शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सब नंगे हमाम से बाहर हैं


 //व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
           कहा जाता है कि हमाम में सब नंगे हैं’, लेकिन इस कहावत का कोई वस्तुनिष्ठ आधार नहीं है, जबरन इसे हमामऔर नंगोंपर थोपा जाता है। वास्तविकता तो यह है कि नंगे तो सब बाहर घूम रहे हैं, उन्हें झूठ-मूट ही हमाम के अन्दर बताने की साजिश की जा रही है।
          इस बात के लिए प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है कि-सारे नंगे, नंग-धडंग हालत में हमाम के बाहर घूम रहे हैं, क्योंकि कानून के मुताबिक उन्हें तो वास्तव में जेल की कोठरी में होना चाहिये था, परन्तु चूँकि वे जेल में नहीं हैं इसलिये यह स्वयं सिद्ध है कि वे बाहर ही घूम रहे हैं। चूँकि गली-गली, शहर-शहर नंगे नाच का शर्मनाक प्रदर्शन करने वाले सभी नंगे जेल की हवा में ना होकर ठाठ से खुले घूम रहे हैं इसलिये जाहिर है कि हमाममें यदि सचमुच कोई मौजूद है तो वह नंगानहीं, कोई और ही हैं।
          हमाम में अगर नंगे नहीं तो फिर कौन हो सकता है, यह एक राष्ट्रव्यापी गंभीर प्रश्न है जिस पर समग्र राष्ट्र के बुद्धिजीवियों को चिंतन करना अत्यंत आवश्यक है। मुझे लगता है कि बाहर नंग-धडंग हालत में घूम रहे सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दुनिया के बड़े-बडे नंगों से घबराकर वे सारे लोग जिन्होंने शरीर पर शराफत के कपड़े पहन रखे है, हमामों में जा छुपे हैं ताकि नंगों के बीच रहकर उन्हें कोई शर्मिंदगी न उठाना पड़े और वे अपने छोटे-परिवार सुखी परिवार के साथ सुखपूर्वक रह सके और उनपर नंगों को कपड़े पहनाने का कोई नैतिक दायित्व भी न आ लदे।
          आप हमाम के आस-पास चुपचाप हाथ बाँधे खड़े रहिये तो देखेंगे कि हमाम के अंदर आपको जाता हुआ तो कोई नंगा दिखाई नहीं देगा परन्तु बीच-बीच में हमाम के अन्दर से निकल-निकलकर नंगों में शामिल होते कई साफ-सुथरे कपड़ों वाले अक्सर दिखाई देते रहेंगे। यह बड़ी चिंता का विषय है कि जिन वस्त्रधारियों को नंगों को वस्त्र पहनाने की जिम्मेदारी निभाना थी  वे सब मुँह ढापे हमाम में जा छुपे हैं और उनका दबेपॉव चुपचाप निकल-निकलकर नंगों में शामिल होने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। यही चलता रहा तो इस देश का क्या होगा।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

