शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

ढाक के वही रहेंगे-तीन पात

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
बात निकली है तो फिर अब दूर तलक चली ही जाना चाहिये। मैं भ्रष्टाचार की बात कर रहा हूँ। जाहिर है जब देश में इसके अलावा दूसरी कोई बात चल ही नहीं रही है तो मैं भी उसी की बात करूँगा।
भ्रष्टाचार का ऐसा है कि वह हमारी रग-रग में बसा हुआ है, संस्कृति की तरह। किसी की भी रग काट कर देख लो, खून नहीं, भ्रष्टाचार बहेगा। कभी संस्कृति बहती हुई निकलेगी और उसके पीछे भ्रष्टाचार निकलने लगेगा, कभी भ्रष्टाचार निकलेगा, उसके पीछे मुस्कुराती हुई संस्कृति निकल पड़ेगी। कभी-कभी दोनों एक साथ बहकर निकल पड़ेंगे। कुछ लोग हँसें या मुस्कुराएँ तो फूल नहीं भ्रष्टाचार झड़ने लगता है, दो-चार ट्रक तो समझलो कम पड़ जाएँ यदि उसे बटोरा जाए। मार्निंग-ईवनिंग वॉक पर निकलने वालों के शरीर से जो बदबूदार पदार्थ निकलता है वह पसीना नहीं भ्रष्टाचार  होता है, जो चर्बी के रज़ाई-गद्दों के रूप में थुलथुल शरीरों में बैठा रहता है। कुछ लोगों के चेहरों पर गज़ब की दिपदिपाती चमक दिखाई देती है, मगर वह चमक-वमक नहीं शुद्ध भ्रष्टाचार होता है, जो पाँच सौ वॉट के बल्ब सी रोशनी देता है।
कहा जाता है कि तालाचोर के लिए नहीं बल्कि शरीफों के लिए बनाया गया है। तिजोरी खुली देखकर शरीफ आदमी की नीयत न डोल जाए, इसलिए। ज़ाहिर है देश में संस्कृति की महानता के बावजूद ईमान की कोई गारंटी नहीं है, खुला ताला देखकर कभी भी डगमगा सकता है, भीतर फिर चाहे धन-दौलत हो या अकेली स्त्री। सड़क पर किसी का बटुआ गिर भर पड़े, पीछे आ रहे शरीफ सुसंस्कृत आदमी का ईमान चट से डोल जाता है, वह बटुआ अपनी जेब में डाल गरदन दूसरी दिशा में घुमाकर चलता बनता है।
दूसरों का माल हज़म करने में हम आगे, सौ-पचास रुपये से लेकर जमीन-जायदाद, घर-मकान तक कुछ भी हज़म कर जाएँ। दूसरों को चूना लगाने में हम माहिर। बस चले तो सड़क चलती मैयत का कफन खीचकर बेच खाएँ। इंसानों को पत्थर-मिट्टी से लेकर घोड़े की लीद तक खिला देने वाले भ्रष्ट-आचरण वाले पापियों की आत्मा जब, बेबीफूड तक में मिलावट करते नहीं कॉपती तो फिर लोकपाल बने या त्रिलोकपाल होगा क्या? ढाक के वही रहेंगे-तीन पात।

बुधवार, 24 अगस्त 2011

आने वाला समय कुत्तों का है

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
           हमारे इर्द-गिर्द इन दिनों बेशुमार कुत्तेहो गए हैं। कोई इंसान अपने-आप से कुत्ते की तुलना कर बुरा न मान बैठे तो कहा जा सकता है कि हमारा समाज आजकल कुत्तोंके प्रकोप से पीड़ित है। मनुष्यों के बैठने की हर संभव जगह पर कुत्ते बैठे हुए हैं। इसका हरगिज़ यह अर्थ ना लगाया जाए कि बैठने की हर सम्मानित जगह पर बैठी हर मानवीय आकृति कुत्ता है। मगर सच तो यह है कि अगर यही हाल रहा तो दिन दूनी रात चैगुनी गति से बढ़ते जा रहे, ये आवारा कुत्ते जो आजकल सभी जगहों पर अतिक्रमण कर अड्डेबाजी करते नज़र आते हैं, एक ना एक दिन जबरदस्ती लोगों के घरों में घुसकर सोफों, बिस्तरों, टेबल-कुर्सियों पर आसन जमाए हुए मिलेंगे, जैसे किन्ही-किन्ही रईसों के घर के बिगडैल पालतू कुत्ते इन्सानी सुविधाओं का पूरी स्वतंत्रता के साथ उपभोग करते हुए दिखाई देते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, गज़ब तब हो जाएगा जब इन कुत्तों के झुँड सार्वजनिक संस्थानों, सरकारी दफ्तरों, सचिवालयों, मंत्रालयों तक में घुस पडेंगे व आधिकारिक कुर्सियों पर कब्ज़ा जमाए नज़र आने लगेंगे। और तो और इन्सान की कमज़ोर इच्छा शक्ति का फायदा उठाकर सीधे विधानमंडलों, विधानसभाओं, लोकसभा तक में भी काबिज़ हो जाएँ तो मुझे इसमें कोई बड़ी बात नज़र नहीं आती।
          कभी छटे-छमाहे आप बाग-बगीचे में तफरीह के लिए जाओ, नदियों-ताल-तलैयों, समुन्दर किनारे सैर-सपाटे के लिए निकलो, पहाड़ पर सेहत बनाने के इरादे से पहुँचों और थक जाने पर पृष्ठ भाग कहींे रखकर थोड़ा सुस्ताने की सोचो तो मजाल है जो आपको अपना इरादा पूरा करने में सफलता मिल जाए। बैठने लायक उपलब्ध हर जगह पर आपसे पहले कमबख्त कुत्ते जमें हुए मिलेंगे, आप मुँह टापते रह जाओगे। कुत्ते नहीं तो फिर उनकी फैलाई गंदगी के अवशेष अवश्य मिलेंगे ताकि आप उस जगह का इस्तेमाल बैठने के लिए न कर सको।
          मैंने एक दिन चलते-फिरते, सड़क पर बेफिक्री से पसरे एक बूढे़ कुत्ते से इसकी कैफियत पूछी, तो वह अपने आसपास डले आठ-दस सड़ियल कुत्तों की ओर नज़र घुमाता हुआ बोला - तो क्या करें ! फाँसी लगा लें ! पैदा हुए हैं तो कुछ तो करेंगे। तुम तो ले जाओगे नहीं हमें अपने घर, तो फिर जहाँ जगह मिलेगी वहीं न कब्ज़ा जमाएँगे !
मैंने कहा    -     भई ऐसे तो आप लोगों के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। इतनी तादात में पैदा होते रहोगे तो ना रहने की जुगाड़ हो पाएगी ना खाने की।
कुत्ता बोला   -     छीना-झपट्टी करेंगे और क्या, जैसे तुम लोग करते हो। लोगों के घरों में घुसकर किचन पर हमला करेंगे। तवे पर से रोटी लेकर भागेंगे! मगर तुम्हारी तरह भीख नहीं माँगेंगे, अपनी फितरत में भीख माँगना है ही नहीं बाबू।
मैंने कहा    -     तमीज़ से बात करों, मैं तुम्हें भिकारी नज़र आ रहा हूँ।
कुत्ता बोला   -     अरे तुम नहीं तो तुम्हारे भाई-बंदे, सैंकड़ों नज़र आते हैं भीख माँगते हुए। चौक-चौराहों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक सभी जगह हाथ फैलकर माँगते    हुए नज़र आते हो तुम लोग ! हमें देखा है कभी ?
मैंने कहा    -     फालतू बात मत करों, लोग डंडे लगाएँगे तो अकल ठिकाने आ जाएगी तुम्हारी ?
कुत्ता बोला   -     अरे हौ, लगा लिए डंडे। आदमियों में क्या कम हैं कुत्ते, एक ढूँढ़ो हज़ार मिलते हैं। कितनों को डंडे लगा लिए तुम लोगो ने ? इंसानों की कुत्तागिरी से तो निपट पाते नहीं तुम लोग, हम पर क्या डंडा चलाओगे !
मैंने कहा    -     अपनी तुलना हमसे मत करो, कुत्ते हो, कुत्ते की तरह अपनी औकात में रहो।
     इस पर वह कृषकाय बूढा कुत्ता तुरंत दाँत भींचकर मुझ पर गुर्राने लगा। उसके इस आक्रामक मुद्रा में आते ही आसपास बैठे सभी कुत्ते उसके समर्थन में सावधान की मुद्रा में खडे़ होकर मुझे कटखनी निगाहों से घूरने लगे। मैंने पुचकारने, सीटी बजाने के पुराने उपायों से उन्हें शांत करने का भरसक प्रयास किया, मानते ना दीखने पर इसी मौके के लिए कंधे पर टंगे झोले में रखी बाँसी रोटी उनके सामने डालने का बहुउपयोगी उपाय आज़माकर उन्हें शांत किया। फिर धीरे से उस बूढे़ कुत्ते पर सवाल दागा - वैसे बाय द वे, एक सीज़न में कित्ते पैदा कर लेते हो ?
वह बोला    -     कहाँ बाबा, अब कहाँ दम रह गई। इन पट्ठों की बात अलग है, सीज़न भर में बीस-तीस एक-एक पैदा करता है। फिर वे भी जल्दी-जल्दी बड़े होकर काम में लग जाते हैं। प्रायवेट बैंकों के चक्रवर्ती ब्याज की तरह बढ़ते ही चले जाते है।
मैने कहा    -     भाई, स्थिति विस्फोटक है। जनसंख्या से इंसान ही परेशान है तुम और टुल्लर पर टुल्लर पैदा करोगे तो कैसे चलेगा भाई ?
वह बोला    -     ज़बान सम्हाल कर बोलो, भाई बोल रहे हो मुझे!
मैंंने कहा   -     तुम लोग इंसानों का जीना हराम करते जा रहे हो।
वह बोला    -     इसमें हमारी क्या गलती है ? तुम्ही लोग पशुप्रेम-पशुप्रेम का राग अलापते हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हो। फालतू का नाटक साला। जंगलों में लोग जानवरों का शिकार कर-करके खा रहे हैं, वहाँ क्यों नहीं दिखाते पशुप्रेम? एई........, रोज़ाना देश में करोड़ों मुर्गा-मुर्गी और लाखों बकरे तुम लोग चट कर जाते हो वहाँ दिखाओं जाकर अपना पशुप्रेम! हम पर दिखाओगे तो यही हाल होगा।
मैंने कहा    -     मगर इस कदर आबादी बढ़ाते चले जाओगे भैया तो हम कहाँ जाएँगे ?
कुत्ता बोला   -     तो करवाओ ना हमारी नसबंदी, किस ने मना किया है ?
मैंने कहा    -     हम अपना टार्गेट तो पूरा करवा नहीं पाते, तुम्हारी और कहाँ से करवाते फिरें।
कुत्ता बोला   -     तो फिर भुगतो। हमारे पास तो एक ही काम है, हम तो करेंगे। तुममें दम हो तो तुम रोक लो।
मैंने कहा    -     पालतूपन, वफादारी, लाड़-प्यार-दुलार, दोस्ती, सब कुछ भूल गए एहसान फरामोश। हमने जबरन तुम्हारी इन बड़ी-बड़ी क्वालिटियों पर निबंध लिख-लिखकर बच्चों को रटवाए, मगर तुम लोग अब बिल्कुल पहले जैसे नहीं रहे।
वह बोला    -     बासी सूखी रोटियाँ और चुसी-चुसाई हड्डियाँ खिला-खिलाकर हमसे दूसरों पर भुकवाते हो तुम लोग, फ्री-फंड में चैकीदारी करवाते हो, अब हम बहुसंख्यक     होने लग पड़े हैं तो यहाँ खड़े पूँछ हिला रहे हो।
मैं बोला     -     क्यों, अपनी खुराक से ज़्यादा तुम्हें खिलाते-पिलाते हैं, ठंड में मोटे-मोटे स्वेटर पहनाते हैं, सोने के लिए नर्म-मुलायम गद्दे लगाते हैं ऊपर से तकिये की भी व्यवस्था करते हैं हम, तुम कुत्तों के लिए, भूल गए ?
वह बोला    -     अपने लैड़ू कुत्तों की बात मत करो। अरे हम तो आवारा सड़क पर पड़े हैं, कौन पूछता है हमें। अब जागरूक होकर हम अपनी तादात बढ़ा रहे हैं, आतंक फेला रहे हैं तो तुम्हारी फूँक सरक रही है।
मैंने कहा    -     ये मत भूलो, हम लोगों के बासी बचे-खुचे पर ज़िन्दा हो तुम लोग।
वह बोला    -     फालतू बातें मत करो, तुम्ही लोग कहते हो ना, कि बासी बचे ना कुत्ते खाएँ ? गिन-गिन के रोटी बनाते हो, बासी बचता भी है कुछ तुम्हारे घर में ?
मैंने कहा    -     इसीलिए ना, कभी सुअर का बच्चा पकड़कर खा जाते हो, कभी बकरी का।
कुत्ता बोला   -     धीरे-धीरे तुम्हारे बच्चे भी पकड़ने लगेंगे, कर लो क्या करते हो।
मैने कहा    -     तुम्हारा यह स्टेटमेंट हद दर्ज़े का खतरनाक है, मैं पीटा वालों से शिकायत करूँगा।
कुत्ता बोला   -     करो करो, पीटा वाले तुम्हें ही पीट-पीटकर न भगा दें तो मेरा नाम कुत्ता नहीं। उनका मिशन जानवरोंकी सुरक्षा है इंसानोंकी सुरक्षा नहीं, समझे। अपनी भद पिटवानी हो तो ज़रूर जाओ पीटा वालों के पास।
मैंने कहा    -     बेटा, बहुत उड़ रहे हो, अभी मुन्सीपाल्टी को फोन करके पिंजरा मँगवाता हूँ......
कुत्ता बोला   -     हाँ हाँ, मँगवाओं, और खुद बैठ जाना पिंजरे में, अच्छे लगोगे ?
मैंने कहा    -     तुम सबको पकड़कर बधिया न करवाया तो कहना बेटा.........!
कुत्ता बोला   -     वरुण की मम्मी का नाम सुना है कभी.......? तुम्हारे बाप में भी दम नहीं है पिंजरा लगवाने की, बधिया करवाना तो बहुत दूर की बात है। चल भाग यहाँ से......मुझे बेटा कह रहा है! अबे बाप हूँ मैं तेरा..........
     और उस बूढे कुत्ते की इस दुत्कार को सुनते ही आसपास जमा सारे कुत्ते मुझे निशाना बनाकर समवेत स्वर में भौंकने लगे। एक की नज़र जैसे ही मेरी पतलून की ओर गई मैंने अपना पाँव सर पर रखा और भाग खड़ा हुआ, दूर से कुत्ते के चरण स्पर्श करता हुआ बोला - हौ मेरे बाप माफ कर दे मुझे।
     कभी आदमी की एक हुश से टाँगों के बीच पूँछ घुसेड़कर कॉई-कॉई चीखते भाग खड़े होने वाले ये कुत्ते इन दिनों ग़जब के हौसलाकुन हो गए हैं, इंसान की ज़ात को कुछ समझ ही नहीं रहे। हम अपने-आप को बचाने के लिए और कुछ तो कर नहीं सकते बेहतर है कि सचमुच उन्हें अपना बाप मान लें और सुबह-शाम उनके सामने कोर्निश करें, शीश नवाएँं। सच है, प्रजातंत्र में मेजॉरिटी जिसकी होती है राज उसी का चलता है। कुत्ते आजकल अंधाधुध मेजॉरिटी बढ़ाते चले जा रहे हैं, आने वाला समय कुत्तों का है।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

