शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

हैप्‍पी न्‍यू ईयर-नववर्ष मंगलमय हो !!


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          सबको पता है, चाहे कितना भी धूम-धड़ाका करो, कितनी भी बाँछें खोलो, बत्तीसी बिखेरो, एक-दूसरे को भींच-भींचकर प्राण ले लो, लाउड-स्पीकर, माइक लगाकर एक-दूजे का मंगलगान गाओ, नशा-पत्ता करके कुदक्कड़े लगाओ, मगर कम से कम इस देश में तो पब्लिकका नववर्ष मंगलमयहोने से रहा।
नववर्ष की प्रथम सूर्य-किरण के साथ ही फिर वही राग दरबारी छिड़ जाएगा। फिर वही महँगाई दिन-दूनी, रात-चौगुनी रफ्तार से फार्मूला वन रेस सी दौड़ने लगेगी, फिर वही भ्रष्टाचार का रावण सरकार की अन्तिम इकाई से प्रथम इकाई और प्रथम इकाई से अंतिम इकाई की ओर हुँकारता दौड़ना शुरू कर देगा। फिर वही लूट-खसोट का प्रायोजित राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रारंभ हो जाएगा, फिर ज़नता के साथ वही धोकाधड़ी-चार सौ बीसी की चौपड़ शुरू हो जाएगी।
नन्हें-नन्हें बच्चों के लिए वही अंधकारमय भविष्य की उज्ज्वल योजनाएँ होंगी, पढ़े-लिखे युवाओं की वही बेकारी और दिशाहीनता होगी, बुद्धिजीवियों की वही कुंठाग्रस्त सृजनशीलता होगी। महिलाओं पर अत्याचार, दमन, उत्पीड़न का वही साया होगा, माँ-बहनों की इज्ज़त सरेआम बाज़ार में नीलाम की जाएगी। चारों ओर घोर अमंगल ही अमंगल होगा, फिर भी हम एक-दूसरे को ढूँढ़-ढूँढ़ कर, रोक-रोककर, पकड़-पकड़ कर, नववर्ष की मंगलकामना की पोटली पकड़ाते चलेंगे।
दरअसल मंगलकामनाओं के अर्थ कुछ निराले ही होते हैं। चोरगण जब एक-दूसरे की मंगलकामना करें तो उसका मतलब होता है कि हर घर का ताला आपको टूटा हुआ मिले, तुझे भी खूब माल मिले, मुझे भी खूब माल मिले। कोई मुनाफाखोर कालाबाज़ारिया जब दूसरे मुनाफाखोर कालेबाज़रिये के लिए मंगलकामना करे तो उसका अर्थ होता है महँगाई दिन-दूनी, रात-चौगुनी गति से बढ़े, हमारा मुनाफा चौगुना-छौगुना हो जाए। भ्रष्टगण जब एक-दूसरे की ओर मंगलकामना पटकें तो उसका मतलब होता है, इस साल महकमें में खूब बजट-आवंटन आवे, खूब खर्चा बुक होवे, खूब कमीशन हाथ लगे, अपनी जेबे खूब गर्म रहें। नेता लोग जब एक-दूसरे की मंगलकामना करें तो इसका एक ही अर्थ होगा कि तुम्हारे यहाँ भी बड़े-बड़े ब्रीफकेस आवे, हमारे यहाँ भी बड़े ही बड़े ब्रीफकेस आवे।
      ऐसी असंख्य मंगलकामनाएँ लेकर नववर्ष हर वर्ष की तरह आएगा और गरीब की झोपड़ी से ना नापी जा सकने वाली दूरी बनाए, धूम-धड़ाका हल्लागुल्ला मचा कर चला जाएगा। मंगल हो न हो, हरेक का नववर्ष मंगलमय हो जाएगा।    