अनशन हो तो ऐसा हो

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट// 
जनवाणी मेरठ में प्रकाशित
          अण्णा के अनशन से करन्ट लेकर देशभर के हैरान-परेशान लोग रीचार्ज हो गये हैं और नाना विधियों से दुष्ट अत्याचारियों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर अपनी मांगों के लिए हवा बना रहे हैं। पंजाब का एक अनशनकारी अपना खटिया-बिस्तर लेकर एक ऊँचे पेड़ पर जा बैठा और मानव जीवन की समस्त क्रियाएँ वहीं सम्पन्न करने के साथ-साथ वहीं से बैठे-बैठे मीडिया के माइक से अपनी मांगों का पुलिदा खोल-खोलकर प्रशासन और सरकार को सुनाता रहा। उसकी मांगें पूरी हुईं या क्रेन से ऊपर चढ़कर अनशनकारी को डंडों का प्रसाद दिया गया, पता नहीं चला है। उधर राजस्थान में एक साधुबाबा गॉव के अस्पताल में डॉक्टर की तैनाती की मांग को लेकर पानी की टंकी के ठेठ ऊपर चढ़ बैठे जहाँ से गिरने पर हड्डियों के कचूमर के अलावा शरीर का कोई भाग सलामत मिलना मुश्किल था, मगर वे अपनी मांग मनवाने में सफल रहे, गॉव में डाक्टर की तैनाती हो गई।
          निष्कर्ष यह निकलकर आ रहा है कि अनशन में कुछ अनोखापन होना चाहिए तभी शासन-प्रशासन के कानों को खड़ा करने लायक हवा बन सकती है। अण्णा के साथ तो चमत्कारी भीड़ थी सो प्रेस-मीडिया, भारत सरकार से लेकर अमरीकी सरकार तक अण्णा को सलाम की मुद्रा में नज़र आ रही थी, मगर जिनके पास चमत्कार के रूप में कुछ नहीं है उन्हें तो ऐसे अललटप्पू उपायों से ही अपनी मांगें मनवाना पड़ेंगी। इस मामले में व्यंग्यकारों की उर्वरा बुद्धि से काफी उपाय निकल  सकते हैं। भविष्य में अनशन के लिए उतावले लोगों के लिए कुछ विधियाँ मैं सुझा देता हूँ।
          पंजाब के वे सज्जन अकेले खटिया पेड़ पर लटकाकर उसपर जा चढ़े थे, मामला थोड़ा बड़ा हो तो गांव के सारे लोग अपनी-अपनी खटिया लेकर पेड़ों पर चढ़ जाएँ ज्यादा प्रभाव पडे़गा। किसी को उँचे पेड़ों पर चढ़ने में डर लगता हो तो चने के झाड़ को छोड़कर दूसरे किसी भी झाड़ पर बैठा सकता है, मगर झाड़ पुलिस के डंडे से छोटे होते हैं यह बात ध्यान रखना पड़ेगी। जिनके पास कुएं की सुलभता हो वे अनशनाभिलाषी भाई खटिया-बिस्तर रस्सी से कुएं के भीतर लटकाकर सौ-पचास फिट नीचे आसन जमा कर बैठ सकता है। पानी, कुएं के अंधेरे या गहराई से डर लगे तो बिजली के खंबे पर चढ़ बैठा जा सकता है मगर करंट से बचने के साधन साथ लेकर बैठना पड़ेगा। उपलब्ध समस्त बिजली के खंबों पर दो-दो आदमी चढ़कर बैठ जाएँ, दो रहेंगे तो बोरियत भी नहीं होगी, बातें करते रहेंगे या गीत-वीत गाकर अपना और तमाशबीनों का मनोरंजन करते रह सकते हैं।
          साधु बाबा की तरह अकेले पानी की टंकी या ऊँची बिल्डिंग पर चढ़कर आत्महत्या की धमकी देना तो निजी किस्म के अनशन रहे हैं। आजकल सार्वजनिक मुद्दों पर सामूहिक अनशन की प्रासंगिता अधिक है इसके लिए समूहों में कार्यवाही की आवश्यकता है, इसलिए पानी की टंकियों पर बोरिया-बिस्तर, खाने-पकाने के सामान सहित एक पूरा मोहल्ला या गॉव चढ़ जाए तो असर दूरगामी हो सकता है। एक लाउडस्पीकर टंकी के शिखर पर बांधकर प्रशासन को डराने-धमकाने का प्रयास किया जा सकता है।
          दो ऊँची इमारतों के बीच दही हंडी की तरह खटिया या कई खटियाएँ लटकाकर उसपर आराम फरमाते हुए अनशन कीजिए, देखिए मीडिया, प्रशासन, सरकार सब खटिया के नीचे आ जमा होंगे, और कई चैनलों के माइक ऊपर आप तक पहुँचाए जाकर आपकी डिमांड पूछी जायेगी, लाइव टेलीकास्ट चलेगा। अनशन हो तो ऐसा हो कि उसमें मीडिया को कुछ रस नज़र आए, तभी आपका अनशन सफल होगा।
           कई तरीके हैं जिनसे मीडिया को आकर्षित कर दोस्ताना अन्दाज़ में खड़ा किया जा सकता है, अगर आप यह अचंभा कर पाए तो समझों अनशन सफल वर्ना नारे लगा-लगाकर हलक सूख जाएगा। मीडिया न आया तो किसी के कानों पर जू तक नहीं रेंगेंगी।
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सोमवार, 25 अप्रैल 2011

जनसत्ता नई दिल्ली में प्रकाशित आलेख - "सेवा के मूल्य"


