बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

दुग्ध क्रांति के देश में दूध की शार्टेज

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//      
          देश भर की गाय-भैंसें, बकरियाँ, उँटनियाँ धबाधब दूध देती हैं, डेरियों में टेंकरों पे टेंकर दुग्ध उत्पादन होता है, ऊपर से देश के नकली दुग्ध उत्पादकगण अलग देश की दुग्ध-माँग के विरुद्ध भरपूर आपूर्ति सुलभ कराते हैं, फिर भी देश के लाखों दुधमुँहे गरीब बच्चों को दूध पीने को नहीं मिल पाता, यह एक बड़ी विडंबना है। दूध का इतना सारा उत्पादन आखिर जाता कहाँ है यह खोज का विषय है।
          मैंने खोज की तो पाया कि इसका कारण हमारी सांस्कृतिक-जड़ों में मौजूद है। पाप करके गंगा नहाना हमारी पुरानी परम्परा रही है, मगर आजकल प्रदूषण के चलते गंगा पाप धोने के लिहाज से सुरक्षित नहीं है और न ही वह देश भर में सर्वसुलभ है। इसलिए दूध से धुलकर अपनी छवि उज्जवल-धवल बनाए रखना पापियों का प्रिय शगल और आवश्यकता है। निर-निराले पाप कर्मों व असामाजिक कुकृत्यों की इस कर्मभूमि पर चारों ओर दूध के धुलों की भीड़ को देखकर सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इतना सारा दूध आखिर चला कहाँ जाता है।
          भाँति-भाँति की चोरी-डाकेजनी, ठगी-जालसाजी, धोखेबाजी-अन्याय, हद से हद दर्जे का पापकर्म करने के बाद भी आदमी दूध से धुल-पुछकर शान से गरदन उठाए घूमता है। इसके लिए काफी दूध की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए दूध की शार्टेज हमेशा चलती रहती है। दरअसल देखा जाए तो देश में शार्टदूध और पापकर्मों का वाल्यूम दोनों समानुपातिक है। इससे ही यह सिद्ध होता है कि दूध की सम्पूर्ण खपत पापियों के बीच में ही है।
          देश में जितना पाप, भ्रष्टाचार, दुराचार-तिराचार बढ़ रहा है उतना ही फालतू का पैसा भी बढ़ता जा रहा है। यह फालतू का पैसा पलटकर दूध की शार्टेज बढ़ा रहा है। जिसके पास जितना फालतू पैसा है वह उतना दूध खरीदकर तबियत से धुल लेता है और बेदाग-धब्बे होकर सार्वजनिक स्थलों पर धूमता-फिरता है। किसी को पता ही नहीं चल पाता कि जगमग करती दूध की सफेदी के पीछे कितने दाग-धब्बे हैं। जिसके पास पैसे का टोटा है वह अपने पापों के अनुपात में दूध नहीं खरीद पाता सो मामूली से मामूली पाप में कानून के हथ्थे चढ़कर पापी साबित हो जाता है और जेल की हवा खा आता है।
          पैसा-पाप-दूध की शार्टेजयह तीनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। आदमी जितना पाप करेगा उतना पैसा बनाएगा, जितना पैसा बनाएगा उतना पाप करने के लिए प्रवृत हो और उसे अपने पाप धोने के लिए उतने ही दूध की ज़रूरत पड़ेगी जो कि गरीब बच्चों तक नहीं पहुँच पाएगा। दूध से धुलकर जितना पाक-साफ दिखेगा उतना सहजता से पाप कर्म में लिप्त हो सकेगा और जितना पैसा बना सकेगा उतना दूध खरीद कर अपने आप को धो सकेगा। इस तरह यह स्पष्ट है कि दुग्ध क्रांति का देश होने के बाद भी हमारे देश में बच्चों को दूध से वंचित क्यों रहना पड़ता है। सारा दूध अगर पापियों-दुष्टों कुकर्मियों के द्वारा अपनी छवि झकाझकरखने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा तो बच्चे बेचारे दूध से वंचित नहीं रहेंगे तो क्या करेंगे।

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सार्थक व्यंग्य किया है सर!

    सादर

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  2. अच्‍छा व्‍यंग्‍य है। यह लोग क्‍या नकली दूध से नहीं नहा सकते?

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  3. बहुत मारक व्यंग्य लिखा है आपने, मैं हिसाब लगा रहा हूँ कि कितने गरीब बच्चों के हिस्से का दूध में पी जाता हूँ :)

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  4. सार्थक शोध, गहरे विषय पर। साँपों को दूध पिलाना भी जोड़ लेते।

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  5. बहुत ही सार्थक व्यंग्य किया है| आभार|

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  6. दूध सी पाक साफ़ भाषा..और विचार..मन झकाझक कर दिया..

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