सोमवार, 28 मार्च 2011

महँगाई में पेट भरने का सस्ता तरीका

नईदुनिया में प्रकाशित
//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
        पैदाइश से लेकर अब तक एक बात जो शिद्दत से महसूस होती आई है वह यह कि ‘महँगाई’ से बड़ा मुद्दा इस देश में दूसरा कोई कभी नहीं रहा। बाप-दादों के ज़माने में ‘शुद्ध घी’ जब ‘पावली-सेर’ आता था तब भी ‘महँगाई’ एक विराट समस्या होती थी और आज जब चार सौ रुपए किलो पाया जाता है तब भी ‘महँगाई’ उसी साइज़ की समस्या है।
    दुनिया में चाहे दूसरी जितनी भी झँझटें दरपेश हों लेकिन कोई सच्चा भारतीय अगर किसी विषय पर हर वक्त चिंतनशील पाया जाता है तो वह सिर्फ और सिर्फ ‘महँगाई’ ही है। इस ज्वलंत विषय पर वह चौबीसों घंटे और सातों दिन बहस-मुबाहिसे में मुब्तिला रह सकता है, नतीजा चाहे कुछ निकले या ना निकले। दीन-दुनिया से विरक्ति उपजाने वाले चिर-शांतिस्थल ‘मरघट’ में भी यदि उसे मौका मिले तो वह ‘ठठरी’ को एक तरफ छोड़कर ‘महँगाई’ के मुद्दे पर ही वैचारिक संघर्ष चालू कर देगा।
    ऐसा शायद उसी दिन से होता आ रहा होगा जिस दिन से ‘बाज़ार’ नामक खतरनाक संघटना अस्तित्व में आई और धरती पर मुफ्त में उपलब्ध सब्ज़ी-भाजी पहले-पहल मोलभाव में बिकना शुरू हुई। बार्बर सिस्टम में जब अनाज के बदले में कभी थोड़ी कम प्याज़ हासिल हुई होगी तो तत्कालीन आदिमानवों ने एकत्र होकर ज़रूर चिन्ता ज़ाहिर की होगी कि - देखो कमबख्त प्याज़ कितनी महँगी हो गई है! हो सकता है भीषण महँगाई के मुद्दे पर उन्होंने किसी को ज्ञापन भी दिया हो, जिस पर कोई कार्यवाही ना हुई हो।
    मुद्दा महँगाई का हो तो हमारे देश में जनचेतना बहुत ही जबरदस्त किस्म की हो जाती है जो आमतौर पर ‘गालियों’ की शक्ल में अभिव्यक्त होती है, और चूँकि गालियाँ खाने के लिए देश में ‘सरकार’ नामक एक जड़ संघटना हर वक्त हर कहीं उपलब्ध रहती है इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ज़्यादातर इस्तेमाल ‘सरकार’ के खिलाफ ही होता है। आलू-प्याज़ उपजाता कोई है, खेत से उठाता कोई है, मंडी तक लाता, रिटेल में बेचता, खरीदता कोई है और खाता कोई है। इस बीच में कानून के ‘होल’ का इस्तेमाल करके जमाखोरी, कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी का धंधा कोई और ही करता है। परन्तु, जब महँगाई डायन जेब में पड़े रोकड़े को ठेंगा दिखाने लगती हैं तो गालियाँ गरीब ‘सरकार’ को पड़ने लगतीं हैं। सरकारें भी बला की बेशरम होती हैं, महँगाई के मुद्दे पर कुछ ना कर पाने की मुद्रा बनाकर पूरी सहिष्णुता और संयम से गालियाँ खाती रहती है।
    इन दिनों लोग सरकार के हर उस डिपार्र्टमेंट को गालियाँ दे रहे हैं जो गंभीरता से मूक बनकर महँगाई को बढ़ते हुए देखने का काम कर रहा है। जिन्हें उन डिपार्टमेंटों के नाम नहीं मालूम वे सीधे-सीधे सरकार के मुखिया को गरिया रहे हैं। यह बात भी बड़ी अजीब है, कि लोग बाज़ार से सब्ज़ी-भाजी तो छंटाकभर खरीदेंगे, जिससे शायद ही किसी का पेट भरता हो, मगर बीच चौराहे पर खड़े होकर, महँगाई के बहाने बेचारी सरकार को ‘गालियाँ’ भर पेट देंगे। इस भीषण महँगाई में जब और कुछ किया जाना संभव नहीं, पेट भरने का यह तरीका जायज़ हो या नाजायज़, सस्ता तो है।