//व्यंग्य से परे-प्रमोद ताम्बट//
जनसत्ता नई दिल्ली में प्रकाशित
          किसी जमाने में खासी लोकप्रिय, अमरीकी लेखक जान रीड की सोवियत क्रांति पर लिखी गई पुस्तक दस दिन जब दुनिया हिल उठीमें लेखक का एक बेहद महत्वपूर्ण अनुभव उल्लेखित है। जॉन रीड जब सोवियत रूस के किसी रेस्तरॉ में गए तो उन्होंने वहाँ एक पोस्टर लगा देखा जिस पर लिखा था ‘‘कृपया टिप देकर हमें शर्मिंदा न करें!’’ जॉन रीड का विश्लेषण था कि ‘‘वह पोस्टर देखकर मैं समझ गया कि सोवियत रूस में शीघ्र ही क्रांति होने वाली है।’’ कहने को बात बहुत ही छोटी सी है परन्तु लेखक का विश्लेषण बहुत बड़ा था। सचमुच कुछ दिनों बात सोवियत रूस की महान क्रांति का सूत्रपात हुआ, जिसके सर्वाधिक हलचल वाले प्रारम्भिक दस दिनों का विवरण उस पुस्तक में है। जॉन रीड शायद कहना चाहते थे कि उस वक्त रूसी आम जनता और मजदूर वर्ग का नैतिक स्तर इतना ऊँचा उठ चुका था कि क्रांति अवश्यम्भावी थी।
          अभी कल ही जब मैं अपने परिवार के साथ अपना जन्मदिन मनाने के लिए, चूँकि इस दिन घर में खाने की हड़ताल रहती है, भोपाल के एक मध्यम दर्जे के होटल में गया तो मैंने वहाँ के कर्मचारियों को आते-जाते कई बार ग्राहकों को सलाम करते हुए देखा। प्रवेश द्वार पर खड़ा वर्दीधारी व्यक्ति भी हर आने जाने वाले को शिद्दत से सलाम कर रहा था। कई लोग इस सलाम के बदले में तुरन्त अपनी जेब से कुछ न कुछ रुपए निकालकर उन्हें दे रहे थे और बदले में फिर सलाम ले रहे थे।
          होटलों में इस प्रचलन को टिप देना कहा जाता है। इस टिप की आशा में होटल के तमाम कर्मचारी  बड़ी विनम्रता से आपकी सेवा करते हैं, मगर यदि आप उन्हें सम्मानजनक टिप (?) नहीं देते हैं तो उनके चेहरे पर अप्रसन्नता स्पष्ट दिखाई देती है । वेटर-गण अच्छी टिप न देने वालों को अक्सर खुशी-खुशी विदा नहीं करते हैं और यदि ग्राहक हमारी तरह कभी-कभार होटलों की अय्याशी करने वाला न हो, अक्सर वहाँ जाता हो और वेटरों ने उसे अच्छी तरह पहचान रखा हो तो वे उसे आमतौर पर ठीक से तवज्जो भी नहीं देते, यहाँ तक कि पानी तक को नहीं पूछते।
          पिछले दिनों शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेनों मैं भी मैंने देखा कि खान-पान व्यवस्था के कर्मचारी खाना वगैरह खिलाने के बाद हाथ में ट्रे, जिसमें औपचारिकता के लिए एक प्लेट में सौंफ के दाने रखे होते हैं, लेकर एक-एक सीट पर जाते हैं और यात्रियों को सलाम करते हैं। उनका मकसद यात्रियों को सौंफ खिलाना या सलाम करना नहीं बल्कि उनकी की गई सेवा के बदले कुछ टिप प्राप्त करना होता है। वे टिप मिलने के बाद बाकायदा आपको सलाम करके अगली सीट की और बढ़ जाते हैं। हाँ, बच्चों और शक्ल से ही टिप न देने वाला खड़ूस दिखाई देने पर वे उन्हें सलाम नहीं करते हैं और स्टेशन पर उतरने के तुरन्त बाद तो फिर वे आपको बिल्कुल पहचानते ही नहीं हैं।
          बहुत सारे लोग एक अदद सलाम से आत्मतुष्ट होकर होटल के वेटरों या ट्रेनों के खान-पान कर्मचारियों को बड़ी खुशी-खुशी टिप देते हैं मगर मुझे पता नहीं क्यों इस संस्कृति से बेहद ग्लानि होती है। मज़ेदार बात यह है कि ग्लानि तो उन्हें होना चाहिए मगर वह मुझे होती है। आमतौर पर मुझे ऐसी जगह जाने में बेहद संकोच होता है जहाँ इंसान भिकारियों की तरह टिप के लिए हाथ पसारकर खड़ा हो जाता हो। भिकारी शब्द मैंने जानबूझ कर इस्तेमाल किया है क्योंकि ऐसे लोगों को भिकारी कहने पर कुछ लोगों को हमेशा गम्भीर आपत्ति रहती है, लेकिन मुझे सड़क पर हाथ पसार कर खड़े भिकारियों और ऐसे टिप-खोरों में कोई अन्तर नज़र नहीं आता क्योंकि मेरी नज़र में ऐसा आचरण शुद्ध रूप से उन लोगों के नैतिक और मानसिक दिवालिएपन का परिचायक है। कोई थोड़ा बहुत भी शिक्षित व्यक्ति स्वेच्छा से दूसरों की दी बख्शीश पर जीवन यापन करना पसन्द करता है यह बात मेरे मन में गहरा अवसाद और गुस्सा पैदा करती है। ऐसे व्यक्ति को आर्थिक रूप से कमज़ोर मानने की अपेक्षा मैं मानसिक रूप से पंगु मानता हूँ और मुझे बहुत चिन्ता होती है कि जिस समाज में आम जन मानस ऐसे सांस्कृतिक पतन का शिकार हो वह समाज क्रान्ति-वान्ति तो दूर सामान्य वैचारिक प्रगति भी कैसे करेगा।
          इस वक्त हमारे देश का आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृष्य सचमुच बहुत ही दयनीय दशा में है। क्या यह व्यवस्था मनुष्य को उसकी तमाम खूबियों, विशेषताओं और उच्चतम नैतिक गुणों के साथ आगामी युग की ओर जाने देना नहीं चाहती ?

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार की अम्मा कब तक खैर मनाएगी


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में
           भ्रष्टाचार के खिलाफ उसके विरोधियों का गुस्सा फूटकर भलभल-भलभल निकल पड़ा है। इसका बहाव कुछ ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता किस तरफ है, और इससे जहाँ-तहाँ संचित भ्रष्टाचार का कूड़ा-करकट बहेगा भी या नही, पता नहीं, मगर गुस्से को यूँ बहता देखकर लोग काफी खुश हैं, तालियाँ पीट रहे हैं। नदी-नालों की बहुतायत देख मुझे डर है कि यह गुस्सा, भ्रष्टाचार के कूड़े-करकट के ढेरों को जस का तस छोड़कर, दूर बहकर समुद्र में न निकल न जाए।
          जंजीर से बंधे कुत्तों के प्राण चींथकर भौंकने के बावजूद भी जिस तरह हाथी अपनी मस्ती में आगे बढ़ता चला जाता है, उसी तरह भ्रष्टाचार भी बेफिक्र सा झूमता-झामता चलता चला जा रहा है, क्योंकि उसे अपनी अम्मा का पूर्ण संरक्षण प्राप्त हैं। अम्मा सबकी आँखों से बची हुई आराम से घूमती फिर रही है, उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। यह मानी हुई बात है कि जब बच्चा पैदा होकर यहाँ-वहाँ शैतानी करता फिर रहा है, तो उसकी अम्मा तो ज़रूर अस्तित्व में होगी और बच्चे से ज़्यादा खतरनाक भी होगी। जब तक उसकी अम्मा पकड़ में नहीं आएगी और उसे छठी का दूध याद नहीं दिलाया जाएगा वह चोरी-छुपे अपने बिगडैल बच्चे को दूध पिलाती रहेगी और बच्चा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहेगा।
          भ्रष्टाचार के सताए हुए कुछ बंदे और बंदियाँ गाँधीवाद की बैलगाड़ी पर सवार होकर भ्रष्टाचार को खदेड़ने निकले हैं जबकि भ्रष्टाचार चार सौ किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार वाली बुलेट ट्रेन पर सवार फर्राटे से आगे बढ़ता जा रहा है। उसे पता है कि बैलगाड़ी पर सवार लोग आजीवन उस तक पहुँचने वाले नहीं हैं, वह बेखौफ सर्र-सर्र करता हुआ इधर से उधर, उधर से इधर फर्राटे भर रहा है। लेकिन उन बेचारों की इसमें कोई गलती नहीं। दरअसल, गाँधीजी भ्रष्टाचार की अम्मा के रूप-रंग, गुण-लक्षणों के बारे में किसी को कुछ बता कर ही नहीं गए, तो उसे कैसे कोई पहचानेगा ? यही कारण है कि लोग, भ्रष्टाचार की अम्मा को न तो आज़ादी के समय पहचान पाए और न ही आज़ादी के चौसठ साल बाद पहचान रहे हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की अम्मा हमेशा खैरमनाती रहती है, लेकिन आखिर कब तक मनाएगी !

