रविवार, 19 अगस्त 2012

मेरे गहरे साहित्य प्रेमी दोस्त और मैं



//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
व्‍यंग्‍ययाञा के अप्रैल-जून 2012 के अंक में प्रकाशित 

एक विकट साहित्य प्रेमी से इन दिनों मेरी गहरी दोस्ती है। मतलब गहरी तो वे मानते हैं, मैं अलबत्ता इतनी गहराई में जा नहीं पाता, उनसे सामना होते ही ऊपर ही सतह पर कहीं फड़फड़ाने लगता हूँ। जिस दिन से उन्हें पता चला है कि मैं थोड़ा बहुत साहित्यिक रुचि रखने वाला जीव हूँ, दोस्ती के बहाने उन्होंने मेरा जीना हराम कर रखा है।
दरअसल वे जब प्रायमरी स्कूल में पढ़ा करते थे तब कोई साहित्यकार किस्म के अध्यापक उनके स्कूल में चार-छः दिन के लिए आए थे और अपने कुछ कीट कक्षा के सभी छात्रों पर छोड़ गए। बाकी छात्र तो समय रहते उन साहित्य-कीटों से मुक्त हो गए और यहाँ-वहाँ काले धंधों में लग कर गंगा नहा ली, मगर मेरे ये दोस्त जिनका नाम कोमलचंद सुखनंदन विद्याधर वाचस्पति और तखल्लुस पागलथा अपने नितांत असाहित्यिक शिक्षण-दीक्षण के लम्बे दौर और हिन्दी विषय में अनुत्तीर्ण होने की क्रमबद्ध परम्परा के बावजूद उन संक्रामक साहित्यिक कीटों को अपने साथ जीवंत ढोते रहे। उनके ये साहित्यिक कीट रेलवे स्टेशन के बुक-स्टॉल, रद्दी वाले के ठेले, सेकंड हैंड किताबों के ठीए या किसी बुद्धिजीवी के घर पर किताबों का जखीरा देखकर सक्रिय हो जाते थे। मेरे घर में भी छुपा कर रखी होने के बावजूद उन्होंने किताबें देख ली थीं और इसका नतीजा यह हुआ कि तब से वे मेरे घर को अपना ही घर समझने लगे थे। वे जब भी मुझे समक्ष में पाते अपने सुप्तप्रायः साहित्यिक कीटों की सम्पूर्ण ताकत के साथ मुझ पर हमला कर देते और अपने ऊटपटांग सवालों से मुझे घायल करते रहते।
एक दिन वे आए और मुझसे बोले ‘‘फ्राड की थ्योरी पढ़ी है ?’’
मैंने कहा ‘‘नहीं फ्राड करने की मेरी कभी कोई योजना नहीं रही।
वे रुष्ठ हो गए, बोले ‘‘सिरीयस बातों पर मज़ाक मत करो जी। फिलास्फर फ्राड की पूछ रहा हूँ मैं ?’’
मैंने कहा अच्छा फ्रायड की बात कर रहे हैं आप।
वे लपक कर बोले ‘‘वही वही, उसी की बात कर रहा हूँ मैं। कहाँ तो फॉरेन कंट्री में हुआ था वो.....याद ही नहीं....! मैंने उन्हें दूसरी बातों में उलझाकर फ्रायड को उनके दिमाग से निकाला वर्ना वे उस दिन ज़रूर मेरे दिमाग का कचूमर निकाल कर ही मानते।
आए दिन वे कोई ना कोई अजीब सवाल ले आते और बुद्धिजीवितापूर्ण गंभीरता से मुझसे जवाब माँगने लगते। एक दिन उन्होंने मुझ पर एक ऐसा सवाल दागा कि मैं विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। उन्होंने प्रश्न किया था, ‘‘क्यों ये गुलेरी जी आजकल जिन्दे हैं कि मर गए ?’’
मैंने कहा, ‘‘यार उन्हें गुज़रे हुए ज़माना हो गया।
वे तुरन्त बोले,‘‘ तभी आजकल उनकी कोई कहानी किसी अख़बार, पत्र-पत्रिका में छप नहीं रही। उसने कहा थाके बाद कोई कहानी कहीं देखने-सुनने में ही नहीं आई। उनकी रील जाने किस ज़माने में अटकी हुई थी।
एक दिन वे मेरे घर आए। मेरी किताबों की रैक में कुछ लेखकों के समग्र संकलन एक के ऊपर एक रखे हुए हैं। मुक्तिबोध रचनावली के छः खंडों के ठीक ऊपर परसाईं रचनावली के छः खंड इस तरह रखे हुए थे कि प्रत्येक खंड की स्पाइन पर बडे़-बड़े अक्षरों में लिखा मुक्तिबोध रचनावली’, ‘परसाईं रचनावलीसाफ-साफ दिख रहा था। उन्होंने घर में घुसते ही पता नहीं अपनी अलौकिक दृष्टि के किस कोण से पुस्तकों को देखा कि देखने के तुरंत बाद उनकी अद्भुत प्रतिक्रिया से मुझे गश आते-आते रह गया। वे अपने खुद के अज्ञान पर अज्ञान का एक अनोखा व्यंग्य बाण सा चलाते हुए बोले, ‘‘अच्छा, हमें तो पता ही नहीं था कि परसाईं जीने मुक्तिबोधभी लिखी है।’’ मैं उनकी इस नई खोज पर हतप्रभ रह गया परन्तु आगामी वैचारिक संघर्ष के डर से मुँह में दही जमाए चुपचाप बैठा रहा और उनके जाते ही तुरंत किताबों का स्थान बदल दिया ताकि कोई और विद्धान ऐसी अनोखी खोज प्रतिपादित ना कर सके। दरअसल उनके पुराने डाटा बेस में किन्ही कारणों से परसाईं तो मौजूद थे परन्तु चूँकि मुक्तिबोध की लॉचिग उस वक्त हो नहीं पाई थी इसलिए उनके दिमागी प्रोसेेसर ने गलत गणना कर परिणाम पेश कर दिया था।