शनिवार, 26 मार्च 2011

जापान में सुनामी

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          जापान में आए भूकम्प और सुनामी में हुए जान ओ माल के नुकसान को देखकर अपना तो क्या अच्छे-अच्छे पापियों का भी मुँह बंद है। आदत के विपरीत लोग सोचने लग पड़े हैं कि अगर अपने भी देश में इस तरह की विपदा आन पड़ी तो क्या होगा। ऐसे मामलों में लोग सरकार पर, चाहे वह कितनी भी ‘काबिल’ क्यों न हो, जाने क्यों अविश्वास करते है! विश्वास करें भी कैसे! जापान में फुकुशिमा परमाणु संयंत्र की भट्टियाँ परमाणु बम की तरह उड़ जाने से उपजी परिस्थितियों से सबक लेने की नीयत से कुछ दिन पहले मुम्बई में सम्पन्न हुई एक हाईप्रोफाइल कान्फ्रेंस में जिस तरह मंत्री और विधायक खुर्राटे लेते नज़र आए, उससे भले ही यह गलतफहमी हो कि हमारे नेतागण कितने ग़ज़ब के सेवाभावी हैं, सोते हुए भी जनता की चिन्ता करते हैं, लेकिन आम आदमी के पास दूसरी ढेरों ऐसी वजहें हैं जिनके कारण ऐसी आपदाओं के समय वह सरकार पर ना चाहते हुए भी अविश्वास करने पर मजबूर है। मोहल्ले में एक छोटी सी आग लग जाने पर हमारे देश में जिस तरह सैकड़ों नखरों के बाद तीन घंटे की न्यूनतम देरी से फायर बिग्रेड की एक अदद गाड़ी राख के ढेर से चिन्गारियाँ बुझाने आया करती है, अगर भूकम्प या सुनामी आ जाए, परमाणु हादसा हो जाए तो इस अनुभव से तो हम दावे के साथ कह सकते हैं कि भले ही उत्तरी अमेरिका से रेस्क्यू टीम भारत आ जाए परन्तु हमारी फायर बिग्रेड कभी आएगी ही नहीं।
            जापान की प्राकृतिक त्रासदी से (अभी हम इंतज़ार कर रहे हैं कि कोई राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय एन.जी.ओ. इसे मानव निर्मित त्रासदी साबित करे) कुछ दिन स्तब्ध रहने के बाद पैसा उगाने वाले दुनिया भर में अब तक जाग चुके होंगे। कुछ तो स्तब्ध हुए ही नहीं होंगे बल्कि पहले ही दिन से टी.वी. पर त्रासदी की तस्वीरें देख-देखकर कमाई की संभावनाएँ टटोलने में लग गए होंगे। जैसे ‘कबाड़ी’। विकासशील देशों में कबाड़ी होते हैं या नहीं पता नहीं लेकिन हमारे जैसे देश में तो कौन कबाड़ी ऐसा होगा जिसकी, इतनी बड़ी मात्रा में ‘कबाड़’ देखकर बाँछे न खिल गईं हों। कबाड़ भी मामूली लकड़ी, लोहा-लंगड़ भर का नहीं, टी.वी. फ्रिज, इलेक्ट्रॉनिक आयटम, कम्प्यूटर, इंपोर्टेड लक्झरी गाड़ियों यहाँ तक कि हवाई जहाज़ों और पानी के जहाज़ों तक का कबाड़। ऐसा बेशकीमती कबाड़ दुनिया के किसी देश में मिलने वाला नहीं है चाहे कितनी बड़ी उथल-पुथल हो जाए। मेरा खयाल है कि अब तक तो बहुत सारे कबाड़ी पासपोर्ट, वीज़ा दफ्तरों की ओर दौड़ लगा चुके होंगे। हसन अली जैसे बडे़ कबाड़ी तो हो सकता है टोकियों पहुँच भी गए हों।
         जापान में बरबादी का दौर अभी थमा नहीं है, मगर दुनियाभर की कन्स्ट्रक्शन कम्पनियाँ और अन्तर्राष्ट्रीय ठेकेदार जापान को फिर से खड़ा कर देने के लिए उतावले होने लग पड़े होंगे। विभिन्न देशों की सरकारें जापान के साथ अपने मधुर संबंधों की टोह लेने लगी होंगी ताकि वक्त ज़रूरत अपने देश की ठेकेदार फर्मों की मदद कर सकें। एस्टीमेट बनने लग गए होंगे, टेंडरों की चिन्ता दुनिया की सबसे बड़ी चिन्ता के रूप में आकार लेने लगी होगी। भिन्न-भिन्न दलाल सक्रिय होकर मालामाल होने की जुगाड़ें लगाने लगे होंगे। कुछ एजेंसियाँ तो जापानी मंत्रियों-अफसरों की खरीद फरोख्त का ठेका लेने के लिए आतुर हो रही होंगी ताकि टेंडर मनचाही फर्मों के पक्ष में खुल सकें। जापानियों के दुख में कुछ दिन सहभागी बने रहने का धैर्य इन लक्ष्मी उपासकों के पास कहाँ, वे आँखों में अथाह कमाई का लालच लिए जापान के पुनर्निर्माण की बाट जोहने लगे होंगे जबकि जापान अभी ढंग से मातम भी नहीं मना पाया है।

