शनिवार, 28 जनवरी 2012

न राजनीति न बाजनीति

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
आजा़दी के बाद कुछ सालों तक देश को गुरबत से बाहर निकालने के लिए बड़े-बड़े राजनैतिक विचारों की पोटलियाँ पटक-पटक कर लोग चुनाव जीत जाते थे। उसके बाद कुछ सालों तक कभी पंचवर्षीय योजनाओं से देश की तस्वीर पलटने, कभी गरीबी हटाने के नाम पर, कभी समाजवाद के सब्ज़बाग दिखाकर चुनाव जीते जाने लगे। फिर कुछ समय हुआ फीलगुड और चौतरफाविकास की एकतरफाबातें झिला-झिला कर चुनाव जीतने की कोशिशें चलीं। अब इस सब प्रपंच की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। आजकल जो सबसे ज़्यादा जरूरी बात है वह यह कि आपकी पार्टी में कुछेक मुँहफट, बड़बोले, बदतमीज किस्म के लोगों का जमावड़ा हो जो चुनावी मंचों पर, प्रेस कांफ्रेंसों में विरोधी पार्टियों के धाकड़ नेताओं की लू उतार सके, मीडिया और प्रेस को आकर्षित कर बडे़-बड़ों की चुन-चुन कर छीछालेदर कर सके।
मौजूदा नेताओं के सौजन्य से जल्दी ही ऐसा समय आने वाला है जब छुटभैये नेता चुनावी मंचों पर खड़े होकर एक-दूसरे की माँ-बहन से निकट रिश्ते का ऐलान किया करेंगे। सार्वजनिक मंचों से गाली-गलौच और अपशब्दों की ऐसी झड़ी लगेगी मानों चुनाव में हार-जीत इसी बात पर निर्भर हो कि कौन भरपूर निर्लज्जता से खड़ी-खड़ी अश्लील गालियों की बौछार कर सकता है, योग्य उम्मीदवार उसी को माना जाकर चुन लिया जाएगा।
ग्रास रूट लेवल पर भी अब भोले-भाले समाजसेवी किस्म के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का कोई काम नहीं रह गया है जो साफ-सुथरा कुर्ता-पजामा पहनकर, गाँधी टोपी धारण कर वोटरों से माताजी, बहनजी, भाईसाहब और काका, चाचा, मामा का रिश्ता बनाकर ‘‘वोट हमी को देना’’ की विनम्र अपील करते घूमते थे। अब चुनाव जीतने के लिए पार्टी में टपोरी किस्म के कार्यकर्ताओं का रिक्रूटमेंट ज़्यादा ज़रूरी है जो धौंस-दपट से वोटों की झड़ी लगा दें।
देश के वोटर भी आनंद ले रहे हैं। नौंटकी में जिस तरह भाँड दर्शकों को हँसाता है, फिल्मों, टी.व्ही. सीरियलों में जिस तरह फूहड हास्य कलाकार कमर मटकाकर लोगों का मनोरंजन करता है और जिस तरह सर्कस का जोकर तमाशबीनों को हँसा-हँसा कर लोट-पोट कर देता है, उसी तरह आजकल वोटर नेताओं की तू-तू मैं-मैं से, खुश हो-हो कर ताली पीटता है। किसी को न राजनीति से मतलब है न बाजनीति से।

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

ढँकना ज़रूरी है!