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

एक अदद ‘शुक्रिया’ से चलेगा देश !

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
शुक्रिया अदा करना भी अपने-आप में कितने मजे का काम है। आजकल की बाज़ारू अर्थव्यवस्था में जब बिना धन के कुछ मिलता ही नहीं है, शुक्रियाएक ऐसी चीज़ है जिसमें सामने वाले को वास्तव में अपनी जेब से कुछ अदा करना ही नहीं पड़ता। वस्तुकी समस्त विशेषताएँ अपने भीतर समेटे, ठोस, प्रामाणिक, वज़नदार, कीमती चीज़ लेकर भी आदमी बेशर्मी से दो कौड़ी का शुक्रिया अदा कर चलता बनता है। अड़ोसी-पड़ोसी आए दिन कोई न कोई घरेलू सामान माँगकर ले जाते हैं और बिना तोड़े-बिगाड़े, उसे लौटाते नहीं। कभी तोड़ना भले ही भूल जाएँ परन्तु लौटाते समय कभी, नींद में भी टका साशुक्रिया अदा करना नहीं भूलते।
          कितना अच्छा हो अगर दुनिया की हर चीज़ एक अदद शुक्रियाके बदले में उपलब्ध हो जाए! बाज़ार गए, मन पसन्द सब्जी-भाजी झोले में भरी और उदारता से शुक्रियाकी अदायगी कर चले आए। रेलगाड़ी-हवाई जहाज की टिकट खिड़की पर गए, टिकट लिया और एक रूखा सा शुक्रियाकाउन्टर पर पटककर सीट पर जा बैठे। अगर एक बढ़िया सी लक्ज़री गाड़ी खरीदना है तो बैंक बैलेंस, लोन, ब्याज, किश्त और चेक बाउँस की फिक्र करने की जरूरत ही नहीं, तड़ से शुक्रियाफेंका और फर्राटा भरते हुए चल दिये। पेट्रोल की अन्तराष्ट्रीय कीमतों की भी चिन्ता नहीं, चाहे जितना भरवा लो, शुक्रियाही तो अदा करना है, और उसके लिए जेब, पर्स कुछ टटोलने की भी आवश्यकता नहीं, ओठों को थोड़ा सा गोल बनाकर रेडीमेड तैयार रखे शुक्रियाको निकालकर सामने वाले के मुँह पर मार चलते बने।
          कसम से क्या अद्भुत समाज होगा, न किसी को श्रम बेचने की ज़रूरत न खरीदने की। काम पर गए, काम किया नहीं किया, बदले में शुक्रियालिया और रास्ते से शुक्रियाके बदले में बच्चों के लिए मिठाई-फल लिए और घर आ गए। न किसी को चोरी करने की ज़रूरत, न डाका डालने की। ठगी, जालसाजी, घोटालेबाज़ी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार सब बंद। सबसे अच्छी बात होगी औरतों की जिस्मफरोशी बंद हो जाएगी। जब हर चीज़ शुक्रियाके बदले में मिलने लगेगी तो बेचारियों को अपना जिस्म बेचकर अपना और बच्चों का पेट पालने की क्या ज़रूरत होगी! कम्पलीट समाजवाद आ जाएगा शुक्रियाका समाजवाद।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

