गुरुवार, 18 जून 2015

मैया मैं तो मैगी ही खायो

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//


बन्‍नेखाँ का लड़का फन्‍नेखाँ सुबह से बस एक ही रट लगाए हंगामा मचाए हुए है – मैगी दे दो, मैगी दे दो। फ्‍न्‍ने की अम्‍मा उसे समझाने की कोशिश कर रही है- मान जा बेटा मान जा, कुछ और खा ले, मैगी में जाने क्‍या बला मिली है, मर जाएगा तू मेरे लाल।

फन्‍ने सुनने को तैयार नहीं है, बस चिल्‍ला रहा है- मैगी दे दो, मैगी दे दो।

अम्‍मा ने फिर समझाने की कोशिश की- बेटा क्‍यों अपनी जान का दुश्‍मन बन रहा है? सारे समझदार लोग कह रहे हैं न कि मैगी में ज़हर मिला हुआ है, तो क्‍यों ज़िद कर रहा है?

फन्‍नेखाँ हाथ नचाता हुआ बोला- और तू जिद करती है कि- दूध पी ले, दूध पी ले, तब कुछ नहीं? तुझे पता नहीं दूध में क्या-क्‍या मिलाते पकड़े गए हैं लोग। कोई चूने और खड़िया से दूध बना रहा है तो कोई डिटर्जेंट मिला रहा है। तब नहीं तू कहती कि मर जाएगा?

फन्‍ने की अम्‍मा बोली-नहीं बेटा अपने यहाँ तो सरकारी अच्‍छा दूध आता है।

फन्‍ने चिल्‍लाया- क्‍या खाक अच्‍छा दूध आता है! दूध-मावे की मिठाई खिलाती है न जो तू मसक के, उसमें न जाने क्‍या-क्‍या मिला होता है। क्‍यों खिलाती है बुला-बुलाकर? तब तुझे मेरी जान की परवाह नहीं होती।

अम्‍मा बोली-अरे बेटा खुशी में कभी-कभी नकली मावे की मिठाई भी खा लो तो कुछ नहीं होता। पर तू तो रोज सिर्फ मैगी खाता है, और कुछ खाता ही नहीं। मर जायेगा मेरे लाल, मर जाएगा तू।

अच्‍छा!  और ये जो तू नाहर मुँह उठकर ज़र्दे की फक्‍की मारती आ रही है बरसों से, वो ज़हर नहीं है। अब्‍बाखाँ रोज़ाना सैकड़ा भर गुटखा के पाउच चबा कर पेट में तो पेट में घर भर में गंदगी फैलाते रहते हैं, वो ज़हर नहीं है? मुझे नहीं मालूम, ज्‍़यादा बहाने मत बनाओं मुझे तो बस मैगी चाहिए अभी के अभीफन्‍ने पैर पटकता हुआ बोला।

अम्‍मा को गुस्‍सा आ गया। वह डपट कर बोली-चुप रहता है कि नहीं कम्‍बखत, बैठा है मैगी-मैगी की रट लगाए। पुलिस बुलवाकर बंद करवा दूँगी अभी तुझे।

फन्‍नेखाँ का गुस्‍सा फूट पड़ा। वो चिल्‍लाने लगा- मुझे पता है, अपन जो भी खाते हैं सब नकली और मिलावटी होता हैं। लाल मिर्च में ईंट मिली होती है, धनिया में लीद और हल्‍दी में पीली मिट्टी। खाने के तेल में मोबिल आइल मिला होता है, घी में चर्बी। सब्ज़ियों को इंजेक्‍शन लगा कर बड़ा करते हैं और फिर ज़हरीले रंगों से रंग कर बेचते हैं। फलों में सेकरीन का इंजेक्‍शन लगाते हैं। कोल्‍डड्रिंक में इतना एसिट होता है कि उससे पाखाने की सीट साफ कर लो। बीमार होकर डाक्‍टर को दिखाने जाओ तो बाज़ार में दवाइयाँ नकली मिलती हैं। सब कुछ अपन बड़े आराम से खा जाते हैं। तब तू नहीं कहती कि मर जाएगा तू! और मुझे क्‍यों पुलिस में बंद करवा रही है तू? मैगी ही तो माँग रहा हूँ, जान है मेरी वो। बिना माँगे तो तू रोज़ाना इतना ज़हर मुझे खिला देती है मुझे, जरा सी मैगी खिलाने में तेरा क्‍या जा रहा है अम्‍मा?