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

बंद मुँह और खुले मुँह की लीला


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
             
थोबड़े पर मुँहनामक खोह कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, हालिया चेतावनीपूर्ण बयानबाज़ी से यह समझा जा सकता है। अमरराजनेता अमरसिंह के मुँह के बारे में यही चेताया जा रहा है, कि अगर वह खुल गया तो कई फँसेंगे। इस चेतावनी से यह भी ज़ाहिर होता है कि देश में ऐसे कई मुँह हैं जिनके खुलने से फँसनेवालों की लाइन लग जाएगी और फँसनेवाले वही सब होंगे जिन्होंने देश की मट्टी-पलीत कर रखी है। इस लिहाज़ से बंद मुँह वाले सभी बंदे खुफियातंत्र के लिए बड़े काम के हैं, उनकी ज़रा अच्छे से खातिर-तवज्जों की जानी चाहिए।
यह ठीक है कि मुँहव्यक्ति की निजी संपत्ति होता है, वह उसे खोले या बंद रखे यह उसकी मर्ज़ी, मगर ऐसे मुँहोंको खुलवाने के लिए बातोंऔर लातोंदोनों की पुख्ता व्यवस्था अवश्य कर रखी जानी चाहिए, जो कानून को ठेंगा दिखाने वालों के बारे में देश के उत्कृष्ठ जासूसीकर्मियों से ज़्यादा जानकारियाँ रखते हैं। मुँह भले ही निजी हो मगर उसका खोलना-बंद रखना सरकार के कंट्रोल में होना चाहिए, ताकि राष्ट्रहित में इसे जब, जहाँ, जितना ज़रूरी हो, खुलवाने का सुभीता रहे।
मुँहकुल्हड़नुमा वह शारीरिक संरचना है जिसमें लोग अक्सर स्वार्थ का दही जमा कर रखते हैं। जब तक स्वार्थ सधता रहे इसमें दही जमा रहता है, और लोग फँसने से बचे रहते हैं। जहाँ स्वार्थसंधान में बाधा आई कि लोग दही उलटकर अपने मुँहको खोलने की धमकी देने लगते हैं और किसी की भी लुटिया डूबाने पर उतारू हो जाते हैं। अपने अमर बाबू के मुँह को दुनिया आजकल बड़े उत्साह और विश्वास से देख रही है कि कब यह चरमराकर खुले और हमें खुश होकर तालियाँ पीटने का अवसर मिले।
किसी की आत्मा जागृत हो जाए तो बरसों-बरस मुँहके बंद रहने से भीतर दबी पड़ी नापाक करतूतों की फाइलें, फ्लापियाँ, सी.डी.याँ, खदबदाने लगती हैं, और क्षणिक आवेश के कारण जब उसका मुँह खुल जाता है तो भूकम्प आ जाता है और फिर कई गगनचुंबी स्तंभों को धराशायी होना पड़ता है। वह धराआमतौर पर तिहाड़ जेल की होती है। कुछ लोगों को जहाँ किन्ही मुहोंके खुलने से तिहाड़वास हो जाता है तो वहीं किसी-किसी को उसकामुँह खुल न जाए इस डर से तिहाड़वासी बना दिया जाता है। बैठो बेटा अंधेरी कोठरी में, और खोलो अपना मुँहकितना खोलना है।
देखा जाए तो शरीर में मुँहकी भूमिका बड़ी ही चुनौतीपूर्ण है। आँखों से देखी, कानों से सुनी असामाजिक-असांस्कृतिक करतूतों की रामकहानी को कंठ से फूटकर बाहर निकलने से इसे बलपूर्वक रोकना पड़ता है। फिर चाहे वह दही जमा कर रोके, मुखाग्र को मोची से सिलवाकर, या उस पर चौड़ा टेप चिपकाकर रोके, वह रोकता है, और यही मुँह का वह कुकृत्य है जिसकी वजह से देश में आचारकी इतनी समस्या व्याप्त है। स्वेच्छाचार हो, भ्रष्टाचार हो, दुराचार हो, व्यभिचार हो, सब कुछ उन मुँहों के चुप रहने के कारण ही फूलता-फलता है। जबकि आज ज़रूरत यह है कि मुँह खुले और तबियत से खुले। भले ही डाँटने-डपटने, गाली देने, कोसने, निंदा करने  के लिए खुले, यहाँ तक कि पात्र बदमाशों के मुँह पर थूकने के लिए ही सही, मगर खुले, तब देखिए देश में आचारका इतना संकट न रहे। लोग राम-राज्य का अनुभव करने लगें।
मगर, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि देश में कुछ लोगों का मुँहजब खुलता है तो भीषण बदबू का असहनीय भभका छूटकर बाहर निकल पड़ता है और पूरे समाज को सड़ाने लगता है। लोग इस बदबू और सड़ांध को ईत्र की खुशबूसमझकर सुख की फर्जी अनुभूतियों में डूब-उतरा ही रहे होते है कि घात में बैठे लोग पलक झपकते ही उनका सब कुछ लूट ले जाते हैं।
इसलिए बंद मुहों को खुलवाने और खुले मुँहों को बंद करवाने के लिए कोई कठोर वैधानिक प्रावधान कर इन्हें कानून के दायरे में लाना चाहिए। मेरी राय में तो देश के सारे मुहों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना बहुत ही बढ़िया रहेगा। सरकार को इस काम के लिए एक अलग विभाग खोलकर तमाम मुहों की निगरानी का चाक-चैबंद प्रबंध करना चाहिए। जब सारे बंद मुँह खुलेंगे और खुले संडांध मार रहे मुँह बंद हो जाएँगे तब देश का सचमुच भला हो जाएगा। 
शुक्रवार 23-29 दिसम्‍बर में प्रकाशित       