न देख बुरा सुन बुरा बोल बुरा


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

          न देख देख देख बुरा, न सुन सुन सुन बुरा, न बोल बोल बोल बुरा- न देख बुरा सुन बुरा बोल बुरा। गाँधी जी के तीन बंदरों के इस ऐतिहासिक उपदेश को अगर किसी ने हृदय से आत्मसात किया है तो वे है हमारे प्रधानमंत्री। वे न बुरा देखते हैं, न बुरा सुनते हैं, और न बुरा बोलते हुए आज तक किसी ने उन्हें देखा-सुना है। बोलने के मामले में बुरा तो क्या, मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि देश की निन्यानवे फीसदी आबादी ने तो उन्हें कभी बोलते हुए भी नहीं सुना होगा।
          भ्रष्टाचार कितनी बुरी बात़ है, इसे आँख खुली रखकर देखना और भी बुरी बात़ है। राष्ट्रव्यापी घोटालों के ऊपर चल रहे फालतू शोरगुल पर फिज़ूल कान देना भी उतनी ही बुरी बात है। देखना, फिर सुनना और फिर इन बुरी-बुरी हरकतों पर जबरन कुछ बोलना प्रजातंत्र के किसी भी सच्चे पहरुए के लिए बहुत ही बुरी बात है, इसीलिए अपने आँख, कान और मुँह बंद रखकर हमारे प्रधानमंत्री अद्वितीय धैर्य का परिचय देते हुए देश को चला रहे हैं, और वह शान से चल रहा है।
          देश में चल रही तमाम ऊलजलूल और ऊटपटांग हरकतों के बारे में फालतू की सूचनाएँ और जानकारियाँ दिमाग में भंडारित रखकर वे उसे ओव्हरलोड नहीं करते। उनकी सरकार के मंत्री-संत्री, मंत्रालयों के अफसर-बाबू, देश की जनता के वी.आई.पी. प्रतिनिधि, कब, कहाँ, क्या-क्या लीला रचाते रहते हैं, वे नहीं मालूम रखते। कौन-कौन सी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनके चिर शांति पूर्ण जादुई मौनकी आकांक्षी, अभिलाषी हैं, कौन-कौन से व्यापारिक घराने उनके, निर्लिप्त, निरपेक्ष समभाव के लाभार्थी है, वे नहीं पता रखते। देश के किस कोने में कौन-कौन, क्या-क्या गुलखिला रहा होता है उन्हें बिल्कुल पता नहीं होता। यदि पता हो भी तो किसी को कोई टेन्शन नहीं होता क्योंकि उन्हें कुछ निर्णायक करना तो है नहीं, यह सबको पता है।
          मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनके किचन में क्या-क्या साग-भाजी कब, किस मंडी से कितनी-कितनी मात्रा में कितने पैसों में खरीदी जाती है उन्हें बिल्कुल पता नहीं रहता होगा। यही कारण है कि उनकी कुर्सी बचाने के लिए किस पार्टी के किस-किस सांसद की खरीद किस-किस दर पर की गई और इस खरीदारी पर जेब किसने ढीली की, यह भी उन्हें नहीं पता चला होगा। एक प्रधानमंत्री स्तर के राजनीतिज्ञ के सिर पर देश के दूसरे कितने लफड़ों-झपड़ों का टेन्शन रहता है, उससे यह उम्मीद रखना सरासर बेवकूफी है कि कब, कहाँ, क्या चीज खरीदी गई। अर्थशास्त्री होने का मतलब यह नहीं कि वह हर चीज़ का हिसाब-किताब रखता फिरे।
महँगाई के स्थाई मुद्दे पर देश की जनता जब-तब इस बेकसूर आदमी को बिलावजह कोसने लगती है, जैसे अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर उसने कोई अपराध कर दिया हो। एक प्रधानमंत्री जो अर्थशास्त्र का प्रकांड पंडित हो, वह देश के शिखर आर्थिक मुद्दों को सुलझाने में अपनी ऊर्जा खर्च करेगा कि महँगाई जैसी टुच्ची चीज़ की चौकीदारी करता फिरेगा। भूमंडलीकरण अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की तीव्र गति से, आर्थिक शक्ति बनते जा रहे हमारे देश का प्रधानमंत्री आटा-दाल-चावल, आलू-प्याज़ जैसे घटिया माल का खुदरा मूल्य पता रखे यह आशा करना तो यार सरासर अमानवीयता है।
          देश में भीषण बेरोज़गारी है, गरीबी हटाने का सपना धन्नासेठ की तिज़ोरी में कैद है, लोग मूलभूत सुविधाएँ नहीं हासिल कर पाते, स्विस बैंक में किसका माल रखा है, यह सब अगर प्रधानमंत्री जी को नहीं पता है तो इसका कारण गाँधी जी के वही ‘‘न देख बुरा, सुन बुरा, बोल बुरा’’ का मायावी सिद्धांत है। देश में साधु-संत राजनीति मे घुसने के लिए धड़पड़-धड़पड़ करते रहते हैं, हमारे प्रधानमंत्री राजनीति में साधुत्व की चरम सीमा पर पहुँचे हुए संत हैं उन्हें सांसारिक तांडव के बारे में कुछ पता नहीं होता।

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

आज़ादी की लडाई


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

          वे बोले-‘‘भाई साहब आपको सहयोग देना ही पड़ेगा, आप इन्कार नहीं कर सकते, वर्ना अपनी-तुपनी दोस्ती टूट गई समझो।’’
          मैंने कहा-‘‘जनाब, घर के अन्दर घुसे आपको कई सेकण्ड हो चुके हैं आपने अब तक कोई सहयोग माँगा ही नहीं है, मैं आखिर इन्कार कैसे कर सकता हूँ।’’
          वे बोले-‘‘यह भी बजा फरमाया आपने। बात दरअसल यह है कि दूसरी आज़ादी की लड़ाई प्रारम्भ हो चुकी है, आप......’’
          उनकी बात पूरी होने से पहले ही मैंने चट आश्चर्य प्रकट कर डाला और कहा-‘‘ अच्छा, पहली वाली आज़ादी को क्या हुआ!
          वे हड़बडाते हुए बोले-‘‘हमारा मतलब है आज़ादी की दूसरी लड़ाई प्रारम्भ हो चुकी है।’’
          मैंने फिर कहा-‘‘वो तो मैं समझ गया, मगर पहले, पहली आज़ादी के बारे मैं नक्की कर लेना चाहिये कि वह कहा गई, वर्ना ऐसा हो कि पहली के रहते हुए आप दूसरी भी ले आओ, सौत-सौत एक जगह रह नहीं पाती है, बहुत कलह करती हैं।’’
          वे हँसने लगे-‘‘ही ही ही ही, आप व्यंग्यकार लोग भी खूब मज़ाक कर लेते हैं।’’
          मैंने पूछा-‘‘बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ!’’
          वे बोले-‘‘अरे साहब, हम तो सरकारी अफसरी में सेवा करवा-करवाकर अघा गए, इसलिये अब देश सेवा की सोची है। देश गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, इसे बाहर निकालना ज़रूरी है, इसलिए आप भी कृपया इस लड़ाई में कूँद पड़िये।’’
          मैंने कहा-‘‘बिल्कुल बिल्कुल! बताइये कहाँ हैं जंपिंग किट! हथियार, गोला बारूद की कुछ व्यवस्था हुई या बात करें किसी से ?’’
          वे बोले-श्रीमानं, हम गाँधी जी के रास्ते पर चलकर दूसरी आज़ादी लाएँगे।
          मैंने कहा-‘‘देखिए पहली भी गाँधी जी के रास्ते पर चल कर ही आई थी, उसे क्या हुआ आप बता नहीं रहे! मुझे भय है कि अपन लड़-लुड़ाकर इधर दूसरी आज़ादी ले आएँ और उधर     पहली वाली भी बाहर निकल आए, बड़ी समस्या हो जाएगी।’’
वे उसी उत्साह में बोले-‘‘वाह! क्या प्रश्न उठा दिया आपने। हमने तो कभी इस बिंदु पर विचार ही नहीं किया।’’
          मैंने कहा-‘‘फिर! आप ऐसे आधी-अधूरी तैयारी के साथ कैसे गए मुझसे सहयोग माँगने! जाइये, पहले अपने नेताओं से पूछकर आइये कि पहली आज़ादी को क्या हुआ, तब आकर हमसे बात करिये।’’
          वे उस वक्त तो अपना सा मुँह लेकर चले गए, मगर दूसरे दिन थके-हारे कदमों से चलते हुए फिर चले आए और निराशा के साथ बोले-‘‘अब रहने दीजिए, दूसरी आज़ादी की लड़ाई खत्म हो चुकी है। सरकार ने हमारी सारी माँगें मान ली हैं, अब हमें आपके सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं।’’
          मैंने उन्हें बधाई देते हुए फिर पूछा-‘‘भई, आखिर पहली आज़ादी का क्या हुआ कुछ पता चला!’’
          वे बुरी तरह भड़क गए और लगे चिल्लाने-‘‘भाड़ में गई पहली आज़ादी, हमें क्या पता! पड़ी होगी कहीं किसी की तिजोरी में। हमने क्या दुनिया भर का ठेका ले रखा है जो आज़ादियों का हिसाब रखते फिरें!’’
          वे पॉव पटकते हुए चले गए आज़ादी की दूसरी लड़ाई का उनका खुमार उतर चुका था।