रविवार, 20 मार्च 2011

होली का संकट और बचाव का फुल-प्रूफ प्लान


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट// 
नईदुनिया के होली विशेषांक में प्रकाशित
          होली आने वाली है। श्रीवास्तव साहब के परिवार ने जोर-शोर से तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। जैसे-जैसे होली का दिन पास आता जाएगा, श्रीवास्तव साहब और उनका लम्बा चौड़ा परिवार पूरे उत्साह के साथ मोहल्ले की तमाम होलियों के हो-हल्ले, चंदा माँगने वाली टोलियों के आक्रमण, हुरियारों के हुड़दंग, होली-बाज़ यार दोस्तों के हाथों रंगने से बचने के उच्च स्तरीय प्रयासों में लग जाएगा। रोज़ाना शिखरवार्ताओं के कई-कई दौर चलेंगे, जिनमें किसी भी सूरत में होली से अप्रभावित रहने के योजनात्मक षड़यंत्र रचे जाएँगे।
          सर्वप्रथम, होली के ठीक पहले सपरिवार कहीं ऐसी जगह निकल भागने की प्लानिंग की जाएगी जहाँ उनके परिवार को होली के त्योहार का उनका अपना निजी, परम्परागत संत्रास न झेलना पड़े। न चंदा देना पड़े, न टीन-टपारों का कर्णफोडू संगीत बर्दाश्त करना पड़े, ना रंग-रोगन से मुखारबिन्द और कपड़े खराब होने की संभावना हो। घर-आँगन की दीवारों, गाड़ी-घोड़ों, सोफा-दीवान और दूसरे लक्ज़री आयटमों को खराब होने से बचाने के लिए, साथ लादकर ले जाना फिलहाल अपने देश में काफी कष्टकारक और मँहगा है, इसलिए उन्हें मजबूरन छोड़ना पड़ेगा, फिर भी सफर में इन्हें भी साथ ले जाने के बारे में अवश्य सोचा जाएगा। परन्तु, किराए-भाड़े का महँगा होना, रिज़र्वेशनों का टोटा, बच्चों की परिक्षाओं और सबसे महत्वपूर्ण विधानसभा सत्र के दौरान सरकार को श्रीवास्तव साहब की आपातकालीन सेवाओं की पड़ने वाली आवश्यकता के मद्देनज़र शहर छोड़कर भागने का कार्यक्रम हमेशा की तरह रद्द किया जाकर, घर को ही किसी मजबूत किले में तब्दील करने की योजना पर काम किया जाएगा।
          पहला काम-बच्चों को झूठ बोलना सिखाया जाएगा। कोई भी टोली चंदा माँगने आए तो पहले उन्हें-‘‘दूसरी टोली को चंदा दे दिया गया है’’ कहकर चलता करने की कोशिश की जाएगी, फिर भी यदि वे टलने को तैयार न हों तो-‘‘पापा घर में नहीं हैं’’, कहकर उन्हें फुटाया जाएगा। जब वे मम्मी को बुलाने की ज़िद करेंगे तो मम्मी आटा सने हाथ लेकर उपस्थित होंगी और देश में महिलाओं की आर्थिक परतंत्रता पर रटा-रटाया निबंध सुनाकर अंत में, ‘‘उन्हें कोई आर्थिक अधिकार नहीं हैं’’, कहकर मुसीबत से छुटकार पाएँगी। मौके पर जब मम्मी चंदा गिरोह से बहस कर रही होंगी तब वे -‘‘कितनी महँगाई हो रही है! कहाँ से दें चंदा! घर में कोई हराम की कमाई तो आती नहीं!’’ या, ‘‘तुम लोग यह फालतू का काम आखिर करते क्यों हो, पढ़ाई-लिखाई में मन क्यों नहीं लगाते’’, आदि-आदि फिजूल की प्रगतिशीलता झाड़ने वाले जुमले बोलकर पैसा बचाने की कोशिश करेगी। बच्चे पीछे से-‘‘मम्मी दे दो न, मम्मी दे दो न’’ की पूर्व नियोजित ज़िद करेंगे, और मम्मी उन्हें दो-दो चाँटे लगाकर किवाड़ बंद कर लेगी। फिर दरवाजे़ की संध से चंदा माँगने वाली टोली को अपना सा मुँह लेकर वापस जाता देखकर ठहाके लगाए जाएँगे।