//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//
उत्तरप्रदेश में हाथी की मूर्तियों को ढॉंकने के लिये कहा गया है। वजह यह है कि हाथी की मूर्ती दिखाकर कोई वोटर को प्रभावित न कर सके। ठीक भी है, हाथी की मूर्तियों को ही क्यों, साक्षात हाथियों को भी कपड़े से ढँकने की ज़रुरत है जो उत्तरप्रदेश के जंगलों, चिड़ियाघरों मैं हैं अथवा साधु-संतो के पास पल रहे हैं। उन्हें देखकर भी तो वोटर हाथी से प्रभावित होकर वोट डाल आ सकता है। सिर्फ हाथी ही क्यों जगह-जगह मौजूद गणेशजी की मूर्तियों को भी चुनाव तक ढँक दिया जाना चाहिये ताकि उन्हें देखकर कोई हाथी को वोट देने के लिए न निकल पड़े।
समाजवादियों ने अपना चुनाव चिन्ह साइकिलही आखिर क्यों रखा! इसलिए क्योंकि साइकिलआम जनता के घर-घर में दो-दो, चार-चार होती हैं और हर वक्त उसकी आँखों के सामने होती है। अब चुनाव के समय समाजवादी साइकिल को सिर पर रख कर घूमेंगे इसलिए इसे भी ढँकना चाहिए। जहाँ कहीं भी साइकिल खड़ी दिखाई दे उसे ढँक दिया जाए तो जनता समाजवादियों के बरगलाने में क़तई नहीं आएगी।
सबसे ज्यादा लाभ तो कांग्रेस को मिलना चाहिये, क्योंकि हर एक व्यक्ति के पास दो-दो पंजे हैं। आदमी न केवल अपने पंजों से प्रेरणा का शिकार हो सकता है बल्कि दूसरों के पंजे भी उसे कांग्रेस को वोट देने के लिए फुसला सकते हैं। इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि छोटी-छोटी कपड़े की थैलियाँ हर व्यक्ति के दोनों पंजों पर चढ़वा दी जाए, तो कांग्रेस कभी भी चुनाव में दूसरों के पंजों का बेजा फायदा नहीं उठा पाएगी।
इधर कीचड़ में जगह-जगह कमलका फूल पाया जाता है, कोई भी इंसान इस कमल को देखकर भाजपाइयों के झाँसे में आ सकता है, इसलिए यू.पी. भर में कमल के फूलों पर एक-एक पॉलीथिन की पन्नी उल्टी डाल दी जाए। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
कई तरह के चुनाव चिन्ह सार्वजनिक जगहों पर पाए जाते हैं। वे सारे ढँक दिए जाएँ तो चुनाव में उन्हें दिखाकर भोले-भाले मतदाताओं को वोट डालने के लिए रिझाया नहीं जा सकेगा। कुछ चीजों को ढँकने में नानी याद आ सकती हैं, मगर चुनाव निष्पक्ष होना बेहद ज़रूरी है, नानी याद आए या नाना।

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

चुनाव उद्यमियों के स्वागत में


व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
उत्तरप्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, महत्वाकांक्षी बंदे कमर कस कर तैयार हैं। माल बनाने का इससे अच्छा मौका दूसरा नहीं। देश भर में फैले भाईकिस्म के यूपीआइड भी अपने छोटे-मोटे काम धंधे बंद कर, मोटी कमाई की आशा में अपनी जन्मभूमि की ओर चल दिए होंगे। मौत-मयैत में भले न जाएँ, मगर चुनाव के समय वे ज़रूर पहुँचेंगे। हर कोई कालेधन की बहती गंगा में हाथ धो लेना चाहता है।
यहाँ भले ही इन्डस्ट्री के भट्टे बैठे हुए हों मगर चुनाव उद्योग ज़ोरों पर चलता है। इस समय पूरा यू.पी. एक विशाल इंडस्ट्रीयल हब में तब्दील हो जाता है और आनन-फानन में यहाँ अरबों-खरबों का कारोबार सम्पन्न हो जाता है। राजनैतिक दलालों की पौ-बारह हो जाती है, गुंडे-बदमाशों के वारे-न्यारे हो जाते हैं, छुटभैयों का भाग्य चमक जाता है। छोटे-मोटे धंधे कर लोग जितना नहीं कमा पाते, ज़रा सा साहस करने से दस-पन्द्रह दिनों में उससे कई गुना ज़्यादा माल कमाया जा सकता है, बशर्ते बंदा चुनाव पूर्व के साहसिक उद्यमों में पर्याप्त पारंगत हों।
चुनाव के दौर में कई महत्वपूर्ण कामकाज होते हैं जो पार्टियों को कुर्सी तक पहुँचाने के लिए आवश्यक होते हैं, ताकि वे दबाकर देश सेवा कर सकें। इन कामों को सुचारु रूप से सम्पन्न करवाने के लिए प्रोफेशनल चुनाव उद्यमियों की जरुरत होती है जो हर चुनाव में अपना काम कर वापस दूसरे प्रदेशों की शोभा बढाने लगते हैं। भाषण तो खैर नामी लेखकों से लिखवाकर नेता लोग खुद ही झाड़ देते हैं, प्रचार-प्रसार, पोस्टर चिपकाना, दीवारें रंगना, पर्चे-पम्पलेट बाँटना इत्यादि काम कमिटेड कार्यकर्ता करते हैं। गाड़ियों पर सवार होकर हुल्लड़बाजी करना, दारू-कंबल, नोट बाँटना, फर्जी वोट डालना-डलवाना, बूथ लूटना, मत पेटियाँ-मशीनें उठाकर भागना, मतदाताओं को डराना-धमकाना, गोली चालन, बमवर्षा, हत्या-अपहरण आदि-आदि विशिष्ट कामों के लिए विशिष्ट उद्यमियों की ज़रूरत होती है।
         चोर-डाकू, लुटेरे, जिलाबदर अपराधियों के लिए चाँदी काटने का यही मौका है, वे अपनी गरिमामय उपस्थिति से एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया पूरी करने में अपना सर्वस्व झौंक देते हैं। जैसे ठंडों में झुंड के झुंुड प्रवासी पक्षी आगमन करते हैं, वैसे ही इन दिनों देशभर से अनुभवी चुनावी लड़ाके यू.पी. की ओर दौड़े चले आ रहे होंगे, आइये उनका स्वागत करें।

