सोमवार, 17 मई 2010

ब्लॉगिंग में ठलुआते हुए एक साल

//प्रमोद ताम्बट//
ब्लॉगिंग में ठलुआते हुए 15 मई को हमें एक साल पूरा हो गया। यू तो इसमें घुसने की जद्दोजहद हम 15 मई 2009 से भी पहले कई महीनों से कर रहे थे लेकिन कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में इसके चर्चे सुन-सुनकर दिमाग पर एक आतंक सा तारी था ब्लॉगिंग का, मगर इस आतंक से मुक्त होने के लिए ब्लॉगिंग की राह बताने वाला कोई नहीं था। सोचते थे कि एक टाँग लेखन में और दूसरी कम्प्यूटर में होने के बावजूद कम्बख्त यह ब्लॉगिंग हमारे अत्याचारों से महरूम कैसे रह सकती है। आखिर गूगल पर ढूढ़-ढूढ़कर पता चला कि ब्लॉगिंग है किस चिड़िया का नाम, फिर भी यह खोज काफी दिन तक चली कि आखिर हमारा सिर ब्लॉगिंग में कैसे घुसे।
जैसे तैसे www.blog.co.in का राज खुला और हमने हफ्तों की मेहनत के बाद इस पर अपना ब्लॉग बनाने में सफलता पाई, मगर फिर सबसे बड़ा एक सवाल सामने आ खड़ा हुआ कि इसमें पोस्ट कैसे लगाई जाए। पूरे बारह घंटे की मेहनत के बाद हमने देवनागरी फोन्ट में टंकित अपनी व्यंग्य रचनाओं को उसमें चिपकाने में सफलता पाई, और जब ब्लॉग खोला तो देखा कि वहाँ तो अंग्रेजी फोंट की खिचड़ी सी पकी हुई है। अब खोज का एक और क्षेत्र खुला कि कम्बख्त ये ब्लॉगर्स दुनियाभर को अपनी पोस्ट हिन्दी में पढ़वाने में कैसे कामयाब हो जाते हैं। फिर गूगल की शरण में जाना पड़ा। कई तरह की सर्च लगाने के बाद एक और नई बला सामने आई जिसका नाम था यूनीकोड। कम्प्यूटर के जितने जानकार मेरे परिचितों में थे उन दिनों उन सबसे मैंने इस बला के बारे में जानना चाहा, लेकिन कोई ठीक-ठीक बता नहीं पाया कि यह यूनीकोडहै क्या चीज़। कोई बोला यह एक तरह का कोड होता है जो किसी को नहीं मालूम होता है, किसी ने कहा यह तो परमाणु बम का कोड है जो कि प्रधानमंत्री के पास होता है और कोई हाँकने लगा, यह तो जैसे मास्टर की होती है वैसा एक कोड होता है जिससे दुनिया का कोई भी कम्प्यूटर खुल सकता है। जितने मुँह उतनी बातें। किसी ने तो यह भी कहा कि वो जो दवाइयों के रैपर पर बार कोडिग बनी होती है उसे यूनीकोड कहते हैं।
आखिर फिर गूगल काम आया और उसने हमें वेबदुनिया की यूटिलिटी तक पहुँचाया जहाँ देवनागरी को यूनीकोड में ट्रांसफर करने की सुविधा उपलब्ध थी। यह खोज हमारे लिए किसी हीरे की खदान से कम नहीं थी। तुरंत उसमें अपने व्यंग्य यूनीकोड में परिवर्तित ब्लॉग पर लगाएँ और उसका लिंक अपने कुछ परिचित-अपरिचितों को भेजा कि भैया पढ़ो हमने भी तीर मार लिया है।
मुझे याद है सबसे पहले श्यामल सुमन जी ने मुझे हड़काया कि भैये हिन्दी तो ठीक से लिखना सीख लो। को लिख रहे हो, और भी कई गलतियों की तरफ उन्होंने मेरा ध्यान आकर्षित किया। गलती मेरी नहीं थी, वेवदुनिया के यूनीकोड कन्वर्टर में जो कमियाँ थी वे सब उस व्यंग्य में दिखाई दे रहीं थी। मैंने श्यामल जी को समस्या बताते हुए निवेदन किया कि कोई अच्छा यूनीकोड कन्वर्टर हो तो बताएँ। उन्होंने मुझे गूगल ट्रांसलिटरेशन का लिंक भेजा। इसमें रोमन में लिखना मुझे दुनिया का सबसे बोर काम लगा। चूँकि मुझे हिन्दी टाइपिंग आती थी इसलिए मैं चाहता था कि मेरे व्यंग्य फटाफट बिना किसी कान्हा-मात्रा, नुक्ते की त्रृटि के हुबहू यूनीकोड में परिवर्तित हो जाएँ, लेकिन आज जबकि मैं काफी बेहतर सुविधाओं का उपयोग कर रहा हूँ फिर भी ऐसा कोई कन्वर्टर मुझे अब तक नहीं मिला है जिसमें त्रृटिहीन कन्वर्शन हो जाए।( मेरे ब्लॉग व्यंग्य पर इस पोस्ट के बाद श्री रवि रतलामी जी ने मुझे एक त्रृटिहीन कन्वर्टर भेज दिया है।)
खैर, व्यंग्य नाम का मेरा ब्लॉग चल निकला। मैंने अपने सम्पर्कों की सूची लगातार बढ़ाते हुए हरेक नई पोस्टिंग पर अपने ब्लॉग का लिंक और आलोचना समालोचना प्रतिक्रिया का निवेदन लोगों को भेजना शुरू कर दिया। लोगों ने प्रतिक्रिया में तारीफों की झड़ी लगा दी। कुछ लोगों ने मेरा निवेदन मानते हुए आलोचना और समालोचना भी की। एक बोला -है कौन बे तू, तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे मेल बाक्स में आने की ? खबरदार जो आइन्दा आया ! एक बहनजी बोलीं, तुम जैसे लफंगों को मैं खूब जानती हूँ, आइन्दा अगर ऐसी हरकत की तो पुलिस में कम्पलेंट कर दूँगी। हमने तुरंत ऐसे गुस्सैल आलोचकों को अपनी मेलिंग लिस्ट से बिदा किया। लेकिन फिर भी बहुत सारे लोगों ने दुनिया भर से ब्लॉग का तहेदिल से स्वागत किया और हमारे लेखन को खूब सराहा। तारीफों के वे पुलंदे मैंने अपने ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया के तहत सजा कर रखे हैं। हालॉकि सारी प्रतिक्रियाएँ मैं उसमें अब तक नहीं डाल पाया हूँ क्यों कि यह जो www.blog.co.in वेवसाइट है, अपने आप में बेहद नखरैल वेवसाइट है। मन होता है तो पोस्टिंग, एडिटिंग करने देती है, नहीं होता तो अपना थोबड़ा तक नहीं दिखाती। आज भी जब मुझे कुछ संदर्भों के लिए इसपर अपना ब्लॉग देखना है यह खुलने में नखरे कर रही है। इससे तंग आकर मुझे ब्लॉगस्पाट डॉटकॉम पर एक नया ब्लॉग व्यंग्यलोकखोलना पड़ा। अभी मैं दोनों ब्लॉगों में बराबरी से पोस्टिंग करता हूँ।
इस समय तक हमें एग्रीगेटरों के बारे में मालूम नहीं था। जहाँ तक मुझे याद है माननीय दिनेश्वर द्विवेदी जी ने मुझे कई सारे एग्रीगेटरों के लिंक दिए जिनके साथ मैंने मशक्कत करके उनके लिंक अपने ब्लॉग पर लगाए, मगर मेरा अनुभव है कि इनमें से कोई भी एग्रीगेटर अच्छी तादात में पाठक मुहैया नहीं कर पाता। इसलिए मैं तो अब भी अपने ब्लॉग की, व्यंग्य रचनाओं की पसंद नापसंद का आकलन अपने व्यक्तिगत सम्पर्कों से प्राप्त प्रतिक्रियाओं के आधार पर करता हूँ। एग्रीगेटरों पर बमुश्किल 5-10 से लेकर 20-25 पाठक मिलते हैं, जिसमें हमारा रिकार्ड तो 0 तक का भी है, प्रतिक्रियाएँ भी कभी कभी 1-2 मिल पातीं हैं ( अपवादस्वरूप व्यंग्य में इस पोस्ट पर 25 कमेन्ट मिले हैं ), लेकिन आंकड़ों के लिए हमारे द्वारा तैनात गूगल एनालेटिक्स की माने तो इस एक साल में हमारे ब्लॉग पर 56 देशों के 346 शहरों के 3000 से ज़्यादा विजिटर्स आ चुके हैं, 7500 से ज़्यादा विज़िट्स हो चुकी हैं। यह आंकड़े मेरे लिए बेहद उत्साहित करने वाले हैं, और देश विदेश के मेरे इन्हीं पाठक महानुभावों को धन्यवाद देने के लिए मैंने व्यंग्य से हटकर आज की यह पोस्ट लिखी है।
पिछले दिनों मैंने अपने इतने दिनों के अनुभवों के आधार पर परिकल्पना ब्लॉग के श्री रवीन्द्र प्रभात जी के अनुरोध पर परिकल्पना ब्लॉगोत्सव के लिए एक लेख ‘‘ब्लॉगिंग को परिवर्तन के हथियार के रूप में ढालने की जरूरत है......’’ लिखा था जो कि http://utsav.parikalpnaa.com/2010/04/blog-post_7114.html पर उपलब्ध है। आशा करता हूँ ब्लॉगिंग जगत में इसे समझने की कोशिश की जाएगी।
अंत में पुनः मैं अपने सभी प्रशंसकों, आलोचकों, समालोचकों, और विशेषकर अनुज खरे (व्यंग्यकार) जैसे मित्रों का आभार प्रकट करना चाहूँगा जो लगातार मुझे उत्साहित करते हुए लेखन की ऊर्जा प्रदान करते रहते हैं। मैं उन बलाओं का भी तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहूँगा जो मुझे पाज़ीटिव एनर्जी प्रदान करती रहती हैं जो कि सृजन के लिए बेहद ज़रूरी है।

रविवार, 2 मई 2010

व्यंग्य-संतई का संभावनापूर्ण रास्ता


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

     इन दिनों झूर के संत बनने का मन कर रहा है। क्या मजे है संतों के! बड़े-बड़े वातानुकूलित आश्रम, बड़ी-बड़ी लक्झरी गाड़ियाँ, धन-दौलत, सुख-समृद्धि, आनंद-मंगल सभी कुछ! सबसे बड़ी बात दर्जनों भक्तिनों का प्रेम-भक्तिभाव, ऐसा स्वर्णिम अवसर भला और किस धंधे में मिलता है! वैसे तो हर कहीं औरतों को निहार भर लेने से महिला उत्पीड़न का आरोप और बेभाव जूते पड़ने की सीधी संभावना प्रबल बनी रहती है। एक यही संतई का धंधा ऐसा है जिसमें विशेष आशीषाभिलाषिनों को किसी भी कोण से, किसी भी प्रकार का आशीर्वाद दे दो लाभदायक होता है।
    जवानी से लेकर इस अधेड़ावस्था तक क्या-क्या लंपटयाई नहीं की! लम्बी-लम्बी ज़ुल्फें रखीं, रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर छैला बने घूमे, दर्जनों बालाओं के इर्द-गिर्द भँवरों की तरह मंडराए, फेरे मारे, चप्पलें घिसीं, मगर परिणाम अनुकूल  नहीं आए। फिर फिल्मी कवियों-शायरों के अनुयाई बनकर पथभ्रष्ट हुए, कविताई की, शायरी लिखी, मगर मछुआरे सी तपस्या के अभाव में एक मछली तक जाल में नहीं फाँस पाए। उस वक्त यह अक्ल नहीं आई कि लफूटियाई छोड़कर कहीं छोटा-मोटा  आश्रम डाल लेते, सन्यास धारण कर लेते, आशीर्वाद देने का धंधा करते, तो काम आसानी से बन जाता, और आज एक-दो नहीं दर्जनों दुःखी आत्माएँ अपना तन-मन-धन अर्पण कर स्वेच्छा से आश्रम में पड़ी रहतीं, जब जिसको जी चाहे आशीर्वाद दे लेते, सम्पन्न भक्तों से भी दिला देते।
    ज़िन्दगी भर सर पटकते रहे कि कहीं कोई छोटा-मोटा धंधा कर लेंते जो आगे जाकर विशाल नेटवर्क का रूप ले सके, मगर फालतू पूँजी और नसों-नाड़ियों में धंधे के उस कला-कौशल का उद्याम प्रवाह ना होने के कारण यह संभव नहीं हुआ। संत हुए होते तो ना पूँजी की ज़रूरत होती ना किसी पुश्तैनी कला-कौशल की- स्वयंस्फूर्त आयोजना से दुनिया के सबसे पुराने धंधे के एक विशाल रैकेट का निर्माण निश्चित रूप से हो सकता था जिसके सफल प्रबंधन के माध्यम से हम किसी छोटे-मोटे साम्राज्य का सुख तो भोग ही सकते थे, मगर जीवन में कभी कोई प्लास्टिक का रैकेट तक हाथ में पकड़ा हो तब ना दूसरा कोई रैकेट पकड़ पाते।
    सुनहरे भविष्य के सपनों की दुनिया में ऐसे मदहोश रहे कि धन के मुक्त प्रवाह का उद्गम और दिशा ही देख ना पाए, छोटी-मोटी, घटिया सी चाकरी को ही ऐशो-आराम और जीवन का सार समझते रहे, ताड़ ही नहीं पाए कि असली ऐश तो वहाँ हैं जहाँ छूछा पुण्य भर बाँटने के बदले में अकूत धन मिलता है, वास्तव में जो जीवन का सार है। अन्दाज़ा ही नहीं लगा पाए कि बड़े-बडे़ ओहदेदारों का लाइन लगाकर आश्रम के दरवाजे पर खडे़ रहने का सुख क्या होता है, जिनके खुद के दरवाज़े पर आम जनता लाइन लगाए खड़ी रहती है। ये ओहदेदार अपनी-अपनी ओहदादारी के हिसाब से सेवाएँ भी देते रहते हैं और आश्रम में सम्पन्न हो रहे गोरखधंधों पर पर्दा डालने के साथ ही साथ केश और काइंड में मोटे-मोटे चढ़ावे भी पेश करते हैं। आश्रम के किसी कोने में हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, ड्रग कारोबार जैसा, भारतीय दंड संहिता में वर्णित मामूली सा अपराध घटित  हो जाए तो प्राण-प्रण से जान बचाने के लिए दौड़ भी पड़ते हैं।
    कभी-कभी मति मारी जाती है तो आदमी संभावनापूर्ण रास्तों को छोड़कर आलतू-फालतू रास्तों पर चला जाता है। संतई का रास्ता ऐसा विकट संभावनापूर्ण रास्ता है जिसमें सन्यास का अद्भुत आनंद भी है और क्षूद्र सांसारिकता का सुख भी। अब भी समय है, बीती ताहि बिसार कर आगे की सुध लें, तो जिन्दगी का कुछ मज़ा आए।