नईदुनिया में प्रकाशित |
पैदाइश से लेकर अब तक एक बात जो शिद्दत से महसूस होती आई है वह यह कि ‘महँगाई’ से बड़ा मुद्दा इस देश में दूसरा कोई कभी नहीं रहा। बाप-दादों के ज़माने में ‘शुद्ध घी’ जब ‘पावली-सेर’ आता था तब भी ‘महँगाई’ एक विराट समस्या होती थी और आज जब चार सौ रुपए किलो पाया जाता है तब भी ‘महँगाई’ उसी साइज़ की समस्या है।
दुनिया में चाहे दूसरी जितनी भी झँझटें दरपेश हों लेकिन कोई सच्चा भारतीय अगर किसी विषय पर हर वक्त चिंतनशील पाया जाता है तो वह सिर्फ और सिर्फ ‘महँगाई’ ही है। इस ज्वलंत विषय पर वह चौबीसों घंटे और सातों दिन बहस-मुबाहिसे में मुब्तिला रह सकता है, नतीजा चाहे कुछ निकले या ना निकले। दीन-दुनिया से विरक्ति उपजाने वाले चिर-शांतिस्थल ‘मरघट’ में भी यदि उसे मौका मिले तो वह ‘ठठरी’ को एक तरफ छोड़कर ‘महँगाई’ के मुद्दे पर ही वैचारिक संघर्ष चालू कर देगा।
ऐसा शायद उसी दिन से होता आ रहा होगा जिस दिन से ‘बाज़ार’ नामक खतरनाक संघटना अस्तित्व में आई और धरती पर मुफ्त में उपलब्ध सब्ज़ी-भाजी पहले-पहल मोलभाव में बिकना शुरू हुई। बार्बर सिस्टम में जब अनाज के बदले में कभी थोड़ी कम प्याज़ हासिल हुई होगी तो तत्कालीन आदिमानवों ने एकत्र होकर ज़रूर चिन्ता ज़ाहिर की होगी कि - देखो कमबख्त प्याज़ कितनी महँगी हो गई है! हो सकता है भीषण महँगाई के मुद्दे पर उन्होंने किसी को ज्ञापन भी दिया हो, जिस पर कोई कार्यवाही ना हुई हो।
मुद्दा महँगाई का हो तो हमारे देश में जनचेतना बहुत ही जबरदस्त किस्म की हो जाती है जो आमतौर पर ‘गालियों’ की शक्ल में अभिव्यक्त होती है, और चूँकि गालियाँ खाने के लिए देश में ‘सरकार’ नामक एक जड़ संघटना हर वक्त हर कहीं उपलब्ध रहती है इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ज़्यादातर इस्तेमाल ‘सरकार’ के खिलाफ ही होता है। आलू-प्याज़ उपजाता कोई है, खेत से उठाता कोई है, मंडी तक लाता, रिटेल में बेचता, खरीदता कोई है और खाता कोई है। इस बीच में कानून के ‘होल’ का इस्तेमाल करके जमाखोरी, कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी का धंधा कोई और ही करता है। परन्तु, जब महँगाई डायन जेब में पड़े रोकड़े को ठेंगा दिखाने लगती हैं तो गालियाँ गरीब ‘सरकार’ को पड़ने लगतीं हैं। सरकारें भी बला की बेशरम होती हैं, महँगाई के मुद्दे पर कुछ ना कर पाने की मुद्रा बनाकर पूरी सहिष्णुता और संयम से गालियाँ खाती रहती है।
इन दिनों लोग सरकार के हर उस डिपार्र्टमेंट को गालियाँ दे रहे हैं जो गंभीरता से मूक बनकर महँगाई को बढ़ते हुए देखने का काम कर रहा है। जिन्हें उन डिपार्टमेंटों के नाम नहीं मालूम वे सीधे-सीधे सरकार के मुखिया को गरिया रहे हैं। यह बात भी बड़ी अजीब है, कि लोग बाज़ार से सब्ज़ी-भाजी तो छंटाकभर खरीदेंगे, जिससे शायद ही किसी का पेट भरता हो, मगर बीच चौराहे पर खड़े होकर, महँगाई के बहाने बेचारी सरकार को ‘गालियाँ’ भर पेट देंगे। इस भीषण महँगाई में जब और कुछ किया जाना संभव नहीं, पेट भरने का यह तरीका जायज़ हो या नाजायज़, सस्ता तो है।