          होलिका दहन के दिन, घर के बाहर कोई पलंग-वलंग, लकड़ी का सामान रखा न रह जाए यह सुनिश्चित किया जाएगा, फिर घर के खिड़की-दरवाज़ों, रोशनदानों से लाउड-स्पीकरों, ढोल-ढमाकों और हल्ले-गुल्ले का स्वर किसी भी कीमत पर प्रवेश न कर सके इसकी व्यवस्था चाक-चौबंद की जाएगी। बाज़ार से रुई का बंडल लाकर रखा जाएगा जिसके छोटे-छोटे गोले बनाकर पहले से ही तैयार रखें जाएँगे ताकि होली की रात उन्हें कान में घुसेड़कर मातमी मुद्रा बनाकर बैठा जा सके। मोहल्ले के शैतान बच्चे चंदा ना देने की क्या सज़ा देंगे इस बारे में सोच विचार किया जाएगा। घर में गोबर की हाँडी फेंकी जाने की स्थिति में कौन गोबर साफ करेगा, और पत्थर मारकर शीशा तोड़े जाने पर कौन झाड़ू लगाएगा यह पूर्व निर्धारित रहेगा। दोबारा काँच लगवाने का खर्चा चंदे से ज्यादा तो नहीं होगा यह भी चिन्तन का विषय होगा।
          सारी व्यवस्थाएँ फुल-प्रूफ होने के बाद भी जैसे घुसपैठिये देश में घुसकर उत्पात मचा ही लेते हैं वैसे ही बावजूद तमाम चाक-चौबंदी के कुछ हुरियारे घर में धुसकर रंग-रोगन चुपड़ ही जाते हैं। इस खतरे से निबटने के लिए परिवार के सभी सदस्यों के लिए अप-अपनी पंसद के फटे-पुराने कपड़े पहले ही झाड़-झूड़कर धूप दिखाकर रखे जाएँगें ताकि होली के दिन उन्हें पहनकर खतरे का सामना बहादुरी से किया जा सके। रंगों को बदन पर स्थाई बसेरा बना लेने से बचने के लिये बाज़ार में उपलब्ध सबसे सस्ता तेल, भले ही वह जले मोबिल ऑइल की श्रेणी का हो, घर में स्टॉक करके रखा जाएगा ताकि अल्ल-सुबह होली के दिन उसे अंग-प्रत्यंग पर लगाकर घटिया केमिकल युक्त सस्ते रंगों, पेंट-वार्निश, आदि की परम्परा से जल्दी-छुटकारा पाया जा सके।
          सिर पर कोई रंग की पुड़िया न उढे़ल दे, जो आठ दिन तक नहाते समय चीख-चीखकर अपनी उपस्थिति की गवाही देता रहे, इसलिए सबको बच्चा-टोपी नुमा अस्त्र उपलब्ध कराया जाएगा और खुद श्रीवास्तव साहब स्कूटर की सवारी के दौरान कभी न लगाये जाने वाले हेलमेट का साल में एक बार उपयोग करेंगे।
          अंत में जब शहर भर के हुरियारे थक कर चूर अपने-अपने घरों में सुस्ता रहे होंगे, श्रीवास्तव साहब और उनका पूरा परिवार हर्षोल्लास और खुशियों के इस त्योहार होली के संकट से सफलतापूर्वक बच जाने की खुशी में पड़ोसियों की भिजवाई गुजिया और मिठाइयाँ खाकर जश्न मनाएगा और फिर हफ्तों-महिनों लोगों को अपनी बहादुरी के किस्से सुनाएगा।

