सोमवार, 5 मार्च 2012

कीचड़ उछालना एक कला कला है


व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
            एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालना भी क्या खूब कला है, और दिनों-दिन परवान भी चढ़ती जा रही है। जब, जहाँ, जैसे, जितना, जिस क्वालिटी का, जिस किसी पर चाहो कीचड़ उछाल दो और खुद नव्हे-धुले से चुपचाप अपने घर में बैठे रहो। अगला, अपने बदन पर उछला कीचड़ साफ करने की कोशिश में घाट-घाट पर गंगानहाता फिरे, अपन अपने खी-खी करके हँसते रहो।
            कीचड़ उछालने के इस काम के लिए देश में जब, जहाँ, जितना चाहो कीचड़ हर वक्त उपलब्ध है। मनों, टनों, लीटरों, क्विंटलों की क्वांटिटी में बेहतरीन, बदबूदार, लटपटा कीचड़, किसी भी नहा-धोकर बाहर निकले आदमी पर उलीचने के लिए थोक मात्रा में, हर वक्त तैयारशुदा हालत में मिलता है। इसमें राशनिंग की कोई समस्या नहीं है। आप चाहे सामने वाले किसी शरीफ आदमी पर अपनी ऊँगलियों के पोरों से कीचड़ की चंद बूँदे छिड़क दो, अंजुली में लेकर उछालों, या बाल्टी, मग्गे, तगारी से भर-भरके फेंको, अथवा टेंकरों-ट्रालियों में भरकर किर्लोस्कर पम्प के माध्यम से ही क्यों ना उड़ाओ, इफरात मात्रा में यह आपको बिना किसी उठा-पटक के रेडीमेड प्राप्त हो सकता है। यदि कीचड़ ज़्यादा फोर्स से उछालने की ज़रूरत नहीं है  तो आप इसे एक नन्हें से टुल्लू पम्प से भी उछाल सकते हैं, यह उछलेगा और बड़ी खूबी से उछलकर लक्ष्य का दामन गंदा करेगा। वैसे भी किसी बड़े पम्प से उड़ाकर कीचड़ को इधर-उधर फालतू वेस्ट करके भी क्या फायदा! जितना, जिस पर और जिस जगह पर उछालने की आवश्यकता है बस उतना, उसी पर और उसी जगह पर उछले तो ज़्यादा अच्छा है। आगे के लिए बचाकर रखना भी जरूरी है, पता नहीं कब किस पर उछालने की जरूरत आन पडे़।
जैसे भी उछालों, विगत तिरेसठ साल के लम्बे अनुभव एवं गहन अध्ययन से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र में, पूर्ण आत्मविश्वास और कमिटमेंट के साथ उछाला गया एक अदद कीचड़ का छोटा सा छींटा भी, सामने वाले का मुँह पर्याप्त रूप से काला करेगा ही करेगा। कीचड़ बना ही लोगों का मुँह काला करने के लिए है। अब तक कीचड़ उछालने की इस प्रदर्शनकारी कला के पीछे एक मात्र जायज़ और सर्वमान्य, नीतिसंगत, तर्कसंगत कारण लोगों का मुँह काला करना ही रहा है और आगे भी रहेगा। इससे इतर दूसरी कोई भी वजह कीचड़ को उछालने की इस रचनात्मक गतिविधि के पीछे ना तो भूतकाल में देखी ही गई है और ना ही भविष्य में देखी जा सकेगी।
            जिस व्यक्ति के दर्शनीय व्यक्तित्व से उस पर आपादमस्तक कीचड़ उछालने की क्रांतिकारी प्रेरणा मिलती हो, उसका मुखमण्डल चाहे शुद्ध उजला, गोरा-चिट्टा, साँवला हो, या कि काला-पीला हरा-नीला, वह व्यक्ति अपने ठेठ मोहल्ले-पड़ोस का हो या कि पाकिस्तान, चीन, इटली-जापान का, दूध पीता बच्चा हो या कि मलाई खाता बूढ़ा-नौजवान, नर-नारी हो या कि किन्नर, कीचड़ यदि उछाला गया है तो वह अपना काम करके ही मानेगा। क्रिया के विरुद्ध यह एक अटल प्रतिक्रिया है, और शत्-प्रतिशत् होनीहार है।
जिस तरह मुँह से निकली बात और कमान से छूटा तीर वापस नहीं आ सकता उसी तरह एक बार तबियत से उछाला हुआ कीचड़ कभी भी वापस आकर अपनी जगह पर गिर ही नहीं सकता, भले ही वह अपनी जन्मस्थली से लम्बवत ही क्यों ना उछाला गया हो। इस मामले में पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल का नियम भी पूरी तौर पर प्रभावहीन है, इसलिए यह खतरा भी नहीं है कि किसी पर उछाला गया कीचड़ वापस आकर उछालने वाले का ही मुँह काला कर दें। यह संभावना नगण्य है। यह बात अलग है कि कोई अनाड़ीपने में अपने ही मुँह पर कीचड़ उछाल ले। तब तो वह मुँह काला करेगा ही करेगा, चाहे कीचड़ उछालने के तत्काल बाद उछालने वाले को आत्मज्ञान हो जाए कि-‘‘अरे अरे अरे, यह क्या अनर्थ हो गया’’, और वह खुद अपने उछाले कीचड़ से मुँह छुपाता यहाँ-वहाँ भागता फिरे, कीचड़ पीछा छोड़ने वाला नहीं है, उछला है तो बिना मुँखमंडल की शिनाख्त के मुँह काला करेगा। इतिहास गवाह है कि कीचड़ उछालने की कला का ठीक से रियाज़ किये बगैर जब-जब अनाड़ीपने से कीचड़ उछाला गया है वह उछालने वाले पर ही आकर गिरा है।
तो महानुभाव, कीचड़ उछालने की कला की बारीकियों को समझ लेना आपके हित में है, ताकि वह उछले तो लक्ष्य पर ही उछले, आप पर नहीं, और लक्ष्य को मुँह दिखाने लायक ना छोड़े।
राष्‍ट्रीय साप्‍ताहिक पञिका "शुक्रवार" के होली विशेषांक में प्रकाशित।