मंगलवार, 11 जनवरी 2011

ठंड के मारे सब सुन्न

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
             ठंडको जाड़ाभी कहा जाता है। क्यों, यह अब समझ में आ रहा  है । यह अंग-प्रत्यंग, हर प्रकार के शारीरिक द्रव्य, यहाँ तक कि बुद्धि, तर्क संवेदना, विचार तक को जड़कर देती है, इसलिए। इन दिनों यही हाल है। सुबह-सुबह एक चेला-‘‘सर आजकल कुछ लिख नहीं रहे हैं’’, कहता हुआ चरण छूने की नीयत से शरीर पर शिद्दत से पड़ी रज़ाई हटाकर हमारे चरण ढूँढने के लिए आगे बढ़ा ही था कि मैंने लगभग चीखकर उसे चेतावनी दी-‘‘खबरदार जो पाँव छूने की कोशिश की, मैं आशीर्वाद देने के लिए हाथ रज़ाई से बाहर निकालने वाला नहीं हूँ!’’ चेला परिस्थितियों को समझते हुए खुद ही बोल पड़ा-‘‘समझ गया, समझ गया, आजकल लिख क्यों नहीं पा रहे आप। हाथों में गठान लगाकर रज़ाई में घुसे पडे़ रहोगे तो लिखोगे कहाँ से!’’ मैंने कहा-‘‘ऐसी बात नहीं है! लिख तो फिर भी हम लें, कम्बख्त कलमों में स्याही तक ठंड के मारे जमी पड़ी है।’’
          क्या नज़ारे हैं इन दिनों। बाज़ार जाइये, यूँ तो ग्राहकी कम ही चल रही है, मगर दुकानदार, जो मिले सो ओढ़कर सेन्टाक्लॉज बना बैठा हुआ है या दुकान के बाहर बैठकर आग ताप रहा है। कुछ माँगो तो कहेगा-‘‘नहीं है! अगली दुकान देख लो।’’ आप वांछित वस्तु की ओर उँगली दिखाकर कहोगे-‘‘वह तो रखी है, देते क्यों नहीं!’’ वह कहेगा-‘‘क्वालिटी खराब है, और कहीं देख लो। वाह, क्या बात है! यह तो सरासर रामराज्य सा आ गया। जो काम गाँधी जी से लेकर मौजूदा रामभक्त नहीं कर पाए वह ठंड ने चुटकियों में कर दिया, हालाँकि चुटकियाँ बजने की वस्तुस्थिति है नहीं।
          चोरी-चकारी, नकबजनी, डकैती, लूटमार, पाकेटमारी, चेन स्नेचिंग जैसे गृह उद्योगों की सूचनाएँ आजकल अखबारों से लगभग गायब हैं। आप कह सकते हैं कि ठंड के मारे संवाददाता खबरें नहीं लिख रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि वे सारे कर्मठ चोर-गिरहकट धंधा-पानी छोड़कर, ठंड के मारे अपने-अपने घरों में दुबके पड़े हैं। कौन निकले घर के बाहर, फालतू अकड़-अकड़ा गए तो! हालाँकि चोरों के सामने सुनहरा मौका है, किसी के सामने उसकी अटैची लेकर भाग जाओ, ठंड के मारे उसके मुँह से आवाज तक न निकलेगी, और यदि आवाज़ निकल भी गई तो पुलिसवाले थाने में ज़ब्त लकड़ी के सामान से जलाए जा रहे अलाव का सुख छोड़कर चोर के पीछे दौड़ने की ज़हमत नहीं उठाने वाले।
          इस कदर महँगाई हो रही है, त्राहि-त्राहि मच जाना चाहिए, मगर मचे कैसे, ठंड ने इंसानी जज़्बातों को काबू में कर रखा है। मंदिरों से घंटे-घड़ियालों की आवाजे़ नहीं आ रही, मज़्जिदों से अज़ानें स्थगित चल रही हैं। जगह-जगह चलने वाले धर्मगुरुओं के प्रवचन बंद हैं। नेताओं के लम्बे-लम्बे भाषण मुल्तवी हैं। जबकि इन दिनों कोई भी चाहे तो भाषणों-प्रवचनों से जनता जनार्दन को आराम से लोहूलुहान कर सकता है, क्योंकि चाहकर भी ठंड के मारे कान बंद करने के लिए उँगली तक नहीं उठाई जा सकती, मगर भाषण-प्रवचन देने के लिए इस कड़ाके के जाड़े में मुँह खोले तो कौन खोले। स्वर नलिका, कंठ इत्यादि सब ठंड के मारे सुन्न पड़े हैं।  
नईदुनिया में दिनाँक 01.01.2011 को प्रकाशित।

6 टिप्‍पणियां:

  1. यदि शरीर जड़ कर देने से जाड़ा नामक शब्द उत्पन्न हुआ तो घोटालों ने तो सारा तन्त्र जडवत कर दिया है। इनका नाम क्यों न जड़द रख दें।

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  2. बहुत ही बढ़िया व्यंग्य किया है सर!
    प्रवीण जी ने भी सही कहा है.

    सादर

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  3. हम तो हिम्‍मत के साथ बैठे है डेस्‍कटॉप के साथ। अंगुलियां ठिठर रही हैं फिर भी टिप्‍पणी लिख रहे हैं। अच्‍छा व्‍यंग्‍य है।

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  4. बहुत ही बढ़िया व्यंग्य....!

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  5. बहुत बढ़िया...
    इस बार तो भोपाल में अलाव तोड़ ठण्ड पड़ी... महगाई थमने का नाम नहीं लेती...
    तो ऐसे में लिखें या खुद को कुछ लिखने के लिए बचाएं...

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