अम्‍मा दीदे फाड़े अपने लाड़ले को देखती रही और‍ चुपचाप किचन में जाकर मैगी बनाने लगी। फन्‍नेखाँ तो फन्‍नेखाँ उनके बाप बन्‍नेखाँ ने भी डटकर मैगी खाई और जा बैठे टीवी पर मैगी मुहीम देखने।               

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बुधवार, 17 जून 2015

फर्जी डिग्री के दम पर


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
दुनिया के तमाम मुल्‍कों ने तमाम क्षेञों में तरक्‍की की है, हमने शिक्षा के क्षेञ में झंडे गाड़े हैं। अंग्रेजों के ज़माने में जब लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा पद्धति को बनाने के लिए अपना सिर खपाया तब उसने ख्‍याब में भी नहीं सोचा होगा कि कालान्‍तर में दुनिया भर की शिक्षा व्‍यवस्‍थाएँ उसकी बनाई भारतीय शिक्षा व्‍यवस्‍था से बुरी तरह पिछड़ जाएंगी। बताइये भला, बिना पढ़े-लिखे, बिना स्‍कूल-कॉलेज जाए आदमी ग्रेजुएट-पोस्‍ट ग्रेजुएट, डाक्‍टर-इन्‍जीनियर की डिग्रियाँ हासिल कर ले, इससे क्रांतिकारी उपलब्धि और क्‍या हो सकती है? दूसरा कोई बड़ा से बड़ा मुल्‍क हमारी इस अभिन्‍न उपलब्धि के आसपास भी नहीं फटक सकता।

प्रिटिंग प्रेस के अविष्‍कार ने दुनिया को बस मोटी-मोटी किताबों का बोझ दिया, मगर हमने उस पर फर्जी डिग्रियों की छपाई करवाकर अपने छाञों के सर पर उस बोझ का साया भी नहीं पड़ने दिया। फर्जी डिग्रियों की छपाई के इस कौशल से हमने शिक्षा को तो स्‍तरीय बनाया ही बनाया है, छपाई की कला में भी हम इस कदर सिद्धहस्‍त हुए हैं कि एक बार असली डिग्री को आसानी से नकली डिग्री साबित किया जा सकता है परन्‍तु नकली डिग्री को नकली डिग्री साबिल करने में विशेषज्ञों को भी नाको चने चबाना पड़ जाता है।

किताबी कीड़ों का दुनिया में हमेशा आतंक रहा है। कम्‍बखत सारी डिग्रियाँ खुद ही हड़प लिया करते रहे हैं। न केवल डिग्रियाँ बल्कि आई..एस, आई.पी.एस से लेकर चपरासी तक की नौकरी पर इन्‍हीं का कब्‍ज़ा रहता आया है। हमने देश को इस कलंक से मुक्ति दिला दी। हमने नकल संस्‍कृति का तूफानी विकास और विस्‍तार कर देश के कोटि-कोटि नालायकों तक डिग्रियों की सप्‍लाई सुलभ करवाई ताकि वे भी सम्‍मानजनक नौकरियों में जाकर देश सेवा करे और गौरवान्वित महसूस कर सकें। कुछ प्रतिभाशाली लोगों ने तो अपने पुरुषार्थ के दम पर देश की संसदीय राजनीति का मान बढ़ाने में सफलता पाई है। साधु-साधु।

एक ज़माना था लोग फर्जी शब्‍द से थर-थर कॉपते थे और चुपचाप शराफत के लिबास में लिपटे स्‍कूल-कॉलेज और यूनीवर्सिटीज़ में पढ़-पढ़ कर चश्‍में वालों का धंधा चमकाया करते थे। फर्जी डिग्रियाँ एक दूर की कौड़ी थी लिहाज़ा हाड़ तोड़ मेहनत और मशक्‍कत करके असली डिग्री की भीख सी माँगनी पड़ती थी। हमने परिस्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। डिग्रियों को चना जोर गरम और मुँफली के ढेर की तरह गली-गली में बेचने के लिए पहुँचवा दिया । जिसको जो विषय पसन्‍द हो, आओ, पैसा फैको, डिग्री तुलवाओ और चलते बनो।

हमारा दृढ़ संकल्‍प है कि भविष्‍य में हम अपनी सेवाओं का व्‍यापक विस्‍तार करेंगे। हमारे आदमी साथ में डिग्रियों का कैटलॉग लेकर घर-घर जाकर लोगों की पसन्‍द की‍ डिग्रियाँ बेचेंगे। ऑन लाइन खरीदारी की सुविधा भी हम शीघ्र ही चालू करने वाले हैं। आप समुचित भुगतान कर अपनी मन पसन्‍द डिग्री, अपनी सुविधा के वर्ष और कॉलेज-यूनीवर्सिटी के हिसाब से हमारी साइट से सीधे डाउनलोड कर सकेंगे।

