शनिवार, 30 अगस्त 2014

बदनाम हैं तो क्या, नाम तो है

//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//
पुराने ज़माने में लोग ऊँचे चरित्र वालों से अपने निकट रिश्तों का बखान कर-कर के अपना सिक्काजमाते थे। अवश्य ही राजा हरीशचन्द्र के वंशजों ने कई पीढ़ियों तक यही किया होगा। अब माहौल बदल गया है। अब कुख्यात लोगों से निकटता होना महानताकी बात हो गई है और हरीशचन्द्राई बदनामीका सबब बन गई है।
शहर के कुछ बिल्डरों पर इन्कमटैक्स का छापा पडा। मार्निंग वॉक पर लोग अपना कद बढ़ा रहे हैं। कोई बोला-‘‘ इन्कमटैक्स व़ालों को तो अभी पता चला, हमें पहले से ही पता था कि इनके पास बहुत माल है! हमारे तो बड़े करीबी हैं! हमारी मौसी की सास की ननद के सगे देवर के लड़के होते हैं। बिल्कुल घर जैसी बात है।’’ दूसरा कह रहा है-‘‘ अब क्या बताएँ! जब कुछ नहीं थे तब से जानते हैं। फटी चप्पल पहनकर आते थे हमारे पास। आज भी बहुत मानते हैं।’’ तीसरा कह रहा है-‘‘बड़े सज्जन हैं। हमने तो उन्हीं से फ्लेट लिया है। लिया क्या ज़बरदस्ती थमा दिया उन्होंने। कहने लगे करोड़ों की प्रापर्टी दे रहा हूँ, याद करोगे। भाई साहब से नीचे बात नहीं करते। जब भी मिलते हैं ज़रूर पूछते हैं-कैसे हैं भाई साहब?’’ सज्जन बेचारा, इन्कमटैक्स की चोरी कर मुँह छुपाता घूम रहा है।
साहब व्यापम घोटाले में धरे गए हैं। जानने वाले उनके प्रभाव से अपना प्रभामंडल विस्तृत करने की कोशिश कर रहे हैं। ‘‘दम है उस आदमी में। कुछ नहीं बिगड़ने वाला। हमारी तो दाँत काटी रोटी रही है। हमसे भी बोले थे कोई हो तो बताओ। डाक्टर-इन्जीनियर जो कहोगे बनवा देंगे। लाख-दो-लाख कम में काम करवा देंगे। बल्कि वे तो बोल रहे थे तुम्हें भी कमवा देंगे। हमने कहा-आपका आशीर्वाद बना रहे बस और क्या।’’ दूसरा शेखी मार रहा है-‘‘ बदमाश तो वो पहले से था! साथ गुल्ली-डंडा खेलते थे। अपने काम को कभी मना नहीं किया। आज भी अगर जेल में जाकर मिलूँ तो ज़रूर कहेगा-पहले ही कही थी बिल्लू, काम करवा ले, पर चिन्ता मति करियों चुटकी बजाते ही बाहर आ जाएंगे। साहब बेचारे चुटकी बजा बजा कर थक गए हैं, बज ही नहीं पा रही है। जमानत तक नहीं हो रही।
बलात्कारी हैं, मगर शहर के बड़े आदमी हैं। लोगों का अंदाज़ देखिए-‘‘जब चाहे फाइव स्टार होटल में बड़ी से बड़ी मॉडल को हायर कर सकता है कम्बख्त। पता नहीं क्या सूझी बंदे को, नौकरानी की लड़की से ही जा चिपटा। हम तो बहुत साथ रहे हैं उसके। अच्छे से जानते हैं। बहुत रंगरेलियाँ कि पट्ठे ने, मगर मजाल है जो कभी कोई लोचा हुआ हो। दूसरा कैसे चुप रह सकता था, बोला- अरे एम.कॉम. में बंदा मेरी नकल मार कर पास हुआ है। बड़ा आदमी बन गया, चरित्र में मगर है वैसा ही संत का संत। यह केस पता नहीं कैसे गले पड़ गया। सेटिंग नहीं कर पाया बेचारा।‘‘ संत, जेल में बंद, अदालत में अपनी पेशी का इंतज़ार कर रहा है।
ईमानदारी पर अडिग रहने के कारण बार-बार ट्रांसफर, सस्पेंशन झेलने वालों के हाल देखें, सगे रिश्तेदार बातें करते हुए मिल जाएंगे-‘‘बेवकूफ हैं साले! अरे ज़माने के हिसाब से चलना चाहिए। हमने तो कोई रिश्ता ही नहीं रखा जबसे उन्होंने दहेज लेने से मना कर दिया था। कभी कोई काम लेकर जाओ तो टका सा जवाब दे देते है। न खाते हैं न खाने देते हैं। हमने भी कह दिया एक दिन, भाड़ में जाओ, थूकने भी नहीं आएंगे कभी चौखट पर।
           कहावत है, बदनाम हैं तो क्या, नाम तो है। उनके नाम से हम भी महान हो लें तो क्या हर्ज़ है! ईमानदारों को तो मेडल मिलने से रहे, हमें क्या मिलेगा।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

