बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

त्योहारी सीज़न और नकली दूध-मावा-मिठाइयाँ


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//          
त्योहारी सीज़न शुरु होते ही नैतिक जिम्मेदारी और कर्त्‍तव्यनिष्ठा की जिस भावना से नकली खाद्य पदार्थ निर्मातागण ओतप्रोत हो जाते हैं, उसके बगैर तो देश में परम्पराओं का निर्वाह ही कठिन हो जाए। अब देखिए, दीपावली का त्योहार सर पर खड़ा है, और नकली मिठाई बनाने वालों की रातों की नींद हराम है। वे यदि बाज़ार में मिठाई की शत्-प्रतिशत् आपूर्ति नहीं दे पाए तो न केवल परम्परा का सत्यानाश हो जाए बल्कि सरकारों का निठल्लापन भी उजागर हो जाए। ऐसे में मिठाई वाले नकली मावा बनाने वालों की नींद हराम करते हैं और नकली मावा बनाने वाले नकली दूध बनाने वालों की। नकली दूध बनाने वाले को गाय-भैंसों की नींद हराम करना चाहिए मगर वे ठहरी जनावर ज़ात, सो स्वार्थ का यह अमानवीयतापूर्ण कदाचार उन्होंने अब तक नहीं सीखा है।
देश में माँग और आपूर्ति की हमेशा समस्या रहती आई है। इसकी चिंता और कोई करे न करे नकली माल निर्माता हमेशा करते हैं। इस मामले में उनसे ज़्यादा दायित्व बोध किसी भारतवासी में नहीं। त्योहारों पर उनकी चिंता और कार्यभार दोनों बढ़ जाते हैं। जहाँ मिठाइयाँ भकोसने वालों की बढ़ती तादात के मद्देनज़र माँग और आपूर्ति के प्रश्न पर शासन-प्रशासन के माथे पर चिंता की एक पतली सी लकीर तक पैदा नहीं होती, वहीं नकली माल बनाने वाले इशारों ही इशारों में चट इस राष्ट्रीय समस्या का समाधान कर अपना देशप्रेम सिद्ध कर जाते हैं। देखते ही देखते डिटर्जेंट और यूरिया-बेस्ड नकली पाश्चूरीकृत दूध तैयार हो जाता है, इस नकली दूध में कागज़ की लुगदी और नकली घी इत्यादि के अतिरिक्त मिश्रण से नकली मावा तैयार कर बाज़ार में उतार दिया जाता है, फिर पारखी हलवाई इस नकली मावे में और भी कलाकारी दिखलाकर जिव्हालोभक, स्वादिष्ट मिठाई तैयार कर शोकेस में सजा देता है। लोग इस नकली मिठाई का हर्षित मन से आदान-प्रदान कर त्योहारी खुशियाँ मनाते हैं।
हमारे देश में मिठाई भकोसने वाले बड़ी तादात में हैं। नकली दूध-मावा बनाने वाले अपना कौशल आजमाते भले थक जाएँ, मिठाई बनाने वाले बनाते-बनाते हलाकान हो जाएँ, बेचने वाले बेचते-बेचते थक मरें परन्तु खाने वाले कभी नहीं थकते। शरीर में मनो-टनों चर्बी का हिलोरे लेता सागर लिए रहने के बाद भी मिठाई के लिए अगले की जीभ हमेशा लपलपाती रहती है। मिठाईखोर की चिन्ता में देश के कितने सारे लोग रात-दिन जागकर नकली दूध-मावा-मिठाई की आपूर्ती सुनिश्चित करते हैं। ये कर्मठ लोग अगर चरम निष्ठापूर्वक अपने सामाजिक कर्त्‍तव्य का निर्वहन न करें तो न केवल पारम्परिक हर्षोल्लास की वाट लग जाए बल्कि देश में स्वदेशी आन्दोलन की नींव ही धँसक जाए, क्योंकि फिर बाज़ार में विदेशी चाकलेटों, मिठाइयों का बोल-बाला होने से कोई नहीं रोक सकेगा। नकली दूध-मावा-मिठाइयों के बरसों की मेहनत से ईजाद किये गये फामूर्लों का कोई अर्थ नहीं रहेगा। इस संभावना के विचार से बड़ी राहत मिलती है कि हमारे प्रतिभाशाली शोध और अनुसंधानकर्ता देर-सबेर नकली विदेशी चाकलेट और मिठाइयाँ बनाने की विधियाँ भी ईजाद कर ही लेंगे, अर्थात त्योहार के सीज़न में उन्हें खाली बैठने की नौबत नहीं आएगी।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

भारतीय रेल और तेलंगाना आन्दोलन

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
  बरसों से सुलग रही तेलंगाना आन्दोलन की आग फिर भड़कने को है। इस आग में क्या-क्या स्वाहा होगा कौन जाने! फिलहाल तो इस आन्दोलन का पूरा नज़ला भारतीय रेल विभाग, भारतीय रेल, और भारतीय रेल यात्रियों पर उतर रहा है। पता नहीं आन्दोलनकारियों को किसने यह बता दिया है कि भारत सरकार में, राज्यों को टुकड़े-टुकड़े कर (मैं चील कौओं को खिलाने की बात नहीं कर रहा हूँ) छोटा करने का रचनात्मक कार्य रेल विभाग के जिम्में है। इस गलतफहमी के चलते पूरे आंध्रप्रदेश भर में आन्दोलनकारी राशन-पानी लेकर रेल पटरियों पर बैठे रेलगाड़ियों का इन्तज़ार कर रहे हैं-सुसरी तू आ तो सही, तेरी चटनी बनाते हैं।
रेल विभाग भी आखिर भारतीय रेल विभाग है। तू डाल-डाल तो मैं पात-पात की तर्ज पर उसने आध्र्रप्रदेश की दिशा में जाने वाली अधिकांश रेलों के इंजनों में ताला जड़कर उन्हें वहाँ खड़ा कर रखा है जहाँ आन्दोलनकारी न पहुँच पाएँ। तेलंगाना आन्दोलन की आग से सुरक्षित दूरी बनाए रखते हुए रेलों को दूसरे राज्यों से गुजारा जा रहा है ताकि कोई पथराव इत्यादि कर उन्हें लोहूलुहान न कर दे। यात्रियों की सुविधा के लिए यह दूरी पाँच-सात सौ किलोमीटर मात्र रखी गई है। आन्दोलनकारियों के लिए भी यह एक चुनौती है-आओ बेटा, इतनी दूर पैदल चलकर कैसे आते हो आत्महत्या करने!
तेलंगानावादियों और रेल विभाग की इस आँख मिचैली में यात्रीगण बेचारे हैरान-परेशान हैं, जैसे कि रेल सफर में अक्सर रहते हैं। न घर के रह गए हैं न घाट के, पड़े हुए हैं किसी अनजान प्लेटफार्म पर भूखे-प्यासे, मच्छरों का ताज़ा भोजन बने! आन्दोलनकारियों के डर से कोई रेल उन्हें आंध्रप्रदेश की दिशा में ले जाने को तैयार नहीं है। मेहरबानी कर ले भी जा रही है तो न जाने कहाँ-कहाँ घूमाकर, किस अनजान स्टेशन पर पटक रही है, बिना इस परवाह के कि बेचारे यात्रियों के जेब में अपने गणतव्य तक पहुँचने के लिए रोकड़ा है भी या नहीं! वापसी के लिए वहाँ से कोई साधन भी मिलेगा या नहीं! तुम बैठे हो रेल में अब तुम्हीं भुगतो। हमने तो एनाउंसमेंट किया था, हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। यात्री बेचारा हतप्रभ है कि भारतीय रेल को कोसे या तेलंगाना-प्रेमियों को!

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

गली –गली में चोर है


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//            
हमारे शहर में एक फिलिमकी शूटिंग चल रही है, ‘‘गली-गली में चोर है’’डायरेक्टर’, स्क्रिप्ट रायटर शहर के ही है और शहर के गली कूचों से अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसलिए यकीन करने का जी चाहता है कि ज़रूर होंगे चोर गली-गली में, मगर देश में इतनी गलियाँ हैं, कौन गली वाला बर्दाश्त करेगा कि कोई उसे चोर कहे।
डाइरेक्टर साहब पान खाने के लालच में शहर की एक गली के मुँह पर पनवाड़ी के यहाँ आ खड़े हुए, कि मौका ताड़कर दो-चार शोहदों ने उन्हें धर दबोचा- कोखाँ, कौन सी गली में चोर है ?
डायरेक्टर साहब सकपकाए, बोले-वो तो फिलिम का नाम है गली-गली में चोर है।
शोहदे बोले-वोई तो पूछ रिये हैं, बताओ कौन सी गली में चोर है.....?
डायरेक्टर समझाने की कोशिश करते हुए बोले- मियाँ, चोर इधर-किधर गली में नहीं, वो तो.......
शोहदे हथ्थे से उखड़ते हुए बोले-वो तो तो तो तो क्या कर रिया है! दुनिया भर में चिल्लाता फिर रिया है, गली में चोर है, गली में चोर है, हम क्या तुझे चोर नज़र आ रिये हैं ? मुल्क में गलियों में रहने वाले लाखों लोग क्या चोर हैं?
डायरेक्टर बगले झाँकने लगे- भाई, मेरा वो मतलब नहीं था.....
शोहदे कमीज़ की बाहे चढ़ाते हुए बोले-वो मतलब नहीं था तो क्या मतलब है! तुझे पता है तो बता कौन-कौन सी गली में चोर है, और कौन-कौन चोर है। खामोखाँ चोर-चोर चिल्ला रिया है, पुलिस वाले गलियों की धूल उड़ाते फिरेंगे, हम जैसे शरीफों को परेशान करेंगे। तुम तो फिलिम बनाकर चलते बनोगे, हमारी मुसीबत हो जाएगी। तुम तो चलो कोतवाली और लिखकर दो कि कहीं किसी गली में चोर नहीं है मैं तो यूँ ही गप्प मार रिया था।
डायरेक्टर साहब कोतवाली के नाम से थोड़ा सहम गए, बोले-भाई मिया, मैं तो डायरेक्टर हूँ, मेरी कोई गलती नहीं है। वो तो राइटर है कम्बख्त, उसी ने रखा है यह ऊलजुलूल नाम, गली-गली में चोर है। आप परेशान न हो मैं राइटर को भेजता हूँ कोतवाली।    
शोहदे चिल्लाने लगे-भाड़ में गया रायटर! यह सरासर गलियों की तौहीन है, बेइज्जती है! आपको गलियों में चोर नज़र आ रिये हैं, बड़ी-बड़ी कालोनियों में नहीं नज़र आ रिये। बड़ी-बड़ी कोठियों, हवेलियों, ऊँची-ऊँची गगनचुंबी बिल्डिंगों में नहीं नज़र आ रिये चोर। उधर तिहाड़ में जो इतने बड़े-बड़े चोर बैठे हैं वो कौन सी गली में रहते हैं ज़रा बताना! यही तो बदमाशी है तुम लोगों की हवेलियों के चोरों को भूल जाओ और गलियों के चोरों के पीछे पड़े रहो। हम कुछ नहीं जानते, आप तो हमें उन गलियों और चोरों के नामों की लिस्ट दो या फिर अपनी फिलिम का नाम बदलकर ‘‘हवेलियों-हवेलियों में चोर है रखो’’
डायरेक्टर साहब को अपनी फिलिम की रीलें हमेशा के लिए डिब्बे में बंद होती नज़र आने लगी। अगर हवेलियों हवेलियों में चोर है फिल्म बनी तो फिल्म बनाने के लिए पैसा कौन देगा। उन्होंने मुँह में एक पान दबाया और पतली गली से खिसक लिए। 