दुनिया में चाहे दूसरी जितनी भी झँझटें दरपेश हों लेकिन कोई सच्चा भारतीय अगर किसी विषय पर हर वक्त चिंतनशील पाया जाता है तो वह सिर्फ और सिर्फ ‘महँगाई’ ही है। इस ज्वलंत विषय पर वह चौबीसों घंटे और सातों दिन बहस-मुबाहिसे में मुब्तिला रह सकता है, नतीजा चाहे कुछ निकले या ना निकले। दीन-दुनिया से विरक्ति उपजाने वाले चिर-शांतिस्थल ‘मरघट’ में भी यदि उसे मौका मिले तो वह ‘ठठरी’ को एक तरफ छोड़कर ‘महँगाई’ के मुद्दे पर ही वैचारिक संघर्ष चालू कर देगा।
ऐसा शायद उसी दिन से होता आ रहा होगा जिस दिन से ‘बाज़ार’ नामक खतरनाक संघटना अस्तित्व में आई और धरती पर मुफ्त में उपलब्ध सब्ज़ी-भाजी पहले-पहल मोलभाव में बिकना शुरू हुई। बार्बर सिस्टम में जब अनाज के बदले में कभी थोड़ी कम प्याज़ हासिल हुई होगी तो तत्कालीन आदिमानवों ने एकत्र होकर ज़रूर चिन्ता ज़ाहिर की होगी कि - देखो कमबख्त प्याज़ कितनी महँगी हो गई है! हो सकता है भीषण महँगाई के मुद्दे पर उन्होंने किसी को ज्ञापन भी दिया हो, जिस पर कोई कार्यवाही ना हुई हो।
मुद्दा महँगाई का हो तो हमारे देश में जनचेतना बहुत ही जबरदस्त किस्म की हो जाती है जो आमतौर पर ‘गालियों’ की शक्ल में अभिव्यक्त होती है, और चूँकि गालियाँ खाने के लिए देश में ‘सरकार’ नामक एक जड़ संघटना हर वक्त हर कहीं उपलब्ध रहती है इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ज़्यादातर इस्तेमाल ‘सरकार’ के खिलाफ ही होता है। आलू-प्याज़ उपजाता कोई है, खेत से उठाता कोई है, मंडी तक लाता, रिटेल में बेचता, खरीदता कोई है और खाता कोई है। इस बीच में कानून के ‘होल’ का इस्तेमाल करके जमाखोरी, कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी का धंधा कोई और ही करता है। परन्तु, जब महँगाई डायन जेब में पड़े रोकड़े को ठेंगा दिखाने लगती हैं तो गालियाँ गरीब ‘सरकार’ को पड़ने लगतीं हैं। सरकारें भी बला की बेशरम होती हैं, महँगाई के मुद्दे पर कुछ ना कर पाने की मुद्रा बनाकर पूरी सहिष्णुता और संयम से गालियाँ खाती रहती है।
इन दिनों लोग सरकार के हर उस डिपार्र्टमेंट को गालियाँ दे रहे हैं जो गंभीरता से मूक बनकर महँगाई को बढ़ते हुए देखने का काम कर रहा है। जिन्हें उन डिपार्टमेंटों के नाम नहीं मालूम वे सीधे-सीधे सरकार के मुखिया को गरिया रहे हैं। यह बात भी बड़ी अजीब है, कि लोग बाज़ार से सब्ज़ी-भाजी तो छंटाकभर खरीदेंगे, जिससे शायद ही किसी का पेट भरता हो, मगर बीच चौराहे पर खड़े होकर, महँगाई के बहाने बेचारी सरकार को ‘गालियाँ’ भर पेट देंगे। इस भीषण महँगाई में जब और कुछ किया जाना संभव नहीं, पेट भरने का यह तरीका जायज़ हो या नाजायज़, सस्ता तो है।
इतने हाथों से होकर सब्जी आयेगी तो मँहगी हो ही जायेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया व्यंग्य!
जवाब देंहटाएंसादर
मारक व्यंग्य लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंक्या आपने अपने ब्लॉग से नेविगेशन बार हटाया ?
वाह! बहुत ही बेहतरीन तरीके से कटाक्ष किया है आपने... अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंवाकई पेट भरने का सबसे सस्ता तरीका.
जवाब देंहटाएंवास्तविकता है.
जवाब देंहटाएंnice
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