सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

जय ग्राहक देवा



//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
मैंने बाज़ार के अन्दर कदम रखा ही था कि अचानक आठ-दस मोटे-मोटे पेट वाले तंदरुस्त मुस्टंडों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। मगर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब पीटने की बजाय मुस्टंडों ने घंटा-घडियाल, शंख, झाँझ-मजीरे, फूल-मालाएँ, नारियल, अगरबत्ती निकाल ली और महादीपक प्रज्वलित कर मेरी आरती उतारना शुरू कर दी -‘‘जय ग्राहक देवा, ओ मेरे भगवन ओ खेवा, हमरे द्वार पधारो, हमरा माल निकारों, हम खावें मेवा, ओ जय ग्राहक देवा’’ आदि आदि! धूप-लोभान का धुँआ देकर, गुलाल, रोली-सिंधूर मुँह पर मारकर वे सब मुझे जबरन खींच कर अपनी-अपनी दुकानों में ले जाने की कोशिश करने लगे।
मुझे गुस्सा आ गया। मैंने एक मुस्टंडे से गरियाते हुए पूछा-‘‘क्या बदतमीजी है यह?’’
इस पर मुस्टंडा बोला-‘‘नाराज न हों प्रभु, हमारी पूजा स्वीकार करने की कृपा करो। त्योहारों का सीज़न आ गया है। हमने आपके लिए बाज़ार को सजा-संवार कर तैयार कर दिया है। आप अपने चरणों की धूल हमारी दुकान के अन्दर डालकर बोनी शुरू करवाओं ग्राहक प्रभु!’’
मैंने खीजते हुए कहा-‘‘काहे के ग्राहक प्रभु? जेब में फूटी कोड़ी नहीं है, क्या खाक बोनी करवाऊँ! दाल दो सौ रुपए किलो मिल रही है। महँगाई आसमान पर जा चढ़ी है, और तुम लोग अपना बाज़ार सजाकर लगे हो मुजरा दिखाने में! अरे ग्राहक कुछ खरीदे तो कैसे खरीदे ?’’
मुस्टंडा बोला-‘‘प्रभु उसकी चिंता आपको करने की ज़रूरत नहीं है। जिस किसी बैंक या फायनेंस कंपनी से कहोगे हम लोन दिलवा देंगे। बिल्कुल मुफ्त, ज़ीरो परसेंट ब्याज पर।’’
मैंने कहा-‘‘लेकिन भाई मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है फिलहाल। हर चीज़ घर में मौजूद है मेरे। मुझे कुछ नहीं खरीदना।’’
इस पर दूसरा मुस्टंडा बीच में कूँदकर बोला-‘‘एक्सचेंज ऑफर है ना भगवन। पुराना कबाड़ हमारी दुकान में फेंक कर आप न्यू ब्रांड माल ले जाइये। लाने-ले जाने का भाड़ा भी हम ही देंगे आपको। टीवी, फ्रिज, एसी, वाशिंग मशीन, जो मर्ज़ी ले लो देवता। हमारे भी बाल-बच्चे हैं, उनका भी ज़रा ध्यान रखो पालनहार।’’
मैंने कहा-‘‘तुम्हारे बाल-बच्चों को पालने की जिम्मेदारी क्या ग्राहक की है?’’
मेरा इतना कहना था कि मुस्टंडों की भृकुटियाँ तन गईं। वे लाल-पीले होते हुए चिल्लाने लगे-‘‘ओ फटीचर, ग्राहक देवता-ग्राहक देवता कह कर इज़्जत दे रहे हैं तो भाव नहीं मिल रहे तेरे। हम सबने मिलकर अभी घंटा भर आरती उतारी तेरी, उसका तू यह सिला दे रहा है ग्राहक के बच्चे? शराफत से कुछ खरीद ले और अपने ग्राहक देवता होने का फर्ज़ निभा। वर्ना त्योहार के सीज़न में हाथ-पैर तुडव़ा कर घर जाएगा। बीवी-बच्चे पहचानेंगे तक नहीं।’’
इससे पहले कि वे मेरी पिटाई करते, बाज़ार में एक चमचमाती लक्झरी कार आकर रुकी और उसमें से रंगीन ब्रांडेड चड्डा और टीशर्ट पहने, हाँथ में मोबाइल और कान में ब्लूटूथ ठूसे, थिरकते हुए तीन-चार बिजूके उतरे। मुस्टंडों के ढोल-नगाड़े और शंख-घडियाल फिर उसी तरह बज उठे और आरती शुरू हो गई-‘‘जय ग्राहक देवा, ओ मेरे भगवन ओ खेवा!’’
मैं मौके का फायदा उठाकर खिसक लिया। थोड़ी दूर ही निकला था कि पीछे नज़ारा बदल गया था। कार से आए ग्राहक देवताओं के धबाधब पिटने की आवाज़ के साथ-साथ मुस्टंडों के चिल्लाने की आवाज़ें भी आ रही थीं-‘‘सालों,न लाइन खरीदोगे, ऑन लाइन खरीदोगे?’’
त्योहार भी बढ़ रहे हैं, बाज़ार भी बढ़ रहे हैं। मगर जेब का साइज़ घटता जा रहा है। जल्द ही यह नज़ारा आम हो जाए तो कोई अचरज़ नहीं।  
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