एक दिन उन्होंने बड़े उत्साह से मुझसे पूछा, ‘‘अत्री जीे को जानते हो ?’’
मैंने कहा, ‘‘हाँ, सागर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।
वे बोले, ‘‘नहीं यार जिन्होंने चन्द्रकांताऔर संततिजैसी धाँसू किताबें लिखी हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘अत्री नहीं यार खत्री कहो, देवकी नन्दन खत्री।
वे बोले, ‘‘हाँ हाँ वही, एक अक्षर का ही तो हेरफेर है। उनकी चंद्रकांता तो मैंने पढ़ी है, मगर संतति नहीं पढ़ पाया। आपके पास हो तो देना ज़रा, पढ़ ही डालें।’’
मैंने कहाँ, ‘‘अकेली संततितो हमने भी नहीं पढ़ी कभी। चन्द्रकांता संततिचाहिए तो ले जाइए।’’  
वे बोले, ‘‘चन्द्रकांता दोबारा पढ़कर क्या करेंगे, आप तो अकेली संतति दे दो।’’
मेरे पास माथा पकड़ कर बैठने के अलावा कोई चारा नहीं था।
मैंने उन्हें कुछ पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं थी। शराफत से उन्होंने सारी पुस्तकें वापस तो कर दी परन्तु एक ऐसा सवाल उन्होंने मेरे माथे पर दे मारा जिसका सामना मैंने ताज़िन्दगी कभी नहीं किया। वे तीर की तरह तमाम जोशियों के नाम अपने मुखारबिंद से उच्चारित करते हुए बोले, ‘‘क्यों, ये प्रभाष जोशी, शरद जोशी, हरी जोशी, प्रभु जोशी, ज्योतिष जोशी सब भाई-भाई हैं क्या.......?’’ मेरा मन हुआ कि कह दूँ ‘‘हाँ और मालती जोशी इन सबकी बहन हैं।’’
एक बार प्रेमचंद और शरदचंद्र पर कहीं से कोई विश्लेषण पढ़कर वे सीधे मेरे पास आए और घर में इन दोनों लेखकों की जितनी पेपरबैक पुस्तकें थीं सब इकट्ठा कर लीं और जाते-जाते एक प्रश्न मेरे लिए छोड़ गए जिसके संबंध में ना तो स्वर्गीय श्री विष्णु प्रभाकर जी ने कभी सोचा होगा ना ही श्री कमल किशोर गोयनका जी ने। उनका प्रश्न था, ‘‘क्यों प्रेमचन-शरदचन क्या बाप बेटे थे ?
मैंने कहा, ‘‘नहीं यार !’’
‘‘तो फिर भाई-भाई होंगे.....? वे तपाक से बोले।
मैंने एक गहरी खामोशी अख्तियार कर ली और वे निरुत्तर प्रस्थान कर जाने के लिए मजबूर हो गए।
व्यंग्यकार होने के नाते मेरे सौजन्य से उन्हें ज़्यादातर व्यंग्य ही पढ़ने को मिलते हैं, नतीजतन वे कभी-कभी हँसते-हँसते और कभी-कभी गहरी स्तब्धता ओढे हुए मुझे रात-बे-रात फोन करते रहते हैं, और वैसे ही हँसते-हँसते या स्तब्धता ओढे़ हुए फोन पर बिना कुछ कहे फोन काट दिया करते हैं। एक दिन उन्होंने रात को बारह बजे मुझे फोन किया और कहा, ‘‘यार कुछ भी कहो, शरद जोशी भी थे प्रतिभा के धनी इंसान, एक तरफ उन्होंने अपने व्यंग्यों से लोगों की नाक में दम कर दिया तो दूसरी ओर किसान आन्दोलन भी क्या जोरदार चलाया, एट ए टाइम दो-दो काम, वाह।’’ मैंने खामोशी से फोन बंद किया और इस विकट व्यक्तित्व के मस्तिष्क प्रकोष्ठों में विचरण करने लगा, कहीं तो वो खाना होगा जहाँ ताला लगा देने से ये मेरे अनन्य मित्र खुद भी चैन से रह सकेंगे और मुझे भी परेशान नहीं करेंगे।   
अगली सुबह तड़के वे मेरे घर के बाहर खडे़ थे और उनकी जु़बान पर बिल्कुल ताज़ा सवाल तैयार रखा हुआ था, यार ये रवीन्द्रनाथ टैगोर और रवीन्द्रनाथ ठाकुर दोनों ने ही एक सी गीतांजलि लिख मारी ?’’ मैंने चट से बाथरूम का दरवाज़ा खोला और अन्दर घुस गया। उनके सवालों से बचने का इससे अच्छा कोई तरीका नहीं था। बाथरूम में मैं मेरे इन साहित्य प्रेमी गहरे दोस्त से छुटकारा पाने की तरकीबें सोचता रहा और वे मेरे बुक शेल्फ से किताबें उठाकर नई किसी गुत्थी में उलझने की तैयारी करने लगे।