शनिवार, 19 मार्च 2011

बुरा न मानो होली है

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
   होली के मौके पर बरसों से सुनते आ रहे हैं-‘‘बुरा न मानो होली है, बुरा न मानो होली है।’’ सवाल है, इसमें बुरा मानने वाली कौन सी बात है! होली है, अच्छी बात है, खेलो होली, पोतो   गोबर-कीचड़, पानी बरबाद करो, चढ़ाओं भांग-ठर्रा, नालियों में लोट लगाओं, किसी के कपड़े फाड़ो, सिर तोड़ो, होली के नाम पर जो करना है करो। जिसे मानना होगा बुरा लाख मना करने के बाद भी मानेगा और जिसे न मानना होगा नहीं मानेगा।
    वैसे, बेशर्मो की इस दुनिया में आजकल बुरा मानता कौन है। आखिर कोई बुरा मानेगा ही क्यों, क्या उसे पागल कुत्ते ने काट खाया है। बुरा मानना ही है तो उसके लिए वह होली का ही इंतज़ार क्यों करेगा, बैठेठाले कभी भी बुरा मान लेगा, कौन उसका क्या उखाड़ लेगा। चलिए, चोर को चोर कहने की आपकी छिछोरी हरकत पर खुदा न खास्ता कोई बुरा मान ही ले तो आपको क्या लगता है वह चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए दौड़ पडेगा ? हरगिज़ नहीं।
    शर्म-लिहाज़ के युग में लोगों के बुरा मानकर चुल्लू भर पानी में डूब मरने का डर हुआ करता था, इसलिए चोर को ‘चोर’ कहने के लिए होली का सुअवसर चुना जाता था और पहले उसे भली-भाँति आगाह करके कि- होली है, बुरा न मानो, हँसी मज़ाक में उसे ‘चोर’ कह लिया जाता था। चोर को ‘डाकू’ कहने की योजना हो तो होली की छूट का लाभ लेकर यह भी कर लिया जाता था। समझदार इंसान इशारा समझकर थोड़ा बहुत बुरा मानकर अपने-आपको सुधार भी लेता था।
    अब ज़माना बदल गया है, साल के किसी भी महीने में किसी भी दिन, किसी भी बहाने से आप चोर को ‘चोर’ कहिये, ठग, जालसाज, घोटालेबाज कहिये वह बुरा मानने से रहा। मजाल है जो उसके कानों पर जूँ भी रेंग जाए। अलबत्ता मुझे लगता है कि आज के इस युग में किसी को यदि आप ‘ईमानदार’ कहने की गलती कर बैठे तो वह बीच बाज़ार में हाथ में चप्पल लेकर आपको मारने दौड पड़े।
    सच तो यह है कि आजकल कोई किसी पर कीचड़ उड़ाए या खून की होली ही क्यों न खेले कोई बुरा नहीं मानता।

रविवार, 13 मार्च 2011

अनाड़ी खिलाड़ी


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//       
पत्रिका में
          हमने ज़िन्दगी में कभी क्रिकेट का बल्ला नहीं पकड़ा, मगर समुद्र की उद्दाम लहरों पर हाथ-पाँव मार रहे अनाड़ी तैराकों की तरह विश्वकप में, उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हमारे महारथियों की टीम इन्डिया को देखकर लगता है कि हमारे भी हाथ-पैरों में गद्दे बाँधकर, खोपड़ी पर शिरस्त्राण चढ़ाकर मैदान में छोड़ दिया जाए तो हम भी एक गैर पेशेवर अनाड़ी की सभी खूबियों के साथ कुछ न कुछ कमा ही लाएँगे। यह बात हम इतने भरोसे से इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जब खेल क्रिकेट का हो तब हर खिलाड़ी के साथ भगवान का आशीर्वाद ज़रूर रहता है, इसलिए नास्तिक होने के बावजूद जैसे ही हम टीम इन्डिया के सदस्य बनकर मैदान में उतरेंगे, भगवानहमारे साथ आ खड़ा होगा, और बाकी जो कुछ भी करना है वही करेगा।
          विश्वकप की भारतीय टीम के साथ ऐसा ही है। हमारे खिलाड़ी भगवान के शहस्त्रों आशीर्वादों के साथ टीम में है। जिसे रन बनाने के लिए रखा गया है भले ही वह रन न बनाए मगर वह टीम में अवश्य रहेगा, जिसे विकिट लेने के लिए रखा गया है वह विकिट नहीं लेगा परन्तु टीम में रहेगा। क्या पता जो रन बनाने के लिए रखा गया है वह धड़ाधड़ विकिट लेने लगे या जिसे विकिट लेना है वह रन बनाने की मशीन साबित हो जाए! कुछ भी हो सकता है, क्योंकि भगवान उनके साथ है।
जागरण में
          बल्लेबाज़ों से जब उम्मीद की जाती है कि वे ज्यादा से ज्यादा क्रीज़ पर बने रहें तो वे धड़ाधड़ आउट होकर पवेलियन में बने रहते हैं। गेंदबाज़ों से जब उम्मीद रहती है कि वे विकिट भले ही न लें परन्तु रन रोककर रखें, तो वे आपकी आधी बात मानते हुए विकिट तो नहीं लेते पर रनों का ढेर लगवा देते हैं। जब ज़रूरत होती है कि एक-एक दो-दो रनों में विरोधी टीम को बाँधे रखा जाए तो हमारे धुरंधर चौकों-छक्कों की बौछार करवा लेते हैं। कड़ी मेहनत से फील्डरों को चुनकर इसलिए लाया जाता है कि वे बॉलिंग-बैटिंग भले न करें परन्तु उस जगह पर मुस्तैद रहें जहाँ से रन निकलते हैं, परन्तु वह उस जगह के अलावा हर जगह मौजूद मिलता है। जब कैच छोड़ने की अय्याशी के लिए कोई स्थान नहीं होता तब हर फील्डर बड़ी उदारता से कैच छोड़ता है, जैसे उसे इस काम के लिए मैन ऑफ द मैच दिया जाने वाला हो।
          तो बंधु, जब इस तरह भगवान भरोसे ही विश्वकप खेला जाना है तो हम क्या बुरे हैं जो कभी क्रिकेट मैदान में नहीं उतरे। हम भी ज़ीरों पर आउट होने या न्यूनतम रन बनाने की बहादुरी दिखा सकते हैं। हम भी चारों दिशाओं में चौकों-छक्कों की बौछार का नज़ारा दिखवा सकते है, हम भी मैदान में दौड़ती गेंद को बिना छुए मैच समाप्त कर वापस पवेलियन में लौट सकते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा, लोग अनाड़ी कहेंगे! तो जब दिग्गज खिलाड़ियों को अनाड़ी कहा जा रहा है तो ऐसा प्रदर्शन तो हम भी बखूबी कर सकते हैं।