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

भाँति-भाँति के व्हिसिल ब्लोअर


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//            
मनुष्य की नैसर्गिक योग्यताओं में एक होती है सीटी बजाने की योग्यता जिसे आंग्ल भाषा में व्हिसिल ब्लोइंग कहा जाता है। आमतौर पर इस योग्यता का मौलिक उपयोग शोहदों द्वारा लड़कियों को छेड़ने के लिए किया जाता रहा है। इसके बाद फिर सबसे ज़्यादा अगर किसी ने व्हिसिल ब्लोई है तो वह रात्रीकालीन पहरेदारों ने! हाथ में डंडा लिए व्हिसिल ब्लो-ब्लो कर वे चोरों से सुरक्षा की गलतफहमी बनाए रखते हैं और इस गलतफहमी के समानान्तर चोरियाँ होती रहती हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ चिल्ला-चोट करने वालों को भी व्हिसिल ब्लोअर कहा जाता है। व्हिसिल ब्लोइंग का काम शोहदों, पहरेदारों के मुँह से निकलकर एन.जी.ओ कर्मियों और राजनीतिज्ञों के मुँह में पहुँच गया है, हालांकि इनके मुँह में न व्हिसिल है और न हाथ में डंडा। उल्टा इन व्हिसिल ब्लोअरों को तो पुलिस के डंडे खाना पड़ रहे हैं और जेल भी जाना पड़ रहा है।
बाबा रामदेव ने काले धन के खिलाफ व्हिसिल ब्लोई, उन्हें अपने पिटते समर्थकों को छोड़ नारी वेश में पलायन करना पड़ा। अण्णा टीम ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध व्हिसिल ब्लोई तो उन्हें जेल भेज दिया गया और भ्रष्ट होने के आरोप चस्पा किये गए। उधर सांसद खरीद फरोख्त कांड में कई एक जेल की हवा खा रहे हैं जो अपने आप को व्हिसिल ब्लोअर कह रहे हैं।
           पहले राजा राममोहन राय, विद्यासागर जैसे व्हिसिल ब्लोअर होते थे, जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन की व्हिसिल ब्लोई, भगतसिंह, सुभाष बोस जैसे व्हिसिल ब्लोअर हुए जिन्होंने शोषित-पीड़ितों आम जनसाधारण की व्हिसिल ब्लोई, नतीजा एक को फाँसी और दूसरे ने देश छोड़ा। गाँधीजी भी एक व्हिसिल ब्लोअर हुए, उनकी व्हिसिल ऐसी तेज़ ब्लो गई की अँग्रेज भाग खड़े हुए। आज़ादी के बाद तो पूछिए मत किस कदर व्हिसिल ब्लो करने वाले पैदा होते चले गए, हरेक ने मात्र वोटरों को हाँकने वाली व्हिसिल ब्लोई। किसी ने धर्म की व्हिसिल ब्लोई तो किसी ने भाषा की, कोई प्रांत की व्हिसिल ब्लो रहा है तो कोई जात-पात की व्हिसिल ब्लोए चला जा रहा है। देश में भाँति-भाँति के व्हिसिल ब्लोअर हो गए हैं मगर किसी को यह परवाह नहीं है कि उनकी व्हिसिलों से आम लोगों के कान के पर्दे फटे जा रहे हैं। 

