रविवार, 28 फ़रवरी 2010

टुन्न होकर गरियाने का पर्व

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट

लो फिर चन्दा खाने का त्यौहार आ गया।
जी हाँ, होली को हमने हमेशा सामूहिक रूप से चन्दा खाने के त्यौहार के रूप में ही देखा है। बचपन में मोहल्ले के सारे चन्दा खाऊ इकट्ठा होकर घर-घर जाकर खाने लायक चन्दा इकट्ठा करते और फिर बाकायदा बजट बनाकर उसे खाते। कुछ चन्दा इसे उगाहने की मुहीम के दौरान खाया जाता, कुछ झाड-झँकाड़ इकट्ठा करने के दौरान, और कुछ ऐसे ही चलते -फिरते कभी सेव-चूड़ा कभी समोसा-कचौड़ी, के भक्षण में उड़ाया जाता। जब मर्ज़ी हो तब नाश्ते-पानी के लिये चन्दे को निजी बपौती के रूप में इस्तेमाल कर लिया जाता। कुछ चन्दा होली के दिन खाने-पीने लिये रखा जाता और कुछ होली के बाद के लिये भी बजट में प्रावधानित होता जिसे सिनेमा वगैरह देखने और इन्टरवल में ठंडा यानी कोकाकोला वगैरह पीने में उड़ाया जाता। कुछ नेता किस्म के, या नेता किस्म के मोहल्लेदारों के बच्चे षड़यंत्रपूर्वक बजट के एक हिस्से को सबसे बचाकर सुरक्षित रखते व चुगलखोर लड़कों से लुका-छुपाकर पान-बीड़ी-सिगरेट का शौक भी फरमा आते, और चुगलखोर लड़कों की जासूसी दक्षता के कारण पकड़ा जाने पर माँ-बाप से धना-धन पिटते भी थे। इस तरह चन्दे के तीन-चौथाई हिस्से को खाने के पवित्र अनुष्ठान में ठिकाने लगाया जाता और एक चौथाई हिस्से से होलिका मैया का दहन किया जाता।
मोहल्ले के जिस स्वयंसेवक को होली से सबंधित आवश्यक खरीददारी की जिम्मेदारी दी जाती वही, जनता से एकत्रित उस सामाजिक धन से कुछ ना कुछ चुंगी कर लेता। हर सामग्री पहले आधी अपने घर में पहुँचाई जाती फिर सार्वजनिक उपयोग के लिये लाई जाती। यह सब जीवनचर्या के एक महत्वपूर्ण कला-कौशल की तन्मयतापूर्ण साधना की तरह का क्रियाकलाप होता, बच्चों की अम्माएँ बच्चों में इस प्रतिभा के होते विकास को देखकर भारी खुश होतीं और उनके सुनहरे भविष्य की कामना करतीं।
दरअसल होली का त्यौहार कम्बख्त एक ऐसा त्यौहार है जो हरेक को बचपन से ही भ्रष्टाचार के हुनर की सघन ट्रेनिंग देता है। भ्रष्टाचार कैसे सम्पन्न किया जाय, सार्वजनिक माल को बाप का माल कैसे समझा जाए, सामाजिक धन का बहादुरी से गबन कैसे किया जाए, सारे तौर तरीके बड़ी खूबसूरती से सिखाता है। बहुत से गुणी बच्चे बड़े होकर भी बचपन में सीखे इन गुरों को सफलतापूर्वक आजमाते हैं और जहाँ मौका मिलता है वहाँ अपनी इस काबिलियत का कुशलतापूर्वक प्रदर्शन करते हैं। कुछ अनुभवी शख्सियतें तो लड़कपने में होलिका दहन के इस कर्मकांड से मिले तमाम बेशकीमती अनुभवों को राष्ट्रीय-अन्तर्राट्रीय स्तर पर उपयोग भी करते हैं और नाम और दाम भी कमाते हैं।
परम्पराएँ आखिर परम्पराएँ हैं, जिनका हम भारतीय शिद्दत से निर्वहन करते हैं। मगर लाख टके का सवाल है कि आखिर होली जलाने के लिए चन्दा उगाहने और खाने की यह महान परम्परा चली कहाँ से आई ? हिरण्यकश्यप ने तो भक्त प्रहलाद और होलिका के लिए चन्दा इकट्ठा किया नहीं होगा जो उन्हें जलाने के अभिनव प्रयोग को अन्जाम दिया जा सके! और चलो माना कि छिछोरपन में आकर उसने, उन दोनों को जलाने के अपने आतिशी कार्यक्रम के तहत कंडों-लकड़ियों के लिए चन्दा कर भी लिया हो, लेकिन शर्तिया उसने चन्दा खाया तो हरगिज़ ही नहीं होगा! दुष्ट भले ही वह कितना भी था, ऐसा दो कौड़ी का टुच्चा तो हिरण्यकश्यप हो ही नहीं सकता था, जो इतने बड़े राजपाट के बावजूद टुच्चे से चन्दे पर नीयत रखे। इसलिए इतिहासकारों के समक्ष यह एक खोज का विषय है कि होली जलाने की परम्परा के साथ चंदा बटोरने और उसे उदरस्थ करने की परम्परा हमें आखिर मिली कहाँ से, जिसकी लीक पर चलते हुए हमारे देश में आज भी अनेक चन्दा खाऊ पैदा हो रहे हैं।