शनिवार, 7 जनवरी 2012

हास्‍य कवियों के मुगालते


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//          
एक हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन में घोषणा की जा रही थी, कि हँसानादुनिया का सबसे कठिन काम है। हास्य-व्यंग्यकार फूल कर कुप्पा हुए जा रहे थे-वाह, हम दुनिया का सबसे कठिन काम कर रहे हैं, लोगों को हँसा रहे हैं। मैं दर्शकों को घूर रहा था, और तलाश रहा था एक अदद ऐसे इंसान को जो इस हँसने-हँसाने की महफिल में रोता हुआ आया हो, मगर दूर-दूर तक ऐसा कोई नज़र नहीं आया जो बैठा फफक फफक कर रो रहा हो और इंतज़ार कर रहा हो कि कोई उसे हँसाए। सभी ऑलरेडी हँस रहे थे और मंच की और लालच भरी निगाहों से ताक रहे थे कि कब वहाँ से हास्य रस की सप्लाई हो और वे रसपान करें।
हास्य-व्यंग्यकारों को फालतू की एक गलत-फहमी है कि देश में हँसीकी भारी कमी है। माना कि देश में परिस्थितियाँ बुक्का फाड़कर रोने भर के लिए अनुकूल हैं, परन्तु ऐसा नहीं है कि हँसने-हँसाने का कोई टोटा हो। लोग खूब हँस रहे हैं और ठठाकर हँस रहे हैं। सड़क से लेकर संसद तक जब मज़ाक ही मज़ाक बिखरा हुआ हो तो आदमी हँसेगा नहीं तो क्या मातम करेगा! देश की जनता के कांधे पर क्रांति-व्रांति का कोई फालतू भार तो है नहीं जो उन्हें मुँह लटकाकर फिरना पड़े, तो फिर क्यों नहीं लोग खुलकर खी-खी खूँ-खूँ करेंगे! कवि-व्यंग्यकार लोग जबरन चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हैं कि दुनिया में हँसना बड़ा मुश्किल हो रहा है, और जैसे वे लोगों को हँसा-हँसाकर महान ऐतिहासिक कर्त्‍तव्य पूरा कर रहे हों।
दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र के अपने चुटकुले हैं और अपने मज़ाक हैं। देश में चुनाव हों तो लोगों को हँसी आती है। भ्रष्ट सरकार बने तो लोग खूब हँसते हैं। सरकारें लोग घोटाले करें तो लोग खिखिखिखि करते हैं, मंत्री-अफसर जेल में बंद हों तो ठहाकों से आसमान गूँज उठता है।
      भाई साहब, यहाँ हास्य-व्यंग्य की कोई कमी नहीं, बात-बात पर हँसना लोगों की फितरत है। कमी है तो बस एक चीज़ की, लोगों को शर्म आना बंद हो गई है। किसी को शर्म पैदा करने का हुनर आता हो तो आजमाए, जबरन हँसने वालों को शर्म आए तो शायद बात बने।