सचमुच, शिक्षा के क्षेञ में यह एक युगान्‍तरकारी पड़ाव है। हमने कसम खाई है कि देश में शिक्षा के पारम्‍परिक ढाँचे को नेस्‍तोनाबूद करके एक नई रोशनी का मार्ग प्रशस्‍त करेंगे। फर्जी डिग्रियों के दम पर हम अपने इस देश को दुनिया का सिरमोर बना कर ही दम लेंगे।                

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रविवार, 14 जून 2015

मैगी को बदनाम मत करो


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
 मैं मैगीहूँ। दुनिया भर में मुझे बेहद चाव से खाया जाता है। मगर आज मेरे अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मुझे अखाद्य करार दिया जाकर मार्केट से बाहर करने का षड़यंत्र चल रहा है। मुझे ताज्जुब है, जब भारत की गली-गली में सैकड़ों अखाद्य पदार्थों की बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं है, रोज़ाना हज़ारों लोग इन मिलावटी, नकली अखाद्य पदार्थों को खाकर अस्पतालों के चक्कर लगाते नज़र आते हैं और कुछ तो बेचारे बेमौत मारे भी जाते हैं, तब मुझ जैसी नफासत से बनने वाली चीज़ को बदनाम करके बंद करने की साजिश चल रही है। पाप पड़ेगा नासपीटों तुम सबको!
वैसे वेषभूषा, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और खाने की विधि से तो मैं भारतीय नमकीन सिवैयों की मौसेरी बहन होती हूँ लेकिन उस हिसाब से इज़्जत मेरी कभी नहीं हुई। यहीं भारत में कई वर्षों तक मैं केचुआसम्प्रदाय की मानी जाकर नफरत और उपेक्षा की शिकार रही, लेकिन धीरे-धीरे मेरे आकाओं ने मेरी इस छवि को भारतीय जनमानस में से दफा करके मेरे धाँसू स्वाद के बल पर भारत में धूम मचा दी। मल्टीनेशनल व्यापार तिकड़मों और भूमंडलीकरण के अन्तर्राष्ट्रीय षड़यंत्रों के दम पर मैंने बच्चों, नौजवानों और यहाँ तक कि बड़े-बूढों तक में पेट के रास्ते दिमाग में और दिमाग के रास्ते पेट में उतरने के संघर्ष में अद्वितीय प्रगति एवं मुकाम हासिल किया है। जो बच्चे देसी सिवैयों की तरफ आँख उठाकर नहीं देखते थे वे धीरे-धीरे चटोरों की भाँति मुझ पर टूट पड़ने लगे। बच्चों के माँ-बाप भी मेरे चटर-पटर स्वाद के दीवाने होकर पारम्परिक दाल-रोटी का स्वाद ही भूल गए।
माफ कीजिएगा, दाल-रोटी का स्वाद भूले नहीं बल्कि हम लोगों ने आपको सायास उसे भूलने पर मजबूर कर दिया। बताइये भला, बच्चे रोटी-सब्जी दाल-चावल इत्यादि-इत्यादि बाबा आदम के ज़माने की रेसिपियाँ खाते रहते तो मुझे कौन पूछता? इसीलिए मेरे आकाओं ने इंसानों की जीभ पर चटोरपन के विकास के लिए काफी शोध एवं अनुसंधान करवाकर ऐसे-ऐसे केमिकल और साल्ट्स का उपयोग करना शुरू किया कि मैगी ना मिले तो बच्चे भूखे मर लें लेकिन खाने की तरफ आँख उठाकर न देखें। मेरा दिवाना कोई भी बच्चा मुझे न खिलाने पर अपनी अम्मा का खून भी कर सकता है, ऐसी दिवानगी है मेरी। कभी-कभी पैकेट में पड़ी-पड़ी मैं यह सोचती रहती हूँ कि कहीं यह भविष्य का मानव गढ़ने की साजिश की शुरूआत तो नहीं, जब किसी भी खाने में कोई भी केमिकल खिलाकर अपनी पसंद का आज्ञाकारी इन्सानी पुतला बनाया जाना संभव होगा? चलो छोड़ो भी मुझे क्या करना।
बच्चों की अम्मा तो बहुत खुश है । उसे चार घंटे की कीचन की मारामारी से निजात मिल गई, क्योंकि मैं तो दो मिनिट में पक कर तैयार हो जाती हूँ। पकाने में भी दो मिनिट और खाने में भी दो मिनिट। यह अलग बात है कि उसे निकालने के लिए पाखानेमें दो दिन तक का लम्बा इंतज़ार करना पड सकता है। कम नमक, ज्यादा मिर्च, बेस्वाद खाने की रोज की चिक-चिक से भी मुक्ति मिल गई। कंपनी ने जो अगड़म-बगड़म मिला दिया उसे खाकर बाप-बच्चे सब तृप्त होकर चुपचाप काम पर लग जाते हैं।