मुझे शक हैं कि ज़रूर यह बदमाशी हिरण्यकश्यप के दरबारियों ने की होगी। महाराज के नाम पर चन्दा इकट्ठा कर खा गए होंगे कम्बख्त। वही परम्परा उनके बच्चों के बच्चों, बच्चों के बच्चों से होती हुई धीरे-धीरे पूरे देश में छा गई होगी। अब तो चन्दा चाहे किसी कारथ हो उसे खाए बिना कोई मनोरथ पूरा ही नहीं होता। लोग हर सामाजिक-असामाजिक कार्य का चन्दा खाने में श्रद्धा का पूर्ण भाव दर्शाते हैं। किसी गरीब के कफन के लिये भी अगर चन्दा किया जाए, जो कि इस बदनसीब देश में अक्सर करना पड़ता रहता है, तो चंद शातिर चन्दा खाऊ उसे भी खाने से नहीं चूकते।
होली से जुड़ी कुछ अभूतपूर्व परम्पराएँ और भी हैं जिनके अपरम्परानुमा होते हुए भी उनके बिना होली मनती ही नहीं है। भँगेड़ियों को देखो ! ऐसे रंगबिरंगे त्योहार पर भी तमाम काले-पीले होकर भाँग-घोटा चढ़ाकर तरन्नुम में आय-बाय बके चले जाते हैं, या देसी ठर्रा चढ़ाकर नालियों में लोटते हुए नज़र आते हैं। हिरण्यकश्यप तो बेचारा इतिहासकारों द्वारा शराब पीता कभी धरा नहीं गया, ना ही वो कभी नालियों में लोटता हुआ ही पाया गया! भक्त प्रहलाद भी बेचारा गऊ किस्म का भक्त रहा है! फिर होली पर टुन्न होकर गरियाने की यह परम्परा किसने शुरू की। यह नौटंकी भी लगता है उन्हीं दरबारियों की खड़ी की हुई रही होगी। इधर हिरण्यकश्यप का पेट फटा होगा उधर वे सात दिवस के राष्ट्रीय शोक की छुट्टियों का फायदा उठाकर कलारी में जा बैठे होंगे। वही से प्रारंभ होकर यह परम्परा लगता है पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हुई हम तक आ पहुँची है, इसीलिए होली पर दारू पीकर दंगा करना एक अनिवार्यता बन गई है।
रंग-गुलाल की परम्परा और किसी ने भी चलाई हो, हिरण्यकश्यप ने तो हरगिज़ नहीं चलाई होगी! जिसकी बहन धोके में जल मरी हो वह क्यों उल्लास में रंग-गुलाल खेलेगा ? फिर वह तो खुद भगवान नरसिंह के हाथों मारा गया था, उसे मौका ही कहाँ मिला रंग-गुलाल उड़ाने का। तब फिर बचा प्रहलाद, परन्तु जिसके बाप का पेट फाड़ डाला गया हो वह उसकी अँतड़ियाँ समेटेगा या पिचकारी लेकर फुर्र-फुर्र रंग उड़ायेगा ? जिसकी बुआ ताजी-ताजी जल कर मरी हो वह उसके ‘फूल’ चुनेगा या रंग-गुलाल खेलेगा ? तब फिर किसे ऐसी हिमाकत सूझी जो हमें आज तक झेलनी पड़ रहीं है।
अजीब परम्परा है, जिस प्रकरण में दो-दो जाने गई हों उसकी पृष्ठभूमि में लोग ‘गुजिया’ बनाकर खा रहे हैं। मिठाईयाँ बनाकर मोहल्ले भर में बाँट रहे हैं। गजब की असंवेदनशीलता है ! लोग, एक औरत के जल मरने की खुशी में सराबोर होकर एक-दूसरे के गले मिल रहे हैं। हँसी-मजाक, ठट्ठा कर रहे है। हुरियारे बनकर झुँड के झुँड ढोल-ढमाके के साथ नाचते-गाते शहर भर में गश्त सी लगा रहे हैं, दूसरों को डरा रहे हैं, कि स्सालों सम्हलकर रहना, वर्ना खैर नहीं। अभी होली जलाई है समय आया तो तुम्हें भी जला देंगे। प्रहलाद की पार्टी तक ने होलिका दहन और हिरण्यकश्यप वध के बाद भी कभी ऐसा जुलूस न निकाला होगा........ । फिर हम क्यों बावले हुए जाते है ?
ठीक है, अभी तो खैर होली सर पर आ खड़ी है, परम्परा है, मना लीजियें। चन्दा भी खाइये, भाँग-घोटा, ठर्रा भी चढ़ाइये, खूब गाली-गलौच करिये, रंग में सराबोर हो जाइये, मिठाई-पकवान उड़ाइये, पड़ोसनों के गले लगिये, परन्तु भाइयों उस बदमाश को ज़रूर ढूँढ निकालिये जिसने होली की परम्परा के नाम पर चन्दा खाने, भाँग खाकर नालियों में लोटने, शराब पीकर गाली-गलौच करने, माँ-बेटियों के साथ बदतमीजी करने की अपरम्पराएँ चला दी हैं। उसे ढूँढकर लाओं उससे एक और जरूरी बात पूछना है कि ‘‘गटर के पानी में डुबकी लगवाकर फिर ‘‘बुरा ना मानो होली है’’ कहने की परम्परा आखिर किसने शुरू की। परम्परावादियों के पास कोई जवाब हो तो कृपया होली के पहले मुझे बताने का कष्ट करें।
 