शनिवार, 12 मार्च 2011

बाबा रामदेव और भावी आसन


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
       बाबा रामदेव की पार्टी बड़े जोर-शोर से राजनीति के मंच पर आसनस्थहोने की तैयारियाँ कर रही है। उनका और उनके अनुयाइयों का यह दिवास्वप्न पूरा हुआ तो वे इस जीर्ण-शीर्ण जर्जर राजनैतिक मंच पर किस मुद्रा में आसनस्थ होंगे और किस योग का अभ्यास करेंगे यह कौतुहल का विषय है। अब तक इस मंच पर आसनस्थ सभी राजभोगी जिस मुद्रा में नज़र आते रहे हैं, वह मुद्रा भक्षणमुद्रा कही जाती है और इसके अभ्यास से सार्वजनिक धन का भक्षणसरल-सुलभ होता है, भ्रष्टाचारकी कुन्डलिनी जागृत होती है। और भी कई लोक लुभावन मुद्राएँ वर्तमान राजनीति के मंच पर प्रचलित हैं जिनके अभ्यास से एक कार्पोरेट उद्योग की तरह निजी स्वार्थ-संधान का कार्य किया जाता है। बाबा इस कुकर्म-भूमि पर किस करवट बिराजेंगे देखना है।
       बाबा, राजनीति के भोगियोंके खिलाफ अपने योगियोंको उतारने की तैयारी में जुटे हुए  हैं, खुदा न खास्ता सफल हो गये तो उनके योगियों की लंगोट अपनी जगह पर कितनी मजबूती से कसी रह पाएगी, या भ्रष्टभूमि पर आते ही खुलकर बिखर जाएगी, यह आने वाला समय बतायेगा। लंगोट अगर खुद-ब-खुद न भी खुली तो यहाँ दूसरों की लंगोट खींचने वाले संत बहुतायत में है, बाबा के लिए सावधानमुद्रा लाभदायक रहेगी।
       क्या ही अच्छा हो बाबा देश के अगले प्रधानमंत्री बने और भगवा लंगोट देश की राष्ट्रीय पोशाक बने। रामदेव कट दाढ़ी देश में चल निकले। पूरा देश सुबह चार बजे उठकर शौचादि से निवृत होकर योगाभ्यास, प्राणायाम में लग जाए। बाबा राष्ट्रीय चैनल पर पूरे देश को प्रतिदिन तीन-चार घंटा कपालभाती, अनुलोम-विलोम इत्यादि कराएँ । देश रोटी, कपड़ा, मकान की चिन्ता छोड़कर अपनी सेहत पर ध्यान दें।
       वे प्रधानमंत्री बनें और स्वास्थ मंत्रालय अपने पास रखें। सारे आधुनिक अस्पताल बंद कर दिये जाए, डाक्टरों को जेल में डालकर बाबा खुद देश के सिविल सर्जन बन जाएँ और टी.वी. पर से देश के करोड़ों मरीज़ों का इलाज करें। कोई इंजेक्शन, टैबलेट-कैप्सूल नहीं, कोई पैथालाजी टेस्ट नहीं, कोई आपरेशन नहीं, बस योग और जड़ी-बूटी! देश का पूरा दवा उद्योग बंद होकर घर-घर में जड़ी-बूटियों के कुटाई केन्द्र खुल जाएँ। लोग लौकी का जूस पी-पीकर और एलोवेरा का हलुआ खा-खाकर सेहत बनाएँ। पेप्सी, कोक, हॉटडाँग, पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन पर बंदिश लगाकर जगह-जगह बस दलिया बेचा जाए।
               बाबा की पार्टी सत्ता में आते ही देश-विदेश में जमा काले धन को बाहर निकालने की अपनी मुहीम चालू कर देगी। अभी तक यह पता नहीं चला है कि बाँबी में बैठे इस काले नाग को वे बाहर कैसे निकालेंगे। पुलिस-गुप्तचरों जैसे पारम्परिक सपेरों से तो वह काला नाग बाहर निकलने वाला नहीं, उनको यह काम करना ही होता तो वे सरकार का खजाना भरने के लिए न सही, अपनी जेब भरने के लिए तो उस काले धन को ज़रूर ढूँढ़ निकालते। ऐसे में बाबा का कौन सा आसन देश के गरीबों का भला करेगा जानने के लिए हम चौबीस घंटे आस्था चैनल खोले बैठे हैं, देखें कब बाबा अपने पत्ते खोलते हैं।