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

सोने की चिड़िया


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
हमारे प्यारे भारत देश को कभी किसी ज़माने में सोने की चिड़ियाकहा जाता था। इसी सोने की चिड़िया के लोभ में अँग्रेज़ लोग भारत आए थे और दो सौ वर्षों तक लगातार इस सोने की चिड़िया के परनोच-नोच कर इंग्लैंड की महारानी का खज़ाना भरते रहे। पूरी चिड़िया को बांडा-बुच्चा करने के बाद कम्बख्त उसे मरने को छोड़कर भाग गए। उस ज़माने में कई भारतीय लोग भी सोने की चिड़िया के परनोचने के लिए लालाइत रहते थे परंतु अँग्रेज साहब बहादुर के सामने उनकी एक नहीं चलती थी लिहाज़ा उन्हें मात्र सोने की चिड़िया की बीटभर से ही काम चलाना पड़ता था। ज़्यादा से ज्यादा परउखाड़ने की प्रक्रिया के दौरान एखाद रोम-रूआइधर-उधर छिटककर गिर पड़े तो भारतीयों को उसी से खुश रहना पड़ता था।
कालान्तर में इस नुची-बुची चिड़िया को विराट स्वतंत्रता आन्दोलन चला कर मुक्त कर लिया गया। धीरे-धीरे चिड़िया स्वस्थ होती चली गई और आज इस का रूप-यौवन देखते ही बनता है।
अँग्रेज चले जरूर गये मगर कुछ खास किस्म के भारतीयों को परनोचने की कला सीखा गए। पिछले बीस-पच्चीस सालों में इन खास भारतीयों ने अपनी उस सोने की चिड़िया को इस कदर नोचा-खसोटा है कि मत पूछिये। पर-पंख’, यहाँ तक कि उसके रोम-रोएतक नोच-नोच कर लोग अपनी तिजोरियाँ भरते जा रहे हैं। कईएक सोने के परोंको स्विस बैंक में छुपाकर रख रहे हैं तो कोई अपने घरों के संडासों, तहखानों, फर्श, रजाई-गद्दों में उन्हें छुपाए बैठा है। कुल जमा चार-पाँच इंसानों के छोटे से परिवार गगनचुंबी इमारतें तान रहे हैं तो कोई सोने-चाँदी की थालियों में खान-पान और हस्थ प्रच्छालन कर रहा है, कोई खालिस सोने के सिंहासनों पर बैठकर हुकूमत चला रहा है। चपरासियों-बाबुओं के घरों में तक इफरात सोने के पखभरे पड़े हैं फिर खानदानी अफसरान, नेता, मंत्रियों की कोई क्या कहे! गरीब आदमी जब कभी आशा की नज़र से देखे, तो उसे चिड़िया के वे खून रिसते घाव दिखा दिए जाते हैं जो पंखों को बेदर्दी से नोचने, खसोटने से बन गए है।
           मैं किंकर्तव्यविमूड़ सा देख रहा हूँ कि अगर ऐसी ही नुचाई चलती रही तो बेचारी चिड़िया कब तक जिंदा रहेगी?

