//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
एल्लो, यह भी कोई बात हुई! पूछा जा रहा है कि हमने ‘पी.एम.’ की क्यों नहीं सुनी ! एक बात साफ-साफ कहे दे रहे हैं कि एक यही आदत हममें कभी नहीं रही। बड़ों की बात सुनना अच्छी बात है, मगर हममें यह गुण ही होता तो क्या हम राजनीति में आते ? बचपन से इसी बात पर पिटते आ रहे हैं कि हम किसी की सुनते नहीं। पहले माँ-बाप से पिटे, फिर मास्टरों से पिटे, फिर गली-मोहल्लों में पटक-पटक कर पीटे गए। पिटते-पिटते कब राजनीति में आ गए पता ही नहीं चला। राजनीति में भी पहले अपोज़िट पार्टी वालों से पिटे फिर अपनी ही पार्टी के अपोज़िट गुट वालों से पिटे, मगर मजाल है जो हमने कभी किसी की सुनी हो। अरे, अगर सुनना ही होती तो पुलिस में जाते, फौज में जाते, दिन-रात सुनते रहते दाएँ मुड़, बाएँ मुड़। मगर जब सुनने-वुनने के संस्कार हमने विरसे में पाए ही नहीं तो फिर यह गिरी हुई हरकत हम करते ही क्यों ?
अव्वल तो हमें यह बताया जाए कि मंत्री बनाते समय हमसे कब कहा गया कि हमें ‘पी.एम.’ की सुनना ही पड़ेगी! दूसरे यदि हमसे सुनने का ही काम कराना था तो फिर क्यों हमें मंत्री बनाया गया! चलो बना दिया तो बना दिया, फिर क्यों नहीं पार्लियामेंट में हमसे शपथ खवाई गई कि हम ऐसे ‘पी.एम.’ की बात भी सुनेंगे जो कुछ बोलता ही नहीं। चार लोगों के सामने अगर हमसे माइक पर यह कसम खवा ली जाती तो हम सुनते, बिल्कुल सुनते। बल्कि, उन्हीं की सुनते, और किसी की सुनते ही नहीं। जनता की तो बिल्कुल ही नहीं सुनते।
चलो छोड़ो, आप तो यह बताओ कि संविधान के, किस पन्ने के, किस अध्याय की, किस धारा की, किस उपधारा के, किस संशोधन में यह लिखा हुआ है कि हमें ‘पी.एम.’ की सुननी ही सुननी है। अगर लिखा हो तो बताओ, हम सुनने को तैयार हैं। हमें फिर मंत्री बनाओं, ‘पी.एम.’ कहेगा कि सर के बल खड़े हो जाओ, तो हम सर के बल खडे़ हो जाएँगे। मगर संविधान में जब ऐसा कुछ लिखा ही नहीं है तो फिर हमसे ऐसे असंवैधानिक सवाल-जवाब क्यों किये जा रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा।
ठीक है कि हमें किसी की सुनने की आदत नहीं, परन्तु ऐसे कोई कान के हम बहरे नहीं है कि कोई कुछ कहे और हम सुने ही ना! मगर यदि कोई बहुत ही धीमें-धीमें कुछ कहे तो हम भला कैसे उसकी बात सुन लें। अच्छा हो कि सभी को सरकारी खर्चे पर कान की मशीन दिलवा दी जाए ताकि यह समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाए।
आइन्दा के लिए यह भी सुनिश्चित कर लिया जाए कि ‘पी.एम.’ ऐसा बनाया जाए जो बोलता हो और ज़ोर से बोलता हो। तभी हम उसकी बात कान खोल कर सुन पाएँगे। अगर ऐसा ही शांत, धीर-गम्भीर, विद्वान, बुद्धिजीवी किस्म का ‘पी.एम.’ बनाया गया तो हम बताए दे रहें हैं कि हम सुने ना सुने कोई गारन्टी नहीं।
दिनाँक 10.12.2010 को पत्रिका में प्रकाशित।
bahut badhiya vyangya....sachmuch aaj tak main to p.m saahab ki baat nahi sun paayaa...unki baat paper padhakar hi samajha/suna jaa sakta hai.
जवाब देंहटाएंगठजोड़ वाली सरकार में तो बेचारे पीएम को सबकी सुननी पड़ती है।
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जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें