सोमवार, 8 मार्च 2010

अपहरण नारी मुक्ति आन्दोलन का

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
अन्तराष्ट्रीय नारी मुक्ति आन्दोलन का प्रतीक-अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस आठ मार्च फिर आ गया। मेहनतकश, कामकाज़ी महिलाओं के इस ऐतिहासिक नारी मुक्ति आन्दोलन का बहुत पहले ही उन विदूषी नारियों द्वारा अपहरण किया जा चुका है जिनको खुद कभी कोई काम नहीं करना पड़ता। इसका अपहरण किया है अच्छे खाते-पीते घरों की मोटी-ताज़ी नारियों ने जो अपने घर में काम करने वाली बाइयों को साल में एक दिन भी छुट्टी मनाने की इजाज़त नहीं देतीं। बाई की तबियत नासाज़ हो, पति, बच्चा बीमार हो या दूसरा कोई झमेला हो, मालिकिन को अपने हाथ से बरतन माँजना, झाड़ू-पोछा लगाना इतना अखरता है कि गुस्से में आकर वे बाई की चुटकी भर तनखा भी काट लेती है। गिलास-प्लेट-मग्गा टूट जाए, इस्तरी करते हुए कपड़ा जल जाए, नुकसान को तुरन्त हिसाब में जोड़ लेती हैं। अपहरण किया है बड़के नौकरशाहों की अर्धांगिनियों की एसोसिएशनों ने जो बाहर तो नारी मुक्ति-नारी मुक्ति खेलती है और घर में बच्चे की आया को सुबह-शाम तमाचे जड़ती हैं।
अपहरणकर्त्तियों का महिला दिवस मनाने का तरीका अनोखा होता है। दस-बीस खाई-अघाई महिलाएँ बढ़िया आठ-दस हज़ार कीमत की साड़ियाँ पहन, नकली-असली जेवरों से लद-फदकर, नेल पालिश, लिपिस्टिक, रूज़-पाउडर लगाकर, इंपोर्टेड परफ्यूम की खुशबू में लिपटी हुई किसी होटल के लॉन में इकट्ठा होकर गेट-टुगेदर करती हैं। चेयररेस, तम्बोला, अंताक्षरी इत्यादि-इत्यादि खेलों के ज़रिए मनोरंजित होकर खाना-वाना खाकर मुक्ति के सुखद एहसास के साथ लक्झरी गाड़ी में सवार होकर घर लौट आतीं हैं। इनमें से कुछ बुद्धिजीवी किस्म की महिलाएँ महिलाओं की भाषण प्रतियोगिता, कविता-कहानी प्रतियोगिता, चित्रकला-रंगोली प्रतियोगिता इत्यादि टाइप की गतिविधियाँ सम्पन्न करतीं हैं जो बाज़ार सृजित सभ्य समाज में रचनात्मक गतिविधियों के नाम से बदनाम हैं।
कुछ उच्च शिक्षित नारीवादी नारियों का नारीवादी आन्दोलन उनके इर्द-गिर्द के पुरुषों से शुरू होता है और उन्हीं पर खत्म हो जाता है। ‘पुरुषमात्र’ उनके लिए दुनिया का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। पुरुष रूप में उनके समीपस्थ किसी भी व्यक्ति में ऐन-केन-प्रकारेण दो-चार जूते घल जाएँ तो उनका कलेजा ठंडा हो जाता है और मुक्ति आन्दोलन सफल हो जाता है। ऐसी नारियों का नर तो बेचारा जैसे नारी मुक्ति आन्दोलन की प्रयोगशाला में किसी गिनीपिग की तरह का प्राणी होता है जिस पर नए-नए परीक्षण किये जाकर नए-नए नारीवादी सिद्धांत खोजे जाते हैं। नारीवादी नारियों का यह एक अलग सम्प्रदाय सा होता है जो चाहता है कि दुनिया में क्रांति हो तो ऐसी हो कि सारे पुरुषों का खात्मा लग जाए और चारों ओर नारियों ही नारियों की सत्ता हो। इससे पीटने के लिए पुरुषों के अभाव की चिंता उन्हें बिल्कुल नहीं होती।
सुविधाभोगी नारियों से परे बहुत सारी मेहनतकश नारियाँ हैं जो सचमुच मुक्ति के इंतज़ार में हैं। वे यहाँ-वहाँ के महिला संगठनों के आव्हानों से आव्हानित होकर एक दिन की कमाई को तिलांजलि देकर एक जुट होती हैं, एकजुट होने का भाषण सुनती है, एकजुट होकर एकजुट होने के नारे लगाती है और एकजुटता से मुक्त होकर शाम को जैसे ही घर पहुँचती हैं, पति परमेश्वर को डंडा लिए तैयार बैठा पाती है। चूँकि एकजुटता को वह भाषण स्थल पर ही छोड़ आई है, इसलिए दारू के लिए पैसे ना देने पर पति के हाथों पिटते वक्त दिन भर एकजुटता और नारी मुक्ति का भाषण पिलाने वाला कोई नेता उसे बचाने नहीं आता।
इस तरह महिला अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस, निर्विकार भाव से, अगले साल फिर आने के लिए लौट जाता है।