दूसरी आज़ादी की अंगड़ाई


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
            जिल्लेसुभानी, शहंशाह अकबर का इक़बालअंतिम समय तक इसलिए बुलन्द रहा क्योंकि उनके सारे सलाहकार-नौरत्न बड़े दूरअंदेश और समझदार किस्म के लोग हुआ करते थे। इतिहास बताता है कि उनकी अचूक सलाहों की वजह से जिल्लेसुभानी के सामने कभी थूक कर चाटने की स्थिति नहीं बनी और ना ही उनकी सल्तनत पर किसी बड़बोले सलाहकार की वजह से कोई मुसीबत आयद हुई। मगर बादशाही के इतिहास में कई ऐसे टुच्चे किस्म के सलाहकार होने के सबूत भी मौजूद हैं जिन्होंने अपने बादशाह सलामत को उल्टी-सीधी सलाह दे-देकर उनकी बादशाहत का बेड़ा ग़र्क करवा दिया।
            आधुनिक युग की सत्ताओं में भी कई सत्ताधीशों को उल्लू के पट्ठे सलाहकारों की वजह से अपनी खटिया खड़ी और बिस्तर गोल करवाना पड़ा। इमरजेंसी के दौरान कुछ सलाहकारों की एक चांडाल-चैकड़ी ने ऐसी धमाचैकड़ी मचाई कि देश का पहला अनुशासन पर्व, कुशासन पर्व बनकर रह गया और कड़ी मेहनत, दूरदृष्टि, पक्का इरादा आदि-आदि प्रातः स्मरणीय सूत्र वाक्य लोकतंत्र की आँधी में सूखे पत्तों की तरह उड़ गये। हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे थे मगर जनता की ज़ालिम ताकत द्वारा जबरदस्ती बीच में ही रोक दिये गये।
            सलाहकार फिर सक्रिय है और जिल्लेसुभानी को दे-दनादन उल्टी-सीधी सलाहें दिये चले जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि उन्हें जिल्लेसुभानी का मुँह बंद कर शांति से तख्ते-ताऊस पर बैठना अच्छा नहीं लग रहा। जिल्लेसुभानी का थोड़ा बहुत भी इकबालजो इधर-उधर बुलन्द पड़ा हुआ दिखाई दे रहा है, वह उतावले सलाहकारों को बर्दाश्त नहीं हो रहा। हो सकता है किसी और को तख्तनशीन देखने की जल्दी में वे जिल्लेसुभानी का जल्द से जल्द बंटाधार कर देने पर तुले हुए हों।
कोई सलाहकार यदि बादशाह सलामत को बर्र के छत्ते में हाथ डालने की सलाह दे, या बादशाह सलामत को खामोश दूसरी ओर मुँह किये बैठा देख सलाहकार खुद ही छत्ते में पत्थर मार दे तो बताइये भला क्या हो।
देश दूसरे राष्ट्रपिताके नेतृत्व में दूसरी आजादीकी लड़ाई के लिए अंगड़ाइयाँ लेने की कोशिश कर रहा है, सलाहकार लोग उन्हें यह दुष्कृत्य करने नहीं देना चाहते। क्योंकि अगर देश को दूसरी आज़ादी मिल गई तो फिर पहली आज़ादी के मजे लूटने वाले कहाँ जाएँगे?

रविवार, 14 अगस्त 2011

आज़ादी का झुनझुना


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जैसे हमेशा आता-जाता है, स्वतंत्रता दिवस फिर आ गया। यही वह दिन है जब अँग्रेज़ हमें आज़ा़दी का झुनझुना पकड़ा कर अपने घर भाग गए थे। इस झुनझुने की झुन-झुन सुनते-सुनते चौसठ साल बीत गये, उसके अन्दर पड़ी कंकड़ी घिस-घिसकर खत्म हो चुकी, अब झुनझुने में से कोई आवाज़ नहीं आती।
अँग्रेज़ क्यों हमें इतनी बड़ी दुनिया में अकेला छोड़कर भाग गये इस संबंध में कई धारणाएँ प्रचलित हैं। एक धारणा है कि भारतीयों को अँग्रेज़ी सिखाना उन्हें भारी पड़ रहा था, उन्हें सिखाते-सिखाते अँग्रेज़ी की ही खटियाखड़ी होती जा रही थी। इसलिए, अपनी भाषा बचाने की गरज से सारे अँग्रेज़ भारत से भाग निकले।
एक धारणा यह है कि अँग्रेज़ गाँधीजी की लाठी से डरकर भागे थे, और इसी के समानान्तर एक मत यह भी है कि वे गाँधीजी के सत्यऔर अंहिसाके सिद्धांत से घबराकर भागे। उनका सोचना था कि लाठीऔर अहिंसाके विरोधाभासी संबंध के बारे में गाँधीजी सत्यका प्रकटीकरण नहीं कर रहे थे। उनके सिद्धांतकारों में यह आम राय बन चुकी थी कि गाँधीजी दिखाने भर के लिये अहिंसा-अहिंसा का राग आलापते हैं, दरअसल उनके इरादे नेक नहीं हैं, एक न एक दिन अवश्य ही पूरा देश अँग्रेज़ों पर लठलेकर पिल पड़ेगा। पिटने के डर से कौन बड़ा से बड़ा गुंडा जान बचाकर नहीं भागता ?अँग्रेज़ भी भाग गये।
एक मत यह है कि अँग्रेज़ों को आभास हो चुका था कि आगामी राजनैतिक परिस्थितियाँ अपने बाप से नहीं सम्हलने वाली और देश में तेज़ी से फैलती जा रही विकट प्रजातांत्रिक चेतना का मुकाबला उनकी गोरी फौज से नहीं हो सकेगा। जनता से तो फिर भी वे लाठी-गोली की मदद से निपट लेंगे मगर सौ दो सौ राजनैतिक पार्टियों का मुकाबला आखिर वे क्या खाकर करेंगे।
अँग्रेज़ दूरदृष्टि सम्पन्न तो थे ही, सन सैतालिस में ही उन्हें पता चल गया था कि भविष्य में भारत, लालू-राबड़ी, मोदियों-ठाकरों और, राजाओं, कलमाड़ियों, कनिमोझियों, रेड्डियों-येदीयुरप्पाओं का देश बनने जा रहा है। इसीलिए उन्होंने फालतू झँझट में न पड़कर आज़ादी का झुनझुना भारत की जनता को सौंप अपने मुल्क की और कूच कर दिया। हम चौसठ वर्षों से निरन्तर यह बेआवाज़ झुनझुना बजाए जा रहे हैं।