पुलिस वालों की पप्पी झप्पी


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट// 
लो, यूँ तो भारतीय पुलिस दुर्व्‍यवहार, गाली-गलौच, मारपीट-ठुकाई, डंडोपचार के लिए भारी बदनामी झेलती आई है, मगर अब जब वह अपने-आप में क्रांतिकारी सुधार के साथ अपराधियों का माथा चूम रही है, प्यार-मोहब्बत, पप्पी-झप्पी का लड़ियल आचरण अपना रही है, तब भी लोगों के पेट में दर्द हो रहा है। लगे हैं आलोचना पर आलोचना ठेलने, बेचारे प्रेमी जीव को सस्पेंड करवा दिया। अरे क्या हुआ जो शुरुआत अपराधियों से हो रही है, धीरे-धीरे शरीफ, सीधे-साधे लोगों को भी पुलिस वालों की पप्पियों और आलिंगन का लाभ मिलेगा। आप देखेंगे इस बदलाव के आश्चर्यजनक परिणाम निकलेंगे।
अभी कुछ ही दिन हुए है दिल्ली में पुलिस वालों ने छात्रों को खूब दौड़ा-दौड़ाकर पीटा है। भले ही बेचारों ने अपनी मातासे कभी चपत तक न खाई हो, मगर मातृभाषाके लिए उन्हें खोपड़ियाँ तुड़वाना पड़ी। पुलिस ज़रा पहले सुधर गई होती तो उन्हें सिपाहियों का वात्सल्यमय आलिंगन और चुंबनों की बौछार मिल सकती थी। पुलिस वाले वाटर कैनन में भरकर प्रदर्शनकारियों पर पप्पियोंकी बौछार कर सकते थे। कानून तोड़ने वालों के आँख-कान-नाक में प्रदूषित पानी की जगह पप्पियाँघुसतीं, तो वे निहाल होकर फिर अँग्रेजी से माथाफोड़ी करने जा बैठते।
पुलिस के चरित्र में यह युगान्तरकारी परिवर्तन मुझे तो बेहद सुखद लग रहा है। आप आजकल दादागिरी से किसी से कुछ नहीं निकलवा सकते। डंडे मारकर ना सत्य बाहर आता है और न नोटों के बंडल। प्यार से आप पिछले जन्म तक की वारदात कबूलवा सकते हैं। और तो और उस पिछले जन्म की वारदात को रफादफा करने के लिए इस जन्म की मुद्रा में धनलाभ भी पा सकते हैं। प्यारके बदले कोई भी सब कुछ प्यारसे देगा। दादागिरी आदमी को उदंड बना देती है। इसी घटना को लें, थानेदार अगर पुलिसिया अंदाज़ में कातिल को तमाचा मार देता तो संभव है कातिल भी पलटकर तमाचा जड़ देता। क्या भरोसा, आजकल बेटे भी बाप को पलट कर चाटा मार देते हैं, बाप कुछ नहीं कर पाता। इसलिए पुलिसवालों को अपने कमीनेपन की वजह से पिटने की नौबत आ जाए इससे पहले ही उसे अखिल भारतीय स्तर पर अपने आचरण में आमूल-चूल परिवर्तन ले आना चाहिए और सभी अपराधियों-निरपराध बंदों को चुंबन सुख बाँटना शुरू कर देना चाहिए। मुँह से ठर्रे का भभका छोड़े बिना पुलिस उन्हें बाहों में जकड़-जकड़कर आलिंगन सुख लुटाएँ फिर देखिए, न घर-घर में पुलिस फोटो लगें तो फिर कहना।
पुलिस में इस अद्भुत किस्म के परिवर्तन से लोग भले अपराध करना न छोड़े लेकिन उसे कबूल करने के लिए वे अवश्य ही दौड़े-दौड़े थाने चले आएंगे। ऐसा होने लगा तो फिर न थानों में इतना पुलिस बल पाल कर रखने की ज़रूरत होगी न कोर्ट-कचहरी, लॉकअप, जेल पर करोड़ों रुपयों का बजट प्रावधान रखना पड़ेगा। बस चंद पप्पियों-झप्पियों से ही काम हो जाएगा। देश अपराध मुक्त हो जाएगा।
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मंगलवार, 5 अगस्त 2014

कच्चे-चिट्ठों की किताब



//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
सोचता हूँ जल्दी से जल्दी एक आधुनिक छापाखाना और प्रकाशन संस्थान खोल लूँ, इस धंधे का भविष्य उज्वल होता दिखाई दे रहा है। लोग मोटी-मोटी किताबों की शक्ल में आरोपलगाने लगे हैं। और तो और इन आरोपों की किताब के प्रत्युत्तर में प्रत्यारोपों की किताब भी लिखने की तैयारियाँ चल रही हैं। इसी मौके को कहते हैं हींग लगे न फिटकरी फिर भी रंग चोखा। अपन को कुछ करना नहीं है, बस बैठकर किताब पर किताब छापते जाना है। खरीदने वाले मूर्खों की तो कोई कमी है ही नहीं अपने देश में! लिखने वालों के चमचे और राजनैतिक गासिप प्रेमी ही इतनी किताबें खरीद लेंगे कि अपने तो वारे-न्यारे हो पडेंगे।
देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी के ठोस परिणाम सामने आने लगे हैं। लोग किताब भर-भर के आरोपों की अभिव्यक्ति करने लगे हैं और उतनी ही मोटाई में रेडीमेड प्रत्यारोप या उत्तर का मैटर उपलब्ध कराने लगे हैं। पहले की तरह नहीं कि किसी ने चोरकह दिया तो चुप लगा कर कोप भवन में जा बैठे। या, प्रत्युत्तर में ज़्यादा से ज़्यादा ज़्यादा से ज़्यादा बीवी-बच्चों की कसम खा ली, मामला खत्म। आजकल तू चोरके आरोप का-तेरा बाप चोर’, ‘तेरा दादा चोर’, ‘तेरा काका-मामा-नाना चोरआदि-आदि की व्यापक रेंज में जवाब देने का प्रचलन प्रारम्भ हो गया है। इस नवाचार में जेट गति की कल्पनाशीलता, अभिव्यक्ति की भीषण आज़ादी और लेखन क्षमताओं के क्रांतिकारी विकास के प्रताप से पुस्तक व्यवसाय की चाँदी होने की संभावनाएँ बन पड़ी हैं। जब लिखने और छपने के धंधे में सौ-सौ हाथों वाले आ रहे हैं तो समझदारी इसी में है कि अपन दो हाथों वाले शराफत से छापने और बेचने के धंधे में लग जाएँ, इसी में सार है।
इधर कोर्टों में अपराधियों पर पन्द्रह-पन्द्रह हज़ार पेजों के आरोप पत्र प्रस्तुत करने का चलन देखने में आ रहा है। अपराधियों की ओर से उनका उत्तर कम से कम चालीस-पचास हज़ार पृष्ठों में तो दिया ही जाता होगा! लेखन की ऐसी प्रचंड परम्परा टाइपिंग के कागज़ों में सड़-गल जाए इससे अच्छा तो इन्हें बढियाँ ग्लेज़्ड पेपर पर हार्ड बाउन्ड किताब की शक्ल में प्रस्तुत करने की बाध्यता माननीय कोर्ट लागू कर दे, तो यह कचरा सदियों तक सुरक्षित भी रहे और हम नवमुद्रक-प्रकाशकों की पाँचों उंगलियाँ घी और सर कढ़ाई में तर जाए। हम इस मौलिक बौद्धिक संपदा को हज़ारों की तादात में किताबों की शक्ल देकर देश की कोने-कोने में पहुँचा देंगे, जिससे कई लोग प्रेरणा ले सकेंगे और शोधार्थियों का भी लाभ होगा।
इस नवीन परम्परा से उन लिख्खाड़ों का भी काफी फायदा होगा जो मौलिक चिन्तन-मनन के अभाव में हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए हैं। कुछ नहीं तो वे ऐसे महानुभावों-महानुभाव्याओं के कान्ट्रेक्ट लेखक बनकर उनकी भावनाओं की कालिख से कागज़ काले कर अपनी रोजी-रोटी सम्हाले लेंगे।
कुछ भी कहिए, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। लोग दनादन एक दूसरे के कच्चे-चिट्ठों पर किताब लिखें, आरोप लगाएँ, जवाब दें, हमारा छापाखाना और प्रकाशन संस्थान दिन दूनी रात चौगूनी तरक्की करें।      
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