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

उत्सवधर्मिता के नशे में नगाड़ा वादन


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//            
झुँड के झुँड दशहरा मैदान पर टूटे, बुराई के प्रतीक रावण को फूँका और हिलते-डुलते घर चले आए। अपने भीतर के रावण को, जिसे वहीं भस्म होने के लिए छोड़ आना चाहिए था, उसे वापस ले आए! फिर घर आकर दारू पी, बीवी-बच्चों की कुटाई की और घोड़े बेचकर सो गए। सुबह उठकर फिर रावणी कुकर्मों में लगना है।
पुरातन प्रथाकारों ने प्रथाओं की लाँचिग में भारी गड़बड़ियाँ की हैं। जैसे श्रीराम ने रावण का अगर संहार किया ही था तो उस बुराई को वहीं-कहीं दाह-संस्कार, कडोलेंस वगैरह करवाकर किस्सा खत्म कर दिया जाना चाहिए था, उसका पुतला उठाकर भारत लाने और सदियों तक ढोते चले जाने की क्या तुक थी। अब देखिए, इसका नतीजा क्या हुआ, रावण को हम इतने सालों से जलाते आ रहे हैं, मगर वह इन्सानों के भीतर घुसकर जिन्दा ही रहता है। उसके खुद के तो दस सिर थे मगर वह जब इन्सान में प्रवेश करता है तो सिर सौ हो जाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम के सारे मूल्य तो आउटडेटेड पाए जा रहे हैं, इस मुए रावण के मूल्य ज़्यादा ही प्रचलित हो गए हैं। आजकल हर आदमी बढ़-चढ़ कर रावण बनने की प्रतियोगिता में लगा हुआ है।
रावण, कुभकर्ण, मेघनाथ, के पुतलों का वार्षिक दहन कार्यक्रम बरसों-बरस इस तरह समारोह पूर्वक न किया जाता तो रावणी कुसंस्कार-कुसंस्कृति के जीवाणू-कीटाणू हमारे देश में आकर सीधे-साधे भोले-भाले लोगों का डी.एन.ए. संक्रमित नहीं कर पाते। हमें जब पता ही नहीं चलता कि रावण कैसा होता है तो हम जाने-अनजाने रावण का रूप धर रावणलीलाएँ कैसे करते।
अँग्रेज़ भी यूरोप से पूँजीवादका मुर्दा अपने साथ उठा लाए थे, उसके साथ पूँजीवादीकुसंस्कारों-कुसंस्कृति के जीव-कीट भी ले आए। दो सौ साल तक अँग्रेज़ यहाँ रहे, किसी ने मुर्दे की ठठरी नहीं बाँधी। वे यहाँ से चले गए, मुर्दा यही छोड़ गए। अब वह मुर्दा भयानक रूप  से सड़ रहा है, बदबू मार रहा है। एक तरफ पूँजीवादका मुर्दा दूसरी तरफ रावण। दोनों हुंकार-हुंकार कर कदमताल कर रहे हैं। न रावण से छुटकारा मिल रहा है ने पूँजीवाद की सड़ांध से। हम लोग तो उत्सवधर्मिता के नशे में दोनों की मृत देह के सामने नगाड़े बजा रहे हैं।