सोमवार, 8 अगस्त 2011

भारत रत्न


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
सचिन तेंदुलकर और मेजर ध्यानचंद को भारत रत्नदेने की बात क्या चली, एक फिल्मी अभिनेत्री ने अपने पापा को भी आगे कर दिया- बाकी सब तो गधे हैं आप तो मेरे पापा को दो भारत रत्न। फिर एक फिल्मी गायक के साहबजादे भी आगे आए और बोले -मेरे पापा को दो भारत रत्न। इनकी देखा-देखी संभव है और भी पुत्ररत्न अपने-अपने पापाओं के ऊपर चढ़ी धूल की परत झाड़ने लगे हों, ताकि उन रत्नों के लिए भारत रत्नकी माँग की जा सके। कुछ तो जीवन में पहली बार अपने बाप को उलट-पलट कर देख रहे होंगे कि शायद उन्होंने जीवन में कभी थोड़े बहुत हाँथ-पॉव हिलाएँ हों और उनकी इस महत्वपूर्ण उपलब्धि पर भारत रत्न का दावा ठोका जा सके।
अन्य दूसरे क्षेत्रों के पापाओं के बेटे-बेटियों को शायद अभी पता नहीं है कि भारत रत्न सभी क्षेत्रों के लिए होता है। पता होता तो सबसे पहले राजनीतिक क्षेत्र के बेटा-बेटी अपने-अपने पापाओं को लेकर मैदान में कूद पड़ते। वे अपने पापाओं के सामने दूसरे किसी पापा को टिकने ही नहीं देते। कांग्रेसियों का तो शत्-प्रतिशत् पक्का है कि वे निश्चित ही पापाकी जगह बाबाके लिए भारत रत्नकी माँग कर देश के बच्चों के लिए भारत रत्न का रास्ता खोलेंगे। इस कोने से माँग के अस्तित्व में आते ही सारे विपक्षी एक साथ उस कोने पर टूट पड़ेंगे और अपने दर्जनों गुटों के सैंकड़ों नेताओं के लिए भारत रत्न की माँग को लेकर गुलगपाड़ा करेंगें। इस गुलगपाड़े के बीच से हो सकता है एक तीसरा मोर्चा उठ खड़ा हो और उसके सर्व सम्मति से नेता बने नेता को आधे लोग भारत रत्न के लिए आगे की ओर खदेड़ें और आधे उसकी टाँग पकड़कर पीछे की और घसीटें, मजाल है जो बेचारा भारत रत्न ले पाए।
वाम मोर्चें की ओर से भारत रत्न के लिए कोई माँग नहीं आएगी, वे इन्तज़ार करेंगे कि कब टाटा या अन्य कोई मित्र-पूँजीपति उनके पोलिट ब्यूरों के किसी कामरेड का नाम भारत रत्न के लिए प्रस्तावित करें ताकि वे उस पर पोलिट ब्यूरों में गहन विचार विमर्श के बाद इस माँग को अपनी निचली कमेटियों तक पहुँचा सकें, कमेटियाँ रेंक एंड फाइल के बीच इसे ले जाकर आन्दोलन की संभावनाएँ तलाश सकें। अन्त में मामला कलेक्टर को ज्ञापन देकर समाप्त हो जाए।
अपराधों, घपलों-घोटालों के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रतिभाएँ सामने आ रहीं हैं, लग रहा है कि असली भारत रत्न तो वही हैं। कुछ लोग देश को बेचने का काम इतनी कुशलता से कर रहे हैं जैसे उन्हें पहले कई देश बेच खाने का अनुभव हो। इन सबको तो घर-घर जाकर भारत रत्न दिया जाना चाहिये।
साहित्यकारों के लिए कोई बेटा-बेटी या साहित्य मठ भारत रत्न की माँग करता हुआ दिखाई दे जाएँ तो कसम से गोली मार देना मुझे। मगर हाँ, खुदा न खास्ता सरकार ने किसी साहित्यकार को इस काबिल मान लिया तो साहित्य-वाहित्य को ताक पर रखकर उसकी टाँग खीचने वाले अनेक मिल जाएँगे।

