//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
मैं ‘मैगी’ हूँ।
दुनिया भर में मुझे बेहद चाव से खाया जाता है। मगर आज मेरे अस्तित्व पर संकट के
बादल मंडरा रहे हैं। मुझे अखाद्य करार दिया जाकर मार्केट से बाहर करने का षड़यंत्र
चल रहा है। मुझे ताज्जुब है, जब भारत की गली-गली में सैकड़ों अखाद्य पदार्थों की बिक्री पर
कोई प्रतिबंध नहीं है, रोज़ाना हज़ारों लोग इन मिलावटी, नकली अखाद्य पदार्थों को खाकर
अस्पतालों के चक्कर लगाते नज़र आते हैं और कुछ तो बेचारे बेमौत मारे भी जाते हैं, तब मुझ
जैसी नफासत से बनने वाली चीज़ को बदनाम करके बंद करने की साजिश चल रही है। पाप
पड़ेगा नासपीटों तुम सबको!
वैसे वेषभूषा, सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि और खाने की विधि से तो मैं भारतीय नमकीन सिवैयों की मौसेरी बहन होती हूँ
लेकिन उस हिसाब से इज़्जत मेरी कभी नहीं हुई। यहीं भारत में कई वर्षों तक मैं ‘केचुआ’ सम्प्रदाय
की मानी जाकर नफरत और उपेक्षा की शिकार रही, लेकिन धीरे-धीरे मेरे आकाओं ने
मेरी इस छवि को भारतीय जनमानस में से दफा करके मेरे धाँसू स्वाद के बल पर भारत में
धूम मचा दी। मल्टीनेशनल व्यापार तिकड़मों और भूमंडलीकरण के अन्तर्राष्ट्रीय
षड़यंत्रों के दम पर मैंने बच्चों, नौजवानों और यहाँ तक कि बड़े-बूढों तक में पेट के रास्ते दिमाग
में और दिमाग के रास्ते पेट में उतरने के संघर्ष में अद्वितीय प्रगति एवं मुकाम
हासिल किया है। जो बच्चे देसी सिवैयों की तरफ आँख उठाकर नहीं देखते थे वे
धीरे-धीरे चटोरों की भाँति मुझ पर टूट पड़ने लगे। बच्चों के माँ-बाप भी मेरे
चटर-पटर स्वाद के दीवाने होकर पारम्परिक दाल-रोटी का स्वाद ही भूल गए।
माफ कीजिएगा, दाल-रोटी
का स्वाद भूले नहीं बल्कि हम लोगों ने आपको सायास उसे भूलने पर मजबूर कर दिया।
बताइये भला, बच्चे
रोटी-सब्जी दाल-चावल इत्यादि-इत्यादि बाबा आदम के ज़माने की रेसिपियाँ खाते रहते तो
मुझे कौन पूछता?
इसीलिए मेरे आकाओं ने इंसानों की जीभ पर चटोरपन के विकास के
लिए काफी शोध एवं अनुसंधान करवाकर ऐसे-ऐसे केमिकल और साल्ट्स का उपयोग करना शुरू
किया कि मैगी ना मिले तो बच्चे भूखे मर लें लेकिन खाने की तरफ आँख उठाकर न देखें।
मेरा दिवाना कोई भी बच्चा मुझे न खिलाने पर अपनी अम्मा का खून भी कर सकता है, ऐसी
दिवानगी है मेरी। कभी-कभी पैकेट में पड़ी-पड़ी मैं यह सोचती रहती हूँ कि कहीं यह
भविष्य का मानव गढ़ने की साजिश की शुरूआत तो नहीं, जब किसी भी खाने में कोई भी केमिकल
खिलाकर अपनी पसंद का आज्ञाकारी इन्सानी पुतला बनाया जाना संभव होगा? चलो छोड़ो
भी मुझे क्या करना।
बच्चों की अम्मा तो बहुत
खुश है । उसे चार घंटे की कीचन की मारामारी से निजात मिल गई, क्योंकि
मैं तो दो मिनिट में पक कर तैयार हो जाती हूँ। पकाने में भी दो मिनिट और खाने में भी
दो मिनिट। यह अलग बात है कि उसे निकालने के लिए ‘पाखाने’ में दो
दिन तक का लम्बा इंतज़ार करना पड सकता है। कम नमक, ज्यादा मिर्च, बेस्वाद
खाने की रोज की चिक-चिक से भी मुक्ति मिल गई। कंपनी ने जो अगड़म-बगड़म मिला दिया उसे
खाकर बाप-बच्चे सब तृप्त होकर चुपचाप काम पर लग जाते हैं।
फटाफट संस्कृति का ज़माना
है। इंसान के पास समय की बेहद कमी है। प्रोफेशनल ज़िन्दगी का तकाज़ा है कि जिस खाने
के लिए रात-दिन खटते रहो उसी के लिए समय मत निकालो। कौन प्रोफेशनल आज गेहूँ पिसाने
चक्की पर जाना पसन्द करेगा और घर पर साग-रोटी पकाकर खाना चाहेगा। इतनी देर में
दस-बीस हज़ार रुपए ज्यादा छप जाएंगे। इसलिए मैं और मुझ जैसे बहुत से वेज-नानवेज
फटाफट प्रोडक्ट आपकी ज़िन्दगी में अहम जगह बना चुके हैं। बनाएंगे क्यों नहीं, वे आपके
पेट में डालने से पहले ‘भेजे’
में जो डाले जाते हैं। मेरे लिए अमिताभ बच्चन और माधुरी दीक्षित जैसे कई लोकप्रिय
कलाकार यह काम बखूबी करते हैं। यही है इस युग की खासियत। किसी के भी दिमाग में जो
चाहे डाल दो वो हू-चूँ तक नहीं करेगा। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने इतनी तरक्की कर ली
है कि यदि वो चाहे तो आपका दिमाग मुझे तो क्या ‘गोबर’ तक को
खाने के लिए बदहवासों की तरह टूट पड़े।
क्या चाहिए मेरे आकाओं को, बस यही कि
में घर-घर छः टाइम खाई जाने लगूँ और दुनिया के हर देश के हर कोने में अपनाई और गाई
जाने लगूँ और उनका सालाना टर्न ओव्हर दिन दूना रात चौगूना बढ़ता चला जाए। तो इसमें
उनकी क्या गलती है,
जब आपके देश में उनके इस सपने को साकार करने के लिए नतमस्तक
होकर दुम हिलाते हुए स्वागत में खड़े बंदे मौजूद हैं तो बुरी ही सही क्यों न मैं
दनादन बिकूँ? इसके
लिए अमानक केमिकल वगैरा जो भी मिलाना है मिलाकर हम तो आगे बढ़ेंगे, कौन
रोकेगा हमें? आखिर
धनिए में लीद भी तो इसीलिए मिलाई जाती है और डिटर्जेंट से दूध भी इसीलिए बनता है
ताकि कुछ लोग मुनाफे की दुनिया के सिरमौर हो जावे। किसका क्या बिगाड़ लेते हो तुम
लोग?
मगर दोस्तों, व्यक्तिगत
तौर पर इसमें मेरी क्या गलती है बताइये? मैं तो मैन मेड आयटम हूँ। खाने के
शौकीन सभी लोगों के सामने निरपेक्ष रूप से प्रस्तुत हूँ। मुझे कोई ऐसी इच्छा भी
नहीं कि लोग मुझे ही खाएँ दाल-रोटी न खाएँ। मैं कौन खुद अपने पर शोध-अनुसंधान करने
बैठ गई कि कौन सा केमिकल मुझे ज़्यादा से ज़्यादा स्वादिष्ट बनाएगा कौन सा नहीं।
कौन ‘मैंने’ बच्चों की
स्वाद ग्रंथियों को प्रभावित करने के लिए षड़यंत्र किया है! न मैं अमिताभ बच्चन के
पास गई न माधुरी दीक्षित के पास, और न मैंने खुद अपने-आप को सेलेबल बनाने के लिए आकर्षक
पैकेजिंग में पेश किया है। तो फिर सारा गुस्सा मुझपर क्यों उतारा जा रहा है? यह अच्छा
है, करे
कोई भरे कोई!
सच्चाई यह है कि आप सब लोग
ही एक-दूसरे की जान के दुश्मन हो। लालच ने आप सबको अंधा बना दिया है। कार्पोरेट्स
तो जैसे जनता का खून पीने के लिए ही पैदा हुए हैं, आप किसी को भी कार्पोरेटों की
गुलामी के सामने मासूम इंसानियत का तकाज़ा नज़र नहीं आता। मिलावट करोगे, नकली
खाद्य सामग्री बनाओगे, उसे बाज़ार में बेचने के लिए जिम्मेदार लोगों को रिश्वत दोगे, खुद अपने
हाथों अपना गुलशन बरबाद करके रख दोगे। ये सब असमाजिक कुकृत्य तो तुम्ही सब मिलकर
कर रहे हो न? ‘मैगी’ तो नहीं
कर रही? मैगी
को तो बदनाम मत करो दोस्तों।
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बढ़िया है भाई।
जवाब देंहटाएंविलंबित धन्यवाद।
हटाएंबहुत बढ़िया व्यंग, प्रमोद भाई ...!
जवाब देंहटाएंविलंबित धन्यवाद।
हटाएंसटीक !
जवाब देंहटाएंविलंबित धन्यवाद।
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