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

विज्ञान को जनोन्मुखी बनाने का तरीका


//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//

मनुष्यों ने अपना खून चूसने वाली शक्तियों से निबटना खूब सीखा है। जैसे खटमल-मच्छर सदा से आदमी का खून चूसते आ रहे हैं, मगर आदमी ने गहन शोघ एवं अनुसंधान चलाकर खटमल-मच्छरमार दवाइयाँ और स्प्रे इत्यादि की ईजाद की और अपने इन जानी दुश्मनों की नाक में दम कर दिया। इसमें खटमलों का तो नामों-निशान तक नहीं दिखाई देता। मच्छरों की भी ज़ात इसी तरह कभी न कभी ज़रुर लुप्तप्राय हो जाएगी, मुझे पूरा विश्वास है।
दीमक, मक्खियों, काकरोज़ों, चीटियों का सूपड़ा साफ करने योग्य दवाइयाँ और स्प्रे बड़ी तादात में बाज़ार में उपलब्ध है। यह अलग बात है कि दवा-स्प्रे नकली निकल जाएँ या इन घरेलू आतंकी प्रजातियों की प्रतिरोधक क्षमता पहले ही से बढ़ी हुई हो, नतीजतन इनका बाल भी बाँका न हो, परंतु इंसान मारक से मारक दवा-स्प्रे खोज-खोजकर मनुष्य जाति के इन दुश्मनों का नाश करता रहता है।
मनुष्यों में ही मनुष्य जाति के अनेक दुश्मन हैं, जो रात-दिन मनुष्य का ही खून चूसते रहते हैं। इन पर छिड़कने के लिए आजतक कोई शक्तिशाली दवा या स्प्रे ईजाद नहीं किया गया, इसलिए दुष्टों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। गुंडे-बदमाश हों, भ्रष्टाचारी हो, रिश्वतखोर हो, काला बाज़ारी-जमाखोरी करने वाले हों, मिलावटिये, नकली माल बेचने वाले हों, व्यभिचारी-बलात्कारी हों, प्रत्येक के हिसाब से अलग-अलग क्षमता का डी.डी.टी. पावडर या हिट स्प्रे किस्म के उत्पादों की श्रृंखला बाज़ार में आना चाहिये। जहाँ जैसे आदमी से मुकाबला हो वहाँ मुफीद सा आयटम ले गए और फुर्रर्रर्र से अगले के मुँह पर दे मारा, काम खत्म। घूसखोर-मार, सूदखोर-मार दवा की पुड़िया का व्यापक छिड़काव कर दिया हो गई सफाई। एक ऐसी पावरफुल स्मोक मशीन बनाई जानी चाहिये जिसे नेताओं के बहुतायत में पाए जाने वाले स्थान पर दरवाज़े-खिड़की बंद कर चला दिया जाए तो सारे भ्रष्ट नेता टपा-टप गिर पड़ें। एक-एक को उठाकर डस्बीन में डाल दो, हो गया काम।
विज्ञान को जनोन्मुखी बनाने का इससे बढ़िया तरीका और कोई हो ही नहीं सकता। वैज्ञानिक लोगों को चाहिये कि जल्दी से जल्दी इस दिशा में व्यापक शोध-अनुसंधान शुरु कर जनता को शक्तिशाली दवाएँ और स्प्रे उपलब्ध कराएँ, ताकि चारों ओर पसरे असामाजिक तत्वों का सफाया किया जा सकें।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

मगरमच्‍छ तो अपना काम करेंगे ही


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
             एक कहावत है-‘‘पानी में रहकर मगर से बैर।’’ इस कहावत के मुताबिक यदि आप पानी में रहकर मगरसे दुश्मनी मोल लोगे तो वह आपको जिन्दा नहीं छोड़ेगा, कच्चा चबा जाएगा। प्रश्न यह है कि यदि आप पानी में रहकर मगरसे बैर नहीं भी लोगे तो क्या वह आपको बिना नुकसान पहुँचाए ज़िन्दा छोड़ देगा ?
चलो, इससे भी आगे बढ़कर यदि कोई आदमी रात-दिन मगरकी चापलूसी, चम्मचगिरी करे, उसकी मालिश करे, हाँथ-पैर दबाए, दुम न होते हुए भी उसके सामने दुम हिलाता रहे, तो क्या सामने मौजूद स्वादिष्ट भोजन को छोड़ देने के उम्मीद किसी मगरसे की जा सकती है ?
पानी में ही क्यों! पानी के बाहर भी यदि आप मगरके लपेटे में आ गए तो वह आपका नाश्ता, लंच, डिनर, जो भी सुविधाजनक हो, कर लेगा। इसमें उसके लिए दोस्ती-बैर की कोई अड़चन सामने नहीं आएगी। पानी के अन्दर या बाहर फर्क सिर्फ यह होगा कि अच्छे तैराक होने के बावजूद भी पानी में आपके सामने मगरसे बचकर भागने का कोई रास्ता नहीं होगा, आप एक झपट्टे में मगर के मुँह के भीतर मौजूद आरा मशीन के नीचे होंगे। पानी के बाहर आप दौड़ लगाकर किसी पेड़-वेड़ या ऊँची जगह पर पनाह लेकर अपनी जान बचा सकते हैं, यदि वहाँ पहले ही से कौई मगरमौजूद न हो। पानी रहे न रहे, दोस्ती रहे बैर रहे, वह दुष्ट मगरआपके शरीर को भंभोड़-भंभोड़कर सारी हड्डियों का चूरमा बनाकर खा जाएगा।
       पूँजीवाद एक सड़ी हुई व्यापक जलराशि है जिसने सम्पूर्ण धरा के पर्यावरण का सत्यानाश करके रखा है । इसकी तासीर ऐसी है कि सम्पर्क में आते ही गउ से गउ इंसान भी मगरमच्छमें तब्दील होकर खाने के लिए कुछ ढूँढ़ने लगता है। सामने जो कुछ भी आ जाए वह सब कुछ खा जाता है। मनुष्य के साथ-साथ मनुष्य की बुद्धि, विवेक, ज्ञान, तर्क, यहाँ तक कि मनुष्यता भी बारीक चबा-चबाकर उदरस्थ कर लेता है। राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय राजनीति को यदि ठहरा, सडांध मारता पानी माना जाए तो माननीय नेतागण इसमें पटे पड़े मगरमच्छोंसे कम प्रतीत नहीं होते हैं। बैर हो यान हो वे तो आम जनता की तिक्का-बोटी करेंगे ही करेंगे।         

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

छुट्टी और छुट्टी के बाद का होमवर्क


//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//
             ओय ओय ओय ओय छुट्टी हो गई। टन टन टन की आवाज़ आते ही कई सारे उदंड बच्चे उठकर मेन गेट की ओर दौड़ पड़े, सोई प्रिंसीपल साहब ने किसी जेलर की तरह सबको हड़काकर भगा दिया और लगे चिल्लाने- सिर्फ वी.आई.पी. बच्चों की छुट्टी हुई है! उल्लू के पट्ठों तुम क्यों यहाँ अपना बोरिया-बस्ता लेकर गेट पर आ लटके! चलो भागों यहाँ से। बेचारे आम बच्चे अपना सा मुँह लेकर वापस अपनी-अपनी जगह पर जा बैठे। कोई दरी बुनने लगा और कोई मोमबत्तियाँ बनाने लगा। स्कूल का गेट खुला और वी.आई.पी बच्चे ओय-ओय करते हुए बाहर निकलकर अपनी-अपनी इम्पोर्टेड कारों में फुर्र हो गए।
            घर पहुँचकर बच्चे और माँ-बाप जितने खुश होंगे उतने ही तनाव में भी आ जाएँगे, क्योंकि छुट्टी के बाद दोनों के ही लिए सबसे बड़ी टेन्शन वाली बात होगी होमवर्क। सबको फौरन से पेश्तर अपने-अपने होमवर्क में जुटना होगा। होमवर्क नहीं किया तो स्कूल लौटकर किसको क्या सज़ा मिलेगी कोई नहीं जानता। छः महीने बाद घर पहुँचे हैं, थोड़ा बहुत आराम कर फिर होमवर्क में जुटा जा सकता है, मगर यह आराम सुसरा कहीं महँगा न पड़ जाए, इसलिए सभी को काफी लगन और मेहनत से होमवर्क पूरा करना पड़ेगा भले ही नकल टीपना पड़े। किसी ने कोई कोताही की तो लेने के देने पड़ सकते हैं, भविष्य और कैरियर दोनों चैपट।
             होमवर्क के पहले चरण में उन्हें उस बदमाश को ढूँढना पड़ेगा जिसकी वजह से उन्हें छः महीने तिहाड़ स्कूल में रहना पड़ा, और इसी क्रम में उन नकारा वकीलों को भी आड़े हाथों लेना पड़ेगा जो धन-दौलत की रेलमपेल के बाद भी इनकी स्कूल से छुट्टी नहीं करवा पाए। फिर कौन-कौन से कागज़ फाड़ना है, जलाना है, किस कागज़ में हेर-फेर करना है, कौन सा जाली तैयार करवाना है यह एक्सरसाइज़ बड़ी ज़रूरी है। सबूतों को छेड़ना, गवाहों को धमकाना, उन्हें नोटों की गड्डियों मैं तौलना और अपनी आज़ादी के दुश्मन बने सरकारी दरोगाओं, वजीरों को साधने के लिए साम दाम दंड भेद पर समग्र चिंतन करना। यह सब महत्वपूर्ण होमवर्क है जो कि तिहाड़ स्कूल से छूटकर बाहर आए वी.आई.पी बच्चों और उनके माता-पिताओं को करना पड़ेगा वर्ना तगड़ा फाइन भरना पडे़गा।