शनिवार, 6 अगस्त 2011

पानी रे पानी


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
 गर्मी भर पानी पानी पानी का राग अलाप-अलाप कर पागल हुए चले जा रहे थे, लो अब कितना पानी चाहिये। पानी हमारे लिए संघर्ष का स्थाई मुद्दा है, ना हो तब भी और हो तब भी। ना हो तब भी हम किसी विशेषज्ञ की तरह आसमान को निहारते हुए, एक-दूसरे से पूछते हैं कि कब बरसेगा, कब बरसेगा, और हो तब भी आसमान की ओर मुंडी उठा-उठा कर अनन्त की ओर घूरते और भगवान को कोसते रहते हैं कि आखिर कब तक बरसेगा कमबख्त। साल भर से नहीं था तब भी हम बदहवास से बाल्टियाँ लेकर दौड़ते फिरते थे, अब है तब भी हम हैरान-परेशान, पानी के डर से यहाँ-वहाँ भागते फिर रहे हैं, कम्बख्त घर में घुसा चला आ रहा है। घर में जमा पानी को बाल्टियों से उलीच-उलीच कर बेदम हो रहे हैं। किसी भी दिशा के खिड़की दरवाज़े खोलो, पानी मेहरबान नज़र आ रहा है। गर्मी भर तरस गए कि कहीं चुल्लू भर पानी फालतू मिल जाए तो नहाँ लें, अब तो नहाने लायक पानी घर के अन्दर ही जगह-जगह छत से टपक रहा है, वह भी इस गति से मानो छत में नल लगे हों। चाहो तो शॉवर का आनंद ले लो या स्वीमिंग पूल का।
इसी से जुड़ा हुआ एक स्थाई मुद्दा और है, सड़कें उखड़ गई साहब........, गढ्ढे पड़ गए, चलना मुश्किल है। पानी के लिए भगवान से प्रार्थनाएँ करते वक्त नहीं सोचा था कि सड़क का कोई देवता हो तो उसे भी लगे हाथों प्रसन्न करते चलें। तब सोचना था कि अगर पानी सचमुच आ गया तो सड़कों का क्या होगा। चलो माँगा तो माँगा, ढंग से तो माँगते। पानी के साथ-साथ नाले-नालियों की सफाई की भी माँग करते, पानी की निकासी की उचित व्यवस्था की माँग रखते, लाइफ जैकेटों, बोटों, नावों, डोंगियों इत्यादि की माँग करते, बाकायदा पूरा विस्तृत मेमोरेंडम तैयार करते, आपदा प्रबंधन का पूरा तामझाम माँगते......... खाली पानी माँगकर रह गए, अब भुगतो।
चारों ओर हरियाली की चादर बिछ गई है। यह बात अलग है कि इस हरियाली की चादर में जगह-जगह झाड़-झंकाड़, कूड़ा करकट, पॉलीथिन की थैलियाँ, चिंदे-चिंदियाँ और अस्पताल से बहकर आईं पट्टियों की बाँकी छटा मौजूद है। गटरें अपने सम्पूर्ण माल-असबाब के साथ खूले आम सड़कों पर घूमने निकल पड़ी हैं। सारे जानवर दुबके बैठे है मगर शूकर महाराज अपने पूरे उत्साह के साथ थूथन उठा-उठा कर बारिश का आनंद लेते हुए दावत उड़ा रहे हैं।
अभी महीने भर पहले ही सूनी आँखें और प्यासे कंठ लिए पानी के लिए आसमान ताकते हम अकिंचन अब घर में घुसे चले आ रहे बारिश के पानी और शहर भर की गंदगी से निजात पाने के लिए अब फिर आसमान ताक रहे हैं। आप सब से भी गुज़ारिश है कि समय निकालकर आप भी अपना-अपना आसमान ताकें, ताकि प्यासे मरने से बचे हुए हम गंदे पानी की बाढ़ और बीमारियों से ना मर जाएँ।