सोमवार, 7 मार्च 2011

उखाड़ने में हैं अव्वल हम


//व्यंग्य - प्रमोद ताम्बट//            
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
          उखाड़ने की कला में हम लोगों का जवाब नहीं। जंगल, पेड़, पहाड़, खंबा, सड़क, मकान, दुकान जो चाहे सो हमसे उखड़वा लो, हम उफ नहीं करेंगे। कोई कहे तो गाँव का गाँव, शहर का शहर उखाड़कर धर दें। दो सौ साल तक देश में मज़बूती से जमे अँग्रेजों को भी हमने यूँ ही चुटकियों में उखाड़ फेंका था। उसी ऐतिहासिक परम्परा को निबाहते हुए अभी कुछ ही समय पहले राजस्थान में आन्दोलनकारियों ने रेल की पटरियों को उखाड़ डाला। उखाड़ फेंकने के इस अत्योत्साह में खुद अपनी बिछाई पटरियाँ भी उन्होंने उखाड़ फेंकी हो तो कह नहीं सकते, रेल मंत्रालय को इसकी तस्दीक करनी चाहिए।
          उखाड़ा-उखाड़ी राजनैतिक पार्टियों में खूब चलती है, यही लोकतंत्र की निशानी है। इस पार्टी ने उस पार्टी को उखाड़ फेंका, उस पार्टी ने इस पार्टी को उखाड़ फेंका, लोकतंत्र की स्थापना हो गई। कभी-कभी हालात मुआफिक ना हों तो पार्टियाँ बिना किसी के उखाडे़ खुद-ब-खुद भी उखड़ जाती हैं, और उन्हें इस लोकतांत्रिक हादसे का पता हादसा हो चुकने के बाद चलता है। ऐसा बासठ साल से ही चलता चला आ रहा है, जाने कब तक चलेगा।
          उखाड़ने की क्रिया इतनी पापुलर है कि राजनैतिक पार्टियाँ आमतौर पर कुछ न कुछ गहरा गड़ा हुआ उखाड़ने का वादा करके ही सत्ता पर काबिज़ होती रहीं हैं, मगर पाँच वर्ष बीतने के बाद भी जब कहीं कोई तिनका तक नहीं उखड़ता, तो नौबत जनता के द्वारा उसका तंबू उखाड़ फेंकने तक आ पहुँचती है। कुछ पार्टियाँ आजीवन उखाड़ने की बातें कर जनता की उम्मीदों के ताजिए ठंडे करती रहती है।
          फिलवक्त भ्रष्टाचारको उखाड़ फेंकने का नारा बड़ा पापुलर है- ‘‘भष्टाचार को उखाड़ फेंको’’। दशकों से भ्रष्टाचार की जड़ें जमाने में खाद-पानी लेकर सबसे आगे खड़े राजनैतिक दल और उनके भ्रष्ट नरेश भी बेशर्मी से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने का नारा लगाते हुए नज़र आते हैं, लेकिन चाहता कोई नहीं है कि भ्रष्टाचार उखड़े, क्योंकि अगर देश से भ्रष्टाचारही उखड़ गया तो फिर क्या वे राजनीति में रहकर भूट्टे सेकेंगे!
          बहरहाल, उखाड़ा-उखाड़ी एक किस्म का क्रान्तिकारी किरियाकरमहै, इसलिए हम हमेशा कुछ ना कुछ उखाड़ते रहते हैं स्थापित करने की चिंता करना मूर्खों का काम है।   