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

एक ईमानदार ऊँट पहाड़ के नीचे


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          रिटायर्ड बुड्ढों की एक बैठक में बघारी जा रही शेखियों का तमाम बुड्ढों द्वारा बड़े चटखारे ले-लेकर आनंद लिया जा रहा था। बघार लगा रहे थे एक रिटायर्ड बड़े बाबू। ‘‘अरे साहब ईमानदारतो हमने देखा है, इतना हरामीथा इतना हरामीथा कि पूछो मत। उससे बड़ा हरामी ईमानदार तो हमने अपनी पूरी ज़िन्दगी में नहीं देखा और भगवान करें कभी देखने को भी न मिले। कसम से, यह तमाखू हाथ में है, भगवान झूठ न बुलवाए, ईमानदारी का ख़ब्त सवार था कम्बख्त के सर पर, पागल था पूरा पागल। न किसी से कुछ लेता था न लेने देता था। जितने दिन रहा, चाय-पान तक को तरस गए।
          सरकार के पैसे पर ऐसे कुंडली मार कर बैठता था जैसे उसके बाप का पैसा हो। दस रुपट्टी का कोई बिल पेश कर दे तो रेट पता करने खुद दुकान पर पहुँच जाता था, और जो किसी ने दो-चार रुपये बढ़ाकर बिल बनवाया हो तो समझ लो अमानत में खयानत के लिए चार्जशीट जारी। दफ्तर का झाडू़-कट्टा, ऐसिड-फिनाइल, कुनैन की गोलियाँ तक बाज़ार से खुद खरीद कर लाता था ताकि कोई दो पैसे न मार ले।
          इतनी बार कान में मंत्र फूँका कि साहब पार्टियाँआपकी मेहरबानी की तलबगार है, ज़रा रहमदिली बरता करो, कुछ उनका भी भला होगा, कुछ अपना भी। मगर नहीं, उस बदमाश ने किसी पार्टीको एक पैसे की चोरी नहीं करने दी। इतनी बड़ी-बड़ी पार्टियाँ थीं, कोई मंत्री का रिश्तेदार, कोई मुख्यमंत्री का, कोई डायरेक्टर का साला तो कोई कमिश्नर का भांजा, मगर साहब किसी को भी उस कमीने ने घास नहीं डाली। दसियों बार सस्पेंड हुआ, पच्चीसों बार लूप लाइन में पड़ा-पड़ा सड़ता रहा, मगर मजाल है जो किसी तुर्रम खाँ के सामने जाकर दुम हिलाई हो। हमने बहुत समझाया, साहब मान जाओ, ऊपर वालों के छर्रे हैं तो क्या हुआ अपना हिस्सा तो अपन को खुशी-खुशी देने को तैयार हैं! दे दो थोड़ी रियायत, अपने बाप का क्या जा रहा है। क्वालिटी को क्या चाटना है! अपने घर का काम तो है नहीं, सरकारी है, सरकारी तरीके से ही चलने दो। चार पैसे आने दो, एक पैसा ऊपर जाने दो, दो पैसे आप रख लो, एक पैसा हम लोग मिल बाँटकर खा लेंगे। सबके बच्चे दुआएँ देंगे! मगर कसम से, कुत्ते का पिल्ला टस से मस नहीं हुआ।
          अब बताओ, इकलौती बिटिया की शादी करी, डिपार्टमेंट से एक काले कुत्ते तक को इनव्हाइट नहीं किया, लोग लिफाफा जो दे जाते। लिफाफे से भारी चिढ़ थी कम्बख्त को। कहता था गिफ्ट के बहाने जाने कौन रिश्वत थमा जाए, और फिर बाद में अपना नाजायज़ काम करवाने के लिए सिर पर आ खड़ा हो। बताओ, यह भी कोई बात होती है! हमने कितनी शादियाँ देखी है, अफसर को खाली-मात्र जेब में हाथ डालकर ज़ुबान भर हिलाना पड़ी है, खड़े-खड़े सबरे इंतज़ाम हो गए। बेटियों की शादियों में लोगों की जमा पूँजी हिल्ले से लग जाती है, मगर हमने अफसरों का बैंक बैंलेंस दुगना-तिगुना होते हुए देखा है। पर साहब इस आदमी को ईमानदारी का कीड़ा इस बुरी तरह से काटा था कि पूछो मत। इसने शादी के कार्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा दिया था- ‘‘किसी भी प्रकार का नगद अथवा उपहार लाने वाले को जेल की हवा खानी पड़ सकती है।’’ बताओ अब, था कि नहीं चिरकुट ! मेहमानों को चाय और मारीबिस्कुट पर दफा कर दिया छिछोरे ने, बड़ा ईमानदार बना फिरता था। अरे ईमानदारी का इतना ही शौक था तो ईमानदारी से सबको खिलाता-पिलाता, नहीं था अंटी में कुछ तो दो-तीन पार्टियोंको साध लेता, नहीं थी दम तो हमसे कहता, हम इंतज़ामों का ढेर लगवा देते! मगर नहीं साहब, उसे तो पता नहीं किस पागल कुत्ते ने काट रखा था, ईमानदारी का भूत कम्बख्त नींद में भी उसका पीछा नहीं छोड़ता था।
          खैर साहब, रिटायरमेंट से छः महीने पहले एक बार अपने पल्ले पड़ गया सुसरा, नानी याद दिला दी अपन ने। उसका ईमानदारी का भूत लपेट कर उसी की जेब में डाल दिया। हुआ यह कि अपन ने उसके दस्तखत से हुए एक सरकारी भुगतान में लम्बा फ्रॉड पकड़ लिया। गलती उसकी एक पैसे की नहीं थी, नीचे वालों ने उसकी ऐसी-तैसी कर दी थी। मगर फ्रॉड तो फ्रॉड है, अपन ने भी अपनी ज़िम्मेदारी ईमानदारी से निभाई और पेल के वसूली निकाल दी। हिसाब लगाया तो पता चला कि पेंशन, जी.पी.एफ., ग्रेज्यूटी वगैरा पूरी ज़ब्त हो जाएगी फिर भी गिरह से पैसा जमा करना पड़ेगा। घिग्घी बंध गई ईमानदार की! चार-चार बच्चे, उनकी पढ़ाई, शादी-ब्याह आँखों के सामने नाचने लगे। बीवी अलग टी.बी. की मरीज बनकर रात-भर खो-खो करती रहती थी। एक पैसा कभी बचाया नहीं कम्बख्त ने, जब देखा कि अब तो भीख माँगकर घर चलाने की नौबत आ जाएगी तब दिन में सितारे नज़र आने लगे ईमानदार को। एक दिन शाम को अंधेरा होने के बाद चुपचाप मेरे घर आया और गज़ब देखों कि बच्चों के लिए कैडबरी चॉकलेट और मिठाई के डिब्बे लेकर आया था। मेरा हाथ पकड़कर गिड़गिड़ाता हुआ बोला-बड़े बाबू, मेरी जिन्दगी आपके हाथ में हैं, देखिए अगर कुछ हो सकता हो तो, तुम जो कहोगे मैं कर दूँगा, किसी तरह मुझे इस वसूली से बचाओं। बहुत रोया, बहुत गिड़गिड़ाया। मेरे पॉव पर गिरने को तैयार हो गया। सारी ईमानदारी की अकड़ गायब हो गई थी। एक ईमानदार ऊँट पहाड़ के नीचे आकर मेरे सामने घुटनों के बल गिरा पड़ा था। उल्लू का पट्ठा पहले ही थोड़ा नीचे गिर जाता तो कम से कम हम जैसे नीच के पैरों में गिरने की नौबत तो नहीं आती। हमने सोचा चलो देर आयद दुरूस्त आयद। ऐसी गोपाल गांठ लगाई कि इसे बचाकर दूसरे दो को ले लिया लपेटे में। दोनों पर अपन ने पुख्ता मामला ठोक दिया और तगड़ा माल लेकर सारा मामला रफा-दफा करवा दिया। ईमानदारी का पुतला बहुत खुश हुआ मुझे बेईमानी करते देख। मैंने भी जाते-जाते कह दिया-साहब यही गति है दुनिया कीं, आप भी अगर थोड़ा हमारे बाल-बच्चों का ख्याल रख लेते तो आपकी इज़्जत नहीं घट जाती। अब देखिये आपके बाल-बच्चों और परिवार का मुँह देखकर हमने आपको जेल की चक्की पीसने से बचाया कि नहीं! किसी का क्या गया इसमें। सरकारी काम है साहब, ज़माने के साथ चलने में किसी के बाप का आखिर जाता क्या है! ईमानदारी का कोई मैडल तो मिलता है नहीं ?’’
          अंधेरा हो गया था, सारे बुड्ढे इस अनुभव की पृष्ठभूमि में देश में चल रहीं भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम के बारे में सोचते हुए अपने-अपने घर चले गए।
शुक्रवार के 17-23 जून के अंक में प्रकाशित रचना