गुरुवार, 3 मार्च 2011

‘क्रिकेटोरिया’

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
       दुनिया के कुछ चुनिन्दा मुल्क एक बहुत ही भयानक किस्म के ‘फीवर’ की चपेट में आने वाले हैं। सबसे सनसनीखेज़ बात यह है कि हम और हमारे कुछ पड़ोसी मुल्कों के लाखों लोगों के इस खतरनाक फीवर की चपेट में आने की ज़बरदस्त संभावना है। वर्षों के शोध और अनुसंधान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हमारी और हमारे अड़ोसी-पड़ोसी मुल्कों की ‘खसलत’ समान होने के कारण यह फीवर हम लोगों के बीच ही ज़्यादा फैलने वाला है। इस मामले का कतई हैरत में न डालने वाला पहलू यह है कि इस फीवर से सुरक्षा और बचाव का हमारी संप्रभु सरकार के पास क़तई कोई इंतज़ाम नहीं है। हमारे स्वास्थ्य विभाग को तो इसके फैलने का न तो ज़रा भी अंदेशा है और न ही उन्हें इसकी रोकथाम का इन्तज़ाम करने की कोई फिक्र है।
    खरामा-खरामा इस फीवर के बढ़ते जाने के प्रबल संकेत मिलने लगे हैं और आने वाले हफ्तों में यह ग्यारह-ग्यारह लोगों के दो-दो समूहों के चौदह सेटों से प्रारम्भ होकर हज़ारों हंगामाई प्रत्यक्षदर्शियों से होता हुआ, दर्जनों मुल्कों के करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले लेगा और दुनिया भर के अरबों लोगों का जीना हराम कर देगा।
    विगत अनुभवों से कहा जा सकता है कि इस फीवर के प्रारम्भ होते ही इंसान धीरे-धीरे अपनी सुध-बुध खोने लगता है। घर में कोई आए-जाए, दुनिया-जहान में कहीं भी कुछ चल रहा हो, मरीज़ उससे कोई मतलब नहीं रखता। यहाँ तक कि खाना-पीना, नहाना-धोना, स्कूल-कॉलेज-दफ्तर की ज़िम्मेदारियाँ, काम-काज तक भूल जाता है और दिन-रात बस टेलीविज़न की ओर टकटकी लगाए बैठा पापकॉर्न या चना-चबैना, जो मिल जाए चबाता रहता है। ।
    फीवरों के इतिहासकार इस फीवर की शुरुआत गौरांगप्रभुओं के देश ‘बरतानिया’ से मानते हैं। इस दुष्ट हुकूमत ने दुनिया के कई मुल्कों को अपना गुलाम बनाने के साथ ही इस फीवर के संक्रमण को षड़यंत्रपूर्वक काले मुल्कों में फैलाया ताकि गुलाम काली जनता इस फीवर से कभी उबर ही न सके। गुलामी की समाप्ति और प्रजातंत्र की स्थापना के साथ ही हमने और हमारे पड़ोसियों ने शिद्दत से इस फीवर को अपने गली-मुहल्लों, गाँव-खेड़ों, खेतों-पगडंडियों, मेलों-ठेलों, भीड़-भाड़ वाले बाज़ारों, यहाँ तक कि सूखे नदी-तालाबों, पोखरों तक पहुँचा दिया, जहाँ नौजवान लोग आज भी बेशरम के तीन डंडे गाड़कर उसके समक्ष हाथ में कोई भी मोगरीनुमा चपटी लकड़ी लेकर, किसी भी गोल वस्तु को पीटने को उद्धत दिखाई देते हैं, और फालतू लोग इस उत्तेजक क्रिया को घंटों तन्मयता से खड़े निहारते, और बात-बात में तालियाँ पीटते नज़र आते रहते हैं।
    इस फीवर के जीवाणु इतने ताकतवर हैं कि दूसरे किसी फीवर के जीवाणुओं को इंसान के भीतर पनपने ही नहीं देते, वे यहाँ-वहाँ उपेक्षित से पड़े रहते हैं। ‘क्रिकेटोरिया’ नाम के इस फीवर के जीवाणुओं पर अगर जल्दी से जल्दी काबू नहीं पाया गया तो इनसे भारी तबाही मचने का अंदेशा है। इसलिए, समय रहते आगाह कर रहा हूँ कि इस खतरनाक फीवर के आसन्न खतरे से तत्काल युद्धस्तर पर निपटना ज़रूरी है। 

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