गुरुवार, 3 मार्च 2011

‘क्रिकेटोरिया’

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
       दुनिया के कुछ चुनिन्दा मुल्क एक बहुत ही भयानक किस्म के ‘फीवर’ की चपेट में आने वाले हैं। सबसे सनसनीखेज़ बात यह है कि हम और हमारे कुछ पड़ोसी मुल्कों के लाखों लोगों के इस खतरनाक फीवर की चपेट में आने की ज़बरदस्त संभावना है। वर्षों के शोध और अनुसंधान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हमारी और हमारे अड़ोसी-पड़ोसी मुल्कों की ‘खसलत’ समान होने के कारण यह फीवर हम लोगों के बीच ही ज़्यादा फैलने वाला है। इस मामले का कतई हैरत में न डालने वाला पहलू यह है कि इस फीवर से सुरक्षा और बचाव का हमारी संप्रभु सरकार के पास क़तई कोई इंतज़ाम नहीं है। हमारे स्वास्थ्य विभाग को तो इसके फैलने का न तो ज़रा भी अंदेशा है और न ही उन्हें इसकी रोकथाम का इन्तज़ाम करने की कोई फिक्र है।
    खरामा-खरामा इस फीवर के बढ़ते जाने के प्रबल संकेत मिलने लगे हैं और आने वाले हफ्तों में यह ग्यारह-ग्यारह लोगों के दो-दो समूहों के चौदह सेटों से प्रारम्भ होकर हज़ारों हंगामाई प्रत्यक्षदर्शियों से होता हुआ, दर्जनों मुल्कों के करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले लेगा और दुनिया भर के अरबों लोगों का जीना हराम कर देगा।
    विगत अनुभवों से कहा जा सकता है कि इस फीवर के प्रारम्भ होते ही इंसान धीरे-धीरे अपनी सुध-बुध खोने लगता है। घर में कोई आए-जाए, दुनिया-जहान में कहीं भी कुछ चल रहा हो, मरीज़ उससे कोई मतलब नहीं रखता। यहाँ तक कि खाना-पीना, नहाना-धोना, स्कूल-कॉलेज-दफ्तर की ज़िम्मेदारियाँ, काम-काज तक भूल जाता है और दिन-रात बस टेलीविज़न की ओर टकटकी लगाए बैठा पापकॉर्न या चना-चबैना, जो मिल जाए चबाता रहता है। ।
    फीवरों के इतिहासकार इस फीवर की शुरुआत गौरांगप्रभुओं के देश ‘बरतानिया’ से मानते हैं। इस दुष्ट हुकूमत ने दुनिया के कई मुल्कों को अपना गुलाम बनाने के साथ ही इस फीवर के संक्रमण को षड़यंत्रपूर्वक काले मुल्कों में फैलाया ताकि गुलाम काली जनता इस फीवर से कभी उबर ही न सके। गुलामी की समाप्ति और प्रजातंत्र की स्थापना के साथ ही हमने और हमारे पड़ोसियों ने शिद्दत से इस फीवर को अपने गली-मुहल्लों, गाँव-खेड़ों, खेतों-पगडंडियों, मेलों-ठेलों, भीड़-भाड़ वाले बाज़ारों, यहाँ तक कि सूखे नदी-तालाबों, पोखरों तक पहुँचा दिया, जहाँ नौजवान लोग आज भी बेशरम के तीन डंडे गाड़कर उसके समक्ष हाथ में कोई भी मोगरीनुमा चपटी लकड़ी लेकर, किसी भी गोल वस्तु को पीटने को उद्धत दिखाई देते हैं, और फालतू लोग इस उत्तेजक क्रिया को घंटों तन्मयता से खड़े निहारते, और बात-बात में तालियाँ पीटते नज़र आते रहते हैं।
    इस फीवर के जीवाणु इतने ताकतवर हैं कि दूसरे किसी फीवर के जीवाणुओं को इंसान के भीतर पनपने ही नहीं देते, वे यहाँ-वहाँ उपेक्षित से पड़े रहते हैं। ‘क्रिकेटोरिया’ नाम के इस फीवर के जीवाणुओं पर अगर जल्दी से जल्दी काबू नहीं पाया गया तो इनसे भारी तबाही मचने का अंदेशा है। इसलिए, समय रहते आगाह कर रहा हूँ कि इस खतरनाक फीवर के आसन्न खतरे से तत्काल युद्धस्तर पर निपटना ज़रूरी है।