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

अपने आप को स्लट मत कहो

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्‍स लखनऊ में 
अँग्रेजी ना आवे तो कितनी प्रॉबलम हो जाती है। बहुत दिनों से सुन रहे थे, ‘स्लट-वॉक-स्लट-वॉक’, कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्लट-वॉकआखिर है क्या बला। दो-तीन पढ़े-लिखों से पूछा तो वे भी निरीह भाव से हमारा ही मुँह ताकने लगे। आखिरकार जब हमने डिक्शनरी खोलकर देखी तो हमारे तो होश ही उड़ चले और दिल्ली में उस ज़गह जा गिरे जहाँ स्लट-वॉक होने वाला था। दरअसल, डिक्शनरी में स्लटका अर्थ लिखा था कुलटा। कुलटा से न समझ में आए तो समझाया गया था फूहड़ औरत’, फिर भी अगर किसी बेवकूफ को न पल्ले पड़े तो स्पष्ट किया गया था कि स्लटका अर्थ वैश्याहोता है।
मैं काफी समय तक होश में नही रहा और दिल्ली में ही कहीं पड़ा हुआ सोचता रहा कि आखिर क्यों समाज की कुछ संभ्रांत महिलाएँ अपने ऊपर कुलटा’, ‘फूहड़ औरतऔर वैश्याआदि शब्दों के तमगे लगाकर वॉककरने पर आ तुली! वॉककरने का इतना ही शौक था तो करतीं, खूब करतीं, मार्निंग वॉक करतीं, इवनिंग वॉक करतीं, नून वॉक करतीं, चाहें तो कैट वॉक भी कर लेतीं, लेकिन कम से कम स्लट-वॉकका पश्चिम लिखित-निर्देशित नाटक तो ना ही करतीं, क्योंकि अपने यहाँ तो लोगों को फोकट की नाटक-नौटंकी देखने का भारी शौक है, असर किसी पर धेले का होने का नहीं, सब के सब फोकट का तमाशा देख बेशर्मी से दाँत निपोरकर अपने-अपने घर चल देंगे।
यह ठीक है कि कुछ लफंगों और लम्पट पुरुषों को अपनी बेहया आँखों से हर वक्त महिलाओं के शरीर का एक्सरे सा करने की आदत होती है, और इस एक्सरे के लिए उन्हें बस एक अदद औरत की दरकार होती है, चाहे वह किसी भी तबके की हो, चाहे जो कपड़े पहने हुए हो। मिनी-माइक्रो कपड़ों से लेकर घूँघट-बुरखा कुछ भी हो वे इसके भीतर मौजूद जिस्म का काफी गहराई से एक्सरे कर लेते हैं, और बीमार मन को तसल्ली दे लेतें हैं। मगर मर्दों में इस बीमारी को फैलाने के लिए उस बाज़ार के खिलाफ कोई वॉकनहीं किया जाता जिसने हरेक उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए औरत के जिस्म को चौक-चौराहों के होर्डिंगों पर टाँग रखा है, सारी वर्जनाओं को आग में झोंककर फिल्मों, पत्र-पत्रिकाओं और जगह-जगह स्त्रियों के देह की मंडी लगा रखी है। इस मंडी के खिलाफ महिलाएँ पल्लू को कमर में खोसकर मैदान में उतरें तब हमारा कलेजा ठंडा होवे। रोजमर्रा के घरेलू दमन, मारपीट, अपशब्दों की बौछार, जगह-जगह अश्लील नज़रों की मार के खिलाफ उनके वॉक का इंतज़ार गली-गली में सबको हैं, मगर यदि वे अपने-आपको खुद ही स्लटसंबोधित कर वॉकपर निकल पड़े तो पुरुषों के इस बाज़ार पोषित हलकटपने में रत्ती-राई फर्क आने वाला नहीं है। स्त्रियों को इन कुलटा, वैश्या, स्लट जैसे गंदे शब्दों को दुनिया की हर डिक्शनरी से खुरच-खुरच कर निकाल फेंकने की ज़रूरत है, इन्हें माथे पर चिपकाएँ घूमने में कौन सी सूरमाई है।