसो का साग बना ला, तो हमारा महान क्रिकेटर बेचारा क्या करेगा ? भई मालिक तो मालिक है कोई भी हुक्म छोड  सकता है, गुलाम मना कैसे करेगा ? हो सकता है मालिक गाड़ी की चाबी हाथ में थमाता हुआ कहे, चलो गाडी ड्राइव करो, मुझे स्टेडियम तक ले चलो, जहाँ तुम्हारा मैच होने वाला है……. और खेलना कैसा भी, गाड़ी जरा ढंग से चलाना, एक स्क्रैच भी नहीं आना चाहिये, वर्ना किसी दूसरे को मैदान में उतार दूँगा, तुम दरबानी करना फिर मेरे बंगले की।
      रोम में ग्लेडिएटर हुआ करते थे, वे उच्च कोटी के दास लड़ाके हुआ करते थे। उन्हें पाने के लिये सामंतों को तगड़ी बोली लगाना पड़ती थी, ज्यादा से ज्यादा कीमत देकर उन्हें खरीदना पड़ता था। वे गजब के लडाके होते थे। प्राण तजने तक एक दूसरे के खिलाफ खूनी जंग लड़ कर सामंती प्रभुओं का मनोरंजन करते थे, उन्हें खुश रखते थे। मालिक उन्हें चिल्ला-चिल्ला कर लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे, जैसे पाड़ों को किया जाता है। अब अनकरीब यही नज़ारा क्रिकेट में भी देखने को मिलेगा। सारे मालिक जिनके करोड़ों रुपये क्रिकेटरों पर खर्च हुए हैं, पवेलियन में बैठकर चिल्ला-चिल्ली करेंगे -मारो धोनी मारो, बॉल ढूँढे नहीं मिलना चाहिये……… अरे पठान बाउंसर फेंक, मुँह तोड़ , नहीं बन रहा तो बालिंग-वालिंग छोड़ , मुक्का मार साले को, नाक तोड़ ……..। साले पैसे वसूल ना हुए तो कपड़े धुलवाऊँगा तुझसे।
        दासों की उस जमाने में बडी दुर्दशा होती थी। रहने के लिए मिलने वाले बाड़ों में मुर्गी का रहना तक मुश्किल था। क्रिकेटरों को भी वो दिन देखना पड़  जाए तो क्या होगा ? मैच के लिए मैदान में, फिर पॉव में चेन डालकर बाड़े  में बंद। जीते तो खाना मिलेगा, हारे तो कोड़े पडेंगे। जितने रन बनाओगे, चौके-छक्के लगाओगे, उतना खाना मिलेगा। जीरो पर आऊट हुए तो सूखी रोटी प्याज  भी नहीं मिलेगी। विकेट लोगे तो खीर-पूरी मिलेगी, नहीं तो मुँह तकना उनका जो मुर्गा शेम्पेन का आनन्द लेंगे।
      वाह उदारीकरण वाह ! निजीकरण की यह नाजायज़ संतान उदारीकरण का ऐसा बेमिसाल इस्तेमाल इतनी जल्दी होगा, सोचा नहीं था। देश के बहुत सारे लोगों को तो धनकुबेरों ने पहले ही से अपने घर के दरवाज़े पर बाँध रखा है, खिलाड़ियों को भी नीलामी में खड़ा होना पड़ेगा, सोचा नहीं था।
व्यंग्य ब्लॉग में दिनाँक 19 मई 2009 को लिखी गई।

5 टिप्‍पणियां:

  1. sachchayee ko bebaki se likhne ke liye aap wakyee badhyee ke patr hain.

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  2. बहुत ही साधा हुआ और सटीक व्यंग्य किया है सर!.
    क्रिकेटरों की नीलामी के तुलना दास प्रथा से करना बहुत ही अच्छा लगा.

    सादर

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  3. .सच्चाई बयानी हेतु हार्दिक धन्यवाद.

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  4. बिक तो रहे ही हैं,अब क्या करेंगे, यह नहीं मालूम।

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  5. सटीक अभिव्यक्ति। बधाई। कल को ब्लागर्ज़ की भी बोली लग सकती है। उसमे सब से ऊपर आपका ही नाम होगआअग्रिम बधाई आपको।

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