समुचित संपादन के साथ दिनांक 28 फरवरी 2010की नईदुनिया साप्ताहिक पत्रिका के होली विशेषांक में प्रकाशित।

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब उम्दा कटाक्ष । आपको व परिवार को होली की शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  2. भल्‍ले गुझिया पापड़ी खूब उड़ाओ माल
    खा खा कर हाथी बनो मोटी हो जाए खाल
    फिरो मजे से बेफिक्री से होली में,
    मंहगाई में कौन लगाए चौदह किला गुलाल
    http://chokhat.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  3. होली ही क्यों चन्दा खाऊ तो हर पर्व पर ऐसा ही करते है | आपकी रचना से मुझे भी अपने मोहल्ले के चन्दा प्रकरण की याद आ गई |
    की घटनाये याद आगई

    जवाब देंहटाएं
  4. kuch sachchaaiyan sab jante hain phir bhi kahi nahi jaati.jaise bete aur beti ki shaadi ke baad ve kya karenge har mata pita ko pata hota hai parantu use sarvjanik nahi kaha jata.hindu dharm v sanskriti par hansi,vyang,nange chitra sabaki choot hai.yah aapki kala hai,m f husain ki bhi.jara thoda sa islam,cristian ke baare me bhi vyang karo to aapko vyangkaar manege nahi to likhana chod kar kuch aur kaam dhanda kar lo par sanatan dharm ke prateek riti rivazon,devi devtaon par vyang na karen.
    dr a kirtivardhan
    09911323732
    09555074204
    a.kirtivardhan@gmail.copm

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खूब हा हा हा ................
    आपको व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं