रविवार, 19 अक्तूबर 2014

मुफ्त का माल


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//  
इनदिनों बाज़ार में डरते-डरते घुसना पड़ता है। कोई सोच सकता है हमारा अपना बाज़ार है, ‘भारतीय बाज़ार’, उसमें डरते हुए घुसने की क्या ज़रूरत है, आराम से सीना फुलाकर घुसना चाहिए! मगर नहीं साहब, मेरे हिसाब से तो बिल्कुल डरते हुए ही घुसने की ज़रुरत है, क्योंकि इन वक्त हरेक दुकानदार अपनी दुकान में फ्रीका सामान लिए बैठा रहता है। रोजमर्रा के उपयोग वाले घरेलू सामान की बनिस्पत फ्रीमें बँटने वाले माल से ही सारी दुकान भरी रहती है। खुद दुकानदार को भी खड़े होने को जगह नहीं होती। फिर ग्राहक देव भी माले-मुफ्त के चक्कर में दुकान में आकर भीड़-भड़क्का करते हैं। ऐसी ठसा-ठसी में मुझ जैसा सीधा-शरीफ आदमी तो बेचारा घबराहट में मर ही जाए।
बड़े से बडे़ शो रूम का मैनेजर हो या छोटे-मोटे जनरल स्टोर का मालिक इस वक्त मनुहार, प्यार-मोहब्बत, नम्र निवेदन से, जैसे भी हो आपको जबरदस्ती फ्री का माल टिपाने की जुगत में रहता है। आप दुकान पर पहँुचे और उसने आपको मुफ्त का माल टिपाकर दुकान खाली की, ताकि अगला लॉट भरा जा सके। आप खरीदने कुछ जाओगे वह आपको फ्रीके चार अल्तुएके साथ कुछ और ही पकड़ा देगा जिनकी जन्म-ज़िन्दगी में आपको कोई ज़रूरत नहीं पड़ने वाली। जैसे, चाय-पत्ती लेने जाओगे तो दुकानदार आपको दो सेकंड की प्लास्टिक के गिलास थमा देगा। वाशिंग पाउडर खरीदने जाओगे तो वो दो घटिया से मग्गे पहले काउंटर पर निकालकर रखेगा फिर वाशिंग पाउडर का डिब्बा बाहर निकालेगा। आपको झक मार कर प्लास्टिक का यह कबाड़ अपने साथ ले जाना पडे़गा, क्योंकि आपको मालूम है चाय-पत्ती और वाशिंग पाउडर की कीमत के साथ उस माले-मुफ्त की कीमत भी जुड़ी हुई है।
एक बार बाज़ार में एक दुकान पर लिखा देखा-‘‘हमारे यहाँ हर सामान पर भरपूर मुफ्तउपहार गारन्टीड मिलेगा। मुफ्त के उपहारों पर भी ढेरों उपहार मुफ्त मिलने की पूर्ण संभावना। जल्दी से जल्दी आइए और मुफ्त दीपावली की खुशियाँ मनाइये।’’ अपने घर को दुनिया भर के कचरे से भर लेने के लालच में लोग खुद भी बाकायदा झुंड बनाकर ऐसी दुकानें ढूढ़ने निकलते हैं जहाँ से खरीदारी करने पर उनका झोला मुफ्त के माल से भर जाए।  
एक दिन मैं एक साड़ियों की दुकान की ओर निकल गया। दुकान पर एक सूचना पट्ट बड़ी बेफिक्री से लटका हुआ सूचना दे रहा था, जिसे देखकर मख्खी घुस जाने के डर के बावजूद मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। आँखें कोटरों से बाहर आ गर्इं। बोर्ड पर लिखा था-छः साड़ी लेने पर आठ साड़ी मुफ्त, मात्र एक हज़ार रुपए में। यानी कि चौदह साड़ियाँ हज़ार रुपए में मतलब लगभग 70 रुपए की एक साड़ी। आजकल सत्तर रुपए की औकात ही क्या है! छोटे-मोटे शापिंग मॉल में पोछे का कपड़ा तीन-चार सौ रुपए से कम का नहीं मिलता। सोचा साड़ियाँ लूँ न लूँ कम से कम आफर को जी भर के निहार तो लूँ। जम गया तो जिन्दगी में पहली बार मुफ्त के माल से घरवाली को खुश कर दूँगा। दुकान में जाकर साड़ियाँ देखी तो पाया कि उनसे अच्छी साड़ियाँ तो घर की काम वाली बाई पहनकर आती है। उस बाई को भी यदि ये साड़ियाँ उपहार में दी जाएँ तो वह भी उन्हें मुँह पर मार कर चल दे। 
एक दुकान पर बेतहाशा भीड़ हो रही थी। लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़े जा रहे थे। बोर्ड लगा था एक ब्रांडेड कमीज पर दो कमीज फ्री, दो ब्रांडेड कमीज पर तीन कमीज फ्री, तीन ब्रांडेड कमीज पर चार कमीज फ्री। मैंने दुकानदार से पूछा-भाई साहब वह कमीज़ कितने की है जिस पर आप फ्रीपर फ्रीकमीज़ें बाँटकर ग्राहकों को खुश कर रहे हैं। दुकानदार ठसक के साथ बोला-उनतीस सौ पिन्‍चानवे! एक मामूली कमीज़ की इतनी ऊँची कीमत सुनकर मेरे चेहरे का तो ब्रांड ही बदल गया, जिसे देखकर दुकानदार मुझ पर हिकारत की नज़रें बरसाता हुआ मात्र आधा वाक्य बोला- ‘‘ब्रांडेड है !’’ दुकानदार का आधा वाक्य मन ही मन मैंने खुद पूरा कर लिया - ‘‘तुम्हारे बाप ने भी कभी खरीदी है !’’
आगे कहीं पर एक जींस पर दो जींस फ्री की तख्ती लगी थी, और कहीं दो टी शर्ट पर तीन टी शर्ट फ्री का बैनर लगा हुआ था। जैसे-जैसे मैं बाज़ार की गहराइयों में घुसता चला गया फ्री फ्री फ्री के तख्ती-बैनरों और चिल्लाचोट ने मुझे बुरी तरह आतंकित कर दिया था। बाज़ार भर में जबरदस्ती विज्ञापन पढ़ाया जा रहा था, एक अंडरवियर पर दो अंडरवियर फ्री, एक बनियान पर एक बनियान फ्री, एक लक्स पर एक लक्स फ्री, एक आइसक्रीम पर एक आइसक्रीम फ्री। फ्रिज पर माइक्रोवेव फ्री, माइक्रोवेव पर राइस कुकर फ्री, साइस कुकर पर बाउल सेट फ्री आदि-आदि और लोग मारा-मारी करके खरीद भी रहे थे। गोया यह फ्री का माल अगर उनके हाथ से निकल गया तो उनका सब कुछ लुट जाएगा।
भारतीय बाज़ारों में यूँ फ्री-फंड में माल बँटता हुआ देखकर लग रहा है हम कहीं गलती से कहीं समाजवाद, साम्यवाद के दौर में तो प्रवेश नहीं कर गए! या कि रामराज्य आ गया है और पूँजीवाद का चरित्र सुधर रहा है। वामपंथी कहते हैं कि साम्यवाद में बाज़ार नहीं रहेगा, माल मुफ्त में मिलेगा, मुनाफे की प्रवृति खत्म हो जाएगी। लो भाई माल मुफ्त में मिल रहा है। हिन्दुवादी कहते हैं रामराज्य आ जाएगा तो पूँजीपति की नियत ठीक हो जाएगी, वो मुनाफे की लूटमार नहीं करेगा। देढ़ हज़ार की मिक्सी पर पाँच हज़ार मूल्य के दस-दस आयटम बुला-बुला कर मुफ्त दिये जा रहे हैं, तो इसे सेठजी की नियत दुरुस्त होना ही तो कहना पडे़गा। पक्का आ गया भाई रामराज्य। 
मुझ जैसे मुफ्त के माल से दूर भागने वाले सयाने खरीदारों को इस फ्री-फंड के बाज़ार कुछ सामग्री इतनी सफाई से थमाई जाती हैं कि पता ही नहीं चल पाता कि कब उन्होंने उसकी कीमत चुका दी। जैसे बच्चे की ज़िद पर आपने खरीदा पोटेटो चिप्स और साथ में उसकी ज़ोरदार पेकिंग भी खरीद लाए जिसका स्थान सीधा डस्टबिन में है। एक शर्ट खरीदी आपने, कम्पनी ने आपको आकर्षक छपाई वाला महंगा पैकिंग मटेरियल, प्लास्टिक, पॉलीथिन, फोम, पुट्ठा बगैरह यहाँ तक कि आलपिन भी बेच दी आप खुशी-खुशी घर ले आए। माल की कीमत के साथ ही पेकिंग की भी कीमत वसूल की जाकर बाकायदा उसकी रसीद दी जाती है और यह खूबसूरत कचरा घर डस्टबिन और अटाले की शोभा बढ़ाने के लिए भेज दिया जाता है।
रोजमर्रा उपयोग की वस्तुओं जैसे चाय, कॉफी, साबुन, वॉशिंग पाउडर, टूथपेस्ट, ब्रश आदि-आदि सैकड़ों चीजों के साथ चम्मचें, कटोरियाँ, बरनियाँ, डिब्बे-डुब्बे, कप, मग्गे बगैरह कई चीज़ें थमाई जाती हैं और हम मुफ्तखोरी की अपनी आदत से मजबूर यह ना जानते हुए कि इसकी कीमत भी हम चुका चुके हैं, दॉत निपोरते हुए चले आते हैं। यह तमाम फालतू का कचरा बड़ी सफाई से हमारी आधी से ज्यादा कमाई उड़ा ले जा रहा है और व्यापार का आंकड़ा दिन दुगना रात चौगुना बढ़ रहा हैं। बेचने वालों की तिजोरियाँ भर रही हैं और अपने घर में कचरा डंप हो रहा है।
हम जैसे लाखों हैं जिनकी तनख्वाह से कुछ बचता ही नहीं है लिहाज़ा बाज़ार की भेंट भी नहीं चढ़ पाता । हम तो बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं कि कब एक तनख्वाह पर दो तनख्वाह फ्री बँटे तो हम भी बाज़ार की भावी संभावनाओं के मज़े लूटें। क्या पता एक नैनो पर दो नैनो फ्री मिलने लगें। इंतज़ार कर रहे हैं कि बाज़ार इतना उदार हो जाए कि एक फ्लेट पर दो फ्लेट फ्री और एक बंगले पर दो बंगले मुफ्त मिलें। हम भी मुफ्त के माल का सुख ले लें।
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गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

इनवेस्टर मीट

//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//                  
    आजकल देश में इन्वेस्टर मीट का सीज़न चल रहा है। देश-विदेश से बड़े-बड़े इनवेस्टर झुंड के झुंड पधार रहे हैं। हाल ही में हुई एक इन्वेस्टर मीट में मैं भी पहुँच गया, देखा शोरगुल के ज़रिए ऊर्जा का इन्वेस्टमेंट ज़्यादा हो रहा था। इन्वेस्टरों का एक समूह ‘‘ग्राउंड रियलिटी-ग्राउंड रियलिटी’’ चिल्ला रहा था - ‘‘ कहा जा रहा था कि सड़कें इस कदर ऊबड-खाबड़ और उधड़ी हुई हैं कि चलना-फिरना मुश्किल है। सड़कें ऐसी होना चाहिए कि खाया-पीया आँतों में हिले बगैर पच जाए और किसी को पता भी न चले। पहले रद्दी सड़कों को ठीक करवाया जाए फिर इन्वेस्टमेंट के बारे में सोचा जाएगा।’’
इतना सुनना था कि इन्वेस्टरों का दूसरा समूह गरजने लगा-‘‘ये लोग लक्झरी कारों, स्कूटर, मोटर-साइकिलों की बिक्री बढ़ाने के लिए सड़कें ठीक करवाना चाहते हैं, मगर यदि सड़कें ही चिकनी हो गई तो फिर हम क्या भुट्टे भूनेंगे ? हमारे टायर-ट्यूब कैसे बिकेंगे। हमारी फेक्ट्रियों में ताले लग जाएँगे ताले! श्रीमान यदि आप चाहते हैं कि हम भी रुचि लेकर इन्वेस्टमेंट करें तो आपको सड़कों को यथास्थिति में बनाए रखना होगा। यही नहीं, बल्कि उन्हें और भी ज़्यादा बरबाद करने के लिए वैज्ञानिक विधियों को अपनाना होगा ताकि हमारे साथ-साथ गाड़ियों के शॉकप बनाने वालों का भी फायदा हो। चिकित्सा-व्यवसाइयों को भी इससे अच्छा धंधा मिलेगा, क्योंकि गढ्ढों में गाड़ियाँ दौड़ाने से लोगों की रीढ़ की हड्डियाँ भी टूटेंगी।’’
                एक तीसरा इन्वेस्टरों का समूह उधर हल्ला मचाने लगा-‘‘श्रीमान! आपके प्रदेश में बिजली का कुप्रबंधन कितनी बड़ी बाधा है जानते हैं आप? आखिर हम इन्वेस्ट करे तो कैसे करें? और किसी को मिले न मिले, हमें भरपूर बिजली मिलना चाहिए!’’ इतना सुनना था कि चौथा समूह गरजने लगा-‘‘आ हा हा हा हा ! मतलबियों, भरपूर बिजली मिलने लगेगी तो हम क्या पचकुट्टे खेलेंगे। हमारे जनरेटर, इनवर्टर, यू.पी.एस, और मोमबत्तियाँ क्या तुम्हारा बाप खरीदेगा! श्रीमान, बिजली का प्रबधंन तो कुसे कु-तरहोना चाहिए।’’ कूलर, पंखे, फ्रीज, टी.वी. बल्ब, ट्यूबलाइट और बिजली से चलने वाले दूसरे उपकरण बनाने वाले फौरन उठकर खड़े हो गए और धमकाने की मुद्रा में चिल्लाने लगे-‘‘हम भी पचकुट्टे खेलने के लिए नहीं बैठे हैं यहाँ, भरपूर बिजली होगी तभी तो हमारा माल बिकेगा वर्ना ग्राहक को क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो हमारा माल खरीदेगा।’’
                एक अन्य समूह खड़ा हुआ और चीखने लगा-‘‘पानी कहाँ है श्रीमान! आज सुबह होटल में हम कितना परेशान हुए हम ही जानते हैं। जब नहाने धोने को पानी नहीं है तो प्रदूषित करने के लिए कहाँ से मिलेगा! कान खोल कर सुन लो, हमें चौबीस घंटे पानी की उपलब्धता और उसे प्रदूषित करने का फ्री लायसेन्स चाहिए, वर्ना हम तो ये चले। बोतलबंद पानी का धंधा करने वाले इन भावी प्रदूषणकारियों की वकालत में नारे बाजी करने लगे-‘‘प्रदूषणकारियों संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। फिर उन्होंने भी अपनी माँग पेश की -‘‘ढूँढ़-ढूँढ कर पानी का एक-एक स्त्रोत प्रदूषित करवाएँ श्रीमान, आखिर हमें भी अपनी बोतलें बेचनी हैं।’’
                एक-एक कर कई इन्वेस्टर अपने धंधे में रोड़ा बनने वाले दूसरे इन्वेस्टर की टाँगें खीच रहे थे। सही भी है, यदि एक को अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने के चक्कर में दूसरे के पेट पर लात पड़ती हो तो कौन इन्वेस्ट करेगा। उम्मीद है कि आने वाले समय में सभी इन्वेस्टरों की समस्याओं का एकजाई समाधान पहले से ही सोचकर रखा जाएगा ताकि किसी को तकलीफ न हो।
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रविवार, 12 अक्तूबर 2014

चीनी बाज़ार में घुसने की मारामारी

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
कुछ समय पहले चीनी राष्ट्रपति के साथ आए महत्वाकांक्षी चीनी व्यापारियों और महत्वाकांक्षा में उनके भी बाप भारतीय व्यवसायियों के बीच व्यापार संतुलन कायम करने की दृष्टि से अहमदाबाद में एक व्यापार बैठक का आयोजन हुआ, जिसमें एक-दूसरे के बाज़ारों में घुसने के उपायों पर गहन चर्चा की जाना थी।
बैठक के पूर्व खान-पान सेशन में खमण-ढोकला, खाखरे, फाफडे, और तमाम गुजराती खानों और पकवानों की बारिश सी चीनियों पर करते हुए हलवा‍इयों, मावा-मिठाई और फरसाण विक्रेताओं ने प्रश्‍नवाचक दृष्टि से चीनियों की ओर ताका ही था कि चीनी उद्यमियों ने उनका इरादा भाँपकर सभी को झटका सा देते हुए कहा -‘‘देखिए, यदि आप लोग सोच रहे हैं कि हम आपको चीन के चौक-चौराहों पर इसी खमण-ढोकला, खाखरे, फाफडे, और तमाम गुजराती खानों के ठेले लगाने की इजाज़त दे देंगे तो आप गलतफहमी में हैं। हम चीनी जनता के नाजुक पेट की कीमत पर धंधा करने की इजाज़त क़तई नहीं दे सकते।’’
मामला बिगड़ते देख हलवाइयों के प्रतिनिधियों ने चीनियों का पटाते हुए कहा-‘‘देखो भाईसाहब, हमारा शोध एवं अनुसंधान काफी विकसित है। हमने चीनी खाद्य पदार्थों को भारतीय स्टाइल में बनाने की विधियाँ खोज निकाली हैं, हम वही सब बेच कर गुज़ारा कर लेंगे। आप तो बस इजाज़त भर दे दीजिए। आप कहेंगे तो हम अपने अनुसंधानकर्ताओं को भारतीय आयटम चीनी स्टाइल में बनाने की विधियाँ खोजने में भी लगा देंगे। हाजमोला और पचनोल जैसे प्रोडक्ट्स भी थोक में निर्यात करेंगे जिससे खाखरे-फाफड़े पचाने में सुविधा होगी।
इधर खेल-खिलौने, प्लास्टिक आयटम्स और इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स बनाने वाले उद्यमी सुबह से ताक में बैठे थे कि मौका मिले तो वे अपनी बात चीनियों के सामने खुल कर रख सकें। जैसे ही उन्हें मौका मिला उन्होंने अपनी अटैची खोलकर एक-एक कर सारा सामान वार्ता टेबल पर बिखरा दिया-‘‘ये देखिए, ये देखिए! हमारा सामान क्या आपसे कमज़ोर है ? आपके खेल-खिलौनों और इलेक्ट्रॉनिक आयटमों से हमारा बाज़ार पटा हुआ है, हमें पाँव तक रखने की जगह नहीं है। आपके चक्कर में हमारी लुटिया डूबी पड़ी है। हमें भी चीनी बाज़ार में अपने आयटम लेकर कूँदने की इजाज़त मिलनी चाहिए।’’
एक चीनी बिजनेस ट्रायकून बोला- देखिए, यही तो समस्या है कि आपके आयटम हमारे आयटमों से कमज़ोर नहीं हैं। आप भी घर ले जाते ही खराब हो जाने वाले खिलौनों और इलेक्ट्रॉनिक आयटम्स का प्रचूर उत्पादन करने की क्षमता विकसित कीजिए तभी हमारे बाज़ार में खप पाएँगे। और ये गारन्टी-वारन्टी का लफड़ा भूलना होगा! यूँ साल-साल, छः-छः महीने की गारन्टी देते फिरोगे तो कर लिया धंधा। हमारी तरह घटिया सामान बनाइये, मिट्टी के मोल बेचना सीखिए, हम आपको निर्यात की सुविधा दे देंगे।’’
भारतीय उद्यमी बोल उठे-‘‘श्रीमान जी, फिर तो आपके देश में हमें कोई खरीदार नहीं मिलने वाला। हमारे देश में मिट्टी काफी महँगी होती है।’’
दवा लॉबी के लोग उठ खड़े हुए और कहने लग-‘‘हमें भी कुछ मौका दीजिए हुज़ूर, हमें अमरीकी मल्टीनेशनल वालों ने तबाह कर रखा है।’’ इस पर एक चीनी प्रतिनिधि बोला-‘‘तुम तो बैठ ही जाओ। एक तो नकली दवाइयाँ बेचते हो वो भी इतनी महँगी कि चीनी आदमी तो रेट सुनते ही बेहोश होकर गिर पड़े। क्या दवा की जगह सोना-चांदी भरते हो रैपर में, या हीरे-जवाहरातों से केप्सूल भरवाते हो ?’’
दवा लॉबी के प्रतिनिधि का देश प्रेम जाग गया। वह चीखता हुआ बोला-‘‘ऐ चीनी, फालतू बकवास करने का नई! कौन बे कहता है हम नकली दवाएँ बेचते हैं ? तुम्हारे बाप ने भी कभी खाईं हो दवाई तो जानो! एकूपंचर, एकूप्रेशर की सूईयाँ घुसेड़ने के अलावा तुम्हें आता क्या है। बड़े आए व्यापार समझौता करने वाले, तुम्हारे पिताजी ने भी कभी किया है समझौता?’’
चीनी व्यापारी भी हक्‍का-बक्‍का रह गए। हो-हल्ला मचना शुरू हो गया। भारतीयों को तो मेज-कुर्सी उठा-उठाकर फेंकने, माइक उखाड़ने का काफी ज्ञान था सो उन्‍होंने अपने इस हुनर का इस्‍तेमाल भी किया। चीनियों ने टेबल के नीचे छुप-छुप कर अपनी जान बचाई। हुड़दंगलीला के बावजूद भारतीय पान-गुटखा-सिगरेट बनाने वाले अपने-अपने आयटम चीन में खपाने की जुगाड़ में आशान्वित से बैठे थे। गांजा, भाँग चरस, देसी ठर्रा आदि-आदि बनाने वालों को भी चीनियों के सामने प्रस्ताव रखने का मौका मिलने की पूरी संभावना लग रही थी, वे भी डटे हुए थे। उधर अपना एक मूँफली वाला भी बालू रेत की भुनी मूँफलियों का थैला लटकाए उत्‍साह भरी निगाहों से चीनियों को ताकता हुआ सोच रहा था-‘‘ बस एक बार उसे चीन में घुसने का मौका मिल जाए, सारे चीन को मुँफलियाँ खिला-खिलाकर बरबाद न कर दूँ तो मेरा नाम नहीं।
मूँफली व़ाले का नम्‍बर आया या नहीं, पता नहीं। फुटपाथ छाप रेडीमेड कपड़े वालों, जूते-चप्पल के साथ-साथ झाड़ू, हाथ के पंखे, दीया-बाती, मटके व़ाले भी अपनी बारी के इंतज़ार में लाइन लगाए बाहर बैठे हुए थे, जाने कब तक बैठे रहे। इस कदर मारा-मारी थी कि पूछिए मत।
पता नहीं बेचारे चीनियों को टेबलों के नीचे से निकलकर चीनी माल भारतीय बाज़ार में उतारने के अपने महत्‍वाकांक्षी प्रस्‍ताव पेश करने का मौका मिला या नहीं, या वे जान बचाने के लिए वैसे ही भारतीय टेबलों के नीचे छुपे रहे।
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आज जनसंदेश टाइम्‍स लखनऊ में प्रकाशित 

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

उपासना देवी


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          उपासना देवी को जब से देखा है, मन ही मन आश्वस्त हो गया हूँ कि देश पर खाद्यान्न संकट कभी आ ही नहीं सकता, क्योंकि वे हफ्ते में पाँच दिन निराहारी उपवास करके देश के लिए काफी अनाज बचाती हैं। रोज़ाना कोई ना कोई व्रत-उपवास करना उनका प्रिय शगल है। हफ्ते के पाँच श्येडूल्ड उपवासों के अलावा बचे हुए दो दिनों में भी वे इस फिराक में रहतीं हैं कि कोई तीज-त्योहार आ पड़े तो चट उपवास कर किराना बचा लिया जाए। जैसे, इतवार को किसी देवी-देवता का दरबार खुला नहीं रहता, वीकली ऑफ रहता है, कोई उपवास करने की ज़रूरत नहीं होती, मगर वे तमाम पंचांगों-पोथियों को खंगालकर कोई ना कोई अवसर ढूँढ़ ही निकालतीं हैं, जिसके उपलक्ष्य में उपवास ठोककर घ्येय पूरा कर लिया जाए। बुधवार को आमतौर पर किसी उपवास का प्रचलन नहीं है, सो उनका दिन भारी बेचैनी में गुज़रता है। कलेजे पर भारी बोझ सा लादे वे सारा दिन मातम सा मनाती रहतीं हैं-कि हाय दिन भर से कितना अन्न बरबाद हो रहा है, उपवास होता तो बच सकता था।
          कभी-कभी एक ही दिन में दो-दो, तीन-तीन उपवासों के सुअवसर आ धमकते हैं। कोई और हो तो टेंशन उठ खड़ा हो कि अब किसके लिए उपवास करें! इस भगवान के लिए उपासे रहो तो वे देवी नाराज़ हो जाएँ, उन देवी के लिए उपवास कर लो तो वे ईश्वर खफा हो जाएँ। मगर उपासना देवी को कोई फर्क नहीं पड़ता, वे निरपेक्ष भाव से तीनों आदि शक्तियों के आव्हान में जुटकर, एकसाथ तीनों के लिए उपवास कर लेतीं हैं। उनकी इस समर्पण भावना से जहाँ देवी-देवता प्रसन्न होते होंगे वहीं उनमें निश्चित रूप से आपस में ठन भी जाती होगी। जहाँ एक देव मुदित होकर कहते होंगे-उपासना देवी ने आज हमारे लिए अन्न त्यागा है, दूसरे देव उन्हें हड़काकर कहते होंगे- गलतफहमी में मत रहियो, आज मेरा डेहै, बचपन से इस डेको बच्ची मेरे लिए ही भूखी रहती है। तीसरी देवी जी बीच में कूदकर दोनों से भिड़ जातीं होंगी-चुप रहो तुम दोनों! चूँकि स्त्रियों की समस्या निवारण का विभाग मेरे पास है, इसलिए उपासना मेरे लिए ही की जा रही है। वास्तव में उपासना देवी को इन तीनों से कोई खास मतलब नहीं होता उन्हें तो बस अन्न बचाने का खब्त सवार रहता है जो कि उन्हें संस्कार के रूप में घुट्टी में पिलाया गया है।
          व्रत-उपवासों के प्रति यह अनोखा समर्पण भाव देखकर ही उपासना देवी को इस घर की बहु बनाया गया था। माँ-बाप ने बचपन से उपवास कर-करके जो बचत की थी उसे दहेज में देकर ससुराल वालों को आश्वस्त किया गया था कि आपके घर में पहुँचकर जो अन्न यह प्रतिभाशाली कन्या बचाएगी उससे आपकी तमाम कुँवारी लड़कियों का शादी-ब्याह, जचकी-वचकी सब निबट जाएगी। ससुराल वाले भी दूरदृष्टि से ताड़ गए थे कि लड़के के खानदानी निकम्मेपन से भविष्य में परिवार पर जो संकट आएगा, जब सरकारें एक्सक्लूसिवली महँगाई बढ़ाने के लिए ही गठित की जाएँगी और दालें सौ रुपए किलो, शकर पचास रुपये किलो होकर सबको नानी याद दिलाएगी, तब यह पुण्यात्मा खुद भूखी रहकर हमारा ख्याल रखेगी। पारम्परिक ससुराल धर्म निबाहते हुए इस पर लात-घूसे चलाना भी सुविधाजनक रहेगा, क्योंकि रात-दिन उपासी रहेगी तो मुकाबले के लिए ताकत कहाँ से लाएगी! फिर सबसे बड़ी बात, यूँ रोज़ कोई ना कोई उपवास रहेगा तो इस बात की संभावना तो बिल्कुल सिरे से ही खत्म हो जाएगी कि बहु खुद तो खा-खाकर मुटाए और सास-ससुर को भूखा मारे! बाज़ घरों की बहुएँ इस गुण में जन्मजात पारंगत होतीं हैं।
          उपासना देवी के उपासे रहकर अन्न बचाने की इस निपुणता और लम्बे अनुभव को देखते हुए जबकि वे स्वयं सूखकर काँटे की प्रतिकृति हो चुँकि हैं, चटोरी, खबोर बहु-बेटियों के परिवारों से उन्हें कल्सल्टेंसी के प्रस्ताव भी मिलने लगे हैं। महँगाई के मारे लोग बड़ी आशा से उपासना देवी से टिप्स ले-लेकर अपनी बहु-बेटियों को उपवास करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास कर रहे हैं। बहन बेटियाँ खुद भी स्वप्रेरणा से उपासना देवी से दीक्षा लेकर अन्न बचाने की मुहीम में तन-मन से जुटती जा रही हैं।
     उपासना देवी के अनुयाइयों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। मुझे पूरी आशा है कि उपासे रह-रहकर बचाए गए दाने-दाने से अंततः देश का खाद्यान्न भंडार समृद्ध हो रहा है। देखा जाए तो देश में मात्र दो शक्तियों की समर्पण भावना की वजह से हमारा यह खाद्यान्न का भंडार कभी खाली नहीं होता और रात दिन खाने वालों के लिए भी हर वक्त अन्न उपलब्ध रहता है। एक तो देश की अधिकांश गरीब-गुरबा आम जनता जिसके नसीब में माता अन्नपूर्णा का आशीर्वाद है ही नही, दूसरी "उपासना देवी" और उनकी अनुयाइनें जो भूखी रहकर इस भंडार को कभी खाली ही नही होने देती हैं। अच्छा है, यह भी आखिरकार एक तरह की देश सेवा ही है जो कि महँगाई के इस विकट दौर में बेहद ज़रूरी है।
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मासिक पञिका कादम्बिनी के अक्‍टूबर-2014 अंक में प्रकाशित