फटाफट संस्कृति का ज़माना है। इंसान के पास समय की बेहद कमी है। प्रोफेशनल ज़िन्दगी का तकाज़ा है कि जिस खाने के लिए रात-दिन खटते रहो उसी के लिए समय मत निकालो। कौन प्रोफेशनल आज गेहूँ पिसाने चक्की पर जाना पसन्द करेगा और घर पर साग-रोटी पकाकर खाना चाहेगा। इतनी देर में दस-बीस हज़ार रुपए ज्यादा छप जाएंगे। इसलिए मैं और मुझ जैसे बहुत से वेज-नानवेज फटाफट प्रोडक्ट आपकी ज़िन्दगी में अहम जगह बना चुके हैं। बनाएंगे क्यों नहीं, वे आपके पेट में डालने से पहले भेजे में जो डाले जाते हैं। मेरे लिए अमिताभ बच्चन और माधुरी दीक्षित जैसे कई लोकप्रिय कलाकार यह काम बखूबी करते हैं। यही है इस युग की खासियत। किसी के भी दिमाग में जो चाहे डाल दो वो हू-चूँ तक नहीं करेगा। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने इतनी तरक्की कर ली है कि यदि वो चाहे तो आपका दिमाग मुझे तो क्या गोबरतक को खाने के लिए बदहवासों की तरह टूट पड़े।
क्या चाहिए मेरे आकाओं को, बस यही कि में घर-घर छः टाइम खाई जाने लगूँ और दुनिया के हर देश के हर कोने में अपनाई और गाई जाने लगूँ और उनका सालाना टर्न ओव्हर दिन दूना रात चौगूना बढ़ता चला जाए। तो इसमें उनकी क्या गलती है, जब आपके देश में उनके इस सपने को साकार करने के लिए नतमस्तक होकर दुम हिलाते हुए स्वागत में खड़े बंदे मौजूद हैं तो बुरी ही सही क्यों न मैं दनादन बिकूँ? इसके लिए अमानक केमिकल वगैरा जो भी मिलाना है मिलाकर हम तो आगे बढ़ेंगे, कौन रोकेगा हमें? आखिर धनिए में लीद भी तो इसीलिए मिलाई जाती है और डिटर्जेंट से दूध भी इसीलिए बनता है ताकि कुछ लोग मुनाफे की दुनिया के सिरमौर हो जावे। किसका क्‍या बिगाड़ लेते हो तुम लोग?
मगर दोस्तों, व्यक्तिगत तौर पर इसमें मेरी क्या गलती है बताइये? मैं तो मैन मेड आयटम हूँ। खाने के शौकीन सभी लोगों के सामने निरपेक्ष रूप से प्रस्तुत हूँ। मुझे कोई ऐसी इच्छा भी नहीं कि लोग मुझे ही खाएँ दाल-रोटी न खाएँ। मैं कौन खुद अपने पर शोध-अनुसंधान करने बैठ गई कि कौन सा केमिकल मुझे ज़्यादा से ज़्यादा स्वादिष्ट बनाएगा कौन सा नहीं। कौन मैंनेबच्चों की स्वाद ग्रंथियों को प्रभावित करने के लिए षड़यंत्र किया है! न मैं अमिताभ बच्चन के पास गई न माधुरी दीक्षित के पास, और न मैंने खुद अपने-आप को सेलेबल बनाने के लिए आकर्षक पैकेजिंग में पेश किया है। तो फिर सारा गुस्सा मुझपर क्यों उतारा जा रहा है? यह अच्छा है, करे कोई भरे कोई!
सच्चाई यह है कि आप सब लोग ही एक-दूसरे की जान के दुश्मन हो। लालच ने आप सबको अंधा बना दिया है। कार्पोरेट्स तो जैसे जनता का खून पीने के लिए ही पैदा हुए हैं, आप किसी को भी कार्पोरेटों की गुलामी के सामने मासूम इंसानियत का तकाज़ा नज़र नहीं आता। मिलावट करोगे, नकली खाद्य सामग्री बनाओगे, उसे बाज़ार में बेचने के लिए जिम्मेदार लोगों को रिश्वत दोगे, खुद अपने हाथों अपना गुलशन बरबाद करके रख दोगे। ये सब असमाजिक कुकृत्य तो तुम्ही सब मिलकर कर रहे हो न? ‘मैगीतो नहीं कर रही? मैगी को तो बदनाम मत करो दोस्तों।          
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