गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

न समझोगे तो मिट जाओगे, अरे ओ ‘आप’ वालों

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
समझते क्या हो अपने-आपको? हरीशचन्द्राई का ठेका ले रखा है क्या आपने, जो हम सबको चोर-उच्चकों का सर्टिफिकेट बाँटकर खुद दूध का धुला बने फिर रहे हो। कान खोलकर सुन लो, झूठे वादे करके आपदुनिया को बेवकूफ बना सकते हो, हमें नहीं। यह हक पारम्परिक रूप से सिर्फ हमारे पास है। हमी हैं जो वादाखिलाफी के बावजूद दो-दो तीन-तीन पारियों में खेल जाते हैं। आपको तो वादे पूरे कर देने के बाद भी हम एक पारी तक पूरा टिक जाने दें, तो हमारा नाम बदल देना। अपनी औकात में रहो आपवालों, समझे कि नहीं समझे।
गुरबक समझते हो हमें? बरसों-बरस से बनी लीक तोड़गे! जनता को पानी दोगे! और वह भी मुफ्त! उल्लू के पट्ठों, जनता क्या मुफ्त पानी देने के लिए होती है? मूर्खों, इतना भी नहीं पता कि जनता को उंगली पकड़ाओ तो वो पोछा पकड़ लेती है। आपउसे पानी दोगे तो वह साफपानी माँगने के लिए आ खड़ी होगी। तो क्या सबको आर.ओ. सिस्टम बाँटते फिरोगे? जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ करना चाहते हो नराधमों! कीड़े पडे़ंगे कीड़े आपके शरीर में। कितनी घृणास्पद और निंदनीय बात है, सार्वजनिक नलों पर झौंटा-झॉटी, गाली-गलौच, सिर-फुटव्वल और खून-खच्चर की सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति को जड़ से खत्म करना चाहते हो बदमाशों, तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।
बिजली का बिल आधा करोगे, जैसे बिजली आपके बाप की है । अरे है बाप की तो पूरा बिल ही माफ कर दो न, कौन रोक रहा है आपको? ‘आपतो बिल के साथ-साथ उसे जमा करने के लिए पैसे भी बाँट दो जनता में, हमारे बाप का क्या जा रहा है! मगर, ताजा-ताजा गल्ले पर बैठे हो बेटों इसलिए भाई समझ कर समझा रहे हैं, जनता को बिजली-विजली नहीं दी जाती, सिर्फ बिल दिया जाता है। दुगना है, तिगुना है, या चार-पाँच-छः गुना यह नहीं देखा जाता। दादागिरी से उससे पैसे भरवाए जाते हैं, या फिर लाइन काट दी जाती है। कोई ज़्यादा चू-चपड़ करें तो उसे जेल भिजवा दिया जाता है। यह होता है सुशासन का तरीका, मगर नए-नए आए हो न, ‘आपनहीं समझोगे।
बतोलेबाज़ी की हद होती है, कह रहे हो कि दिल्ली में पाँच सौ सरकारी स्कूल खोल दोगे। अबे, उनमें पढ़ने के लिए बच्चे कहाँ से लाओगे! और प्रायवेट स्कूलों के मालिकों को क्या धूनी रमाने के लिए हिमालय भेज दोगे? या कि उन स्कूलों के बाहर डंडा धारी पुलिस बिठाओगे? हद है! कल को तो आपकहने लगोगे कि जनता को पढ़ाई के लिए स्कूलों में धक्के खाने की ज़रूरत नहीं है, हम घर-घर में स्कूल खोल देंगे। जनता के बच्चों को इस तरह घर-घर जाकर ज्ञानी बना देने की परम्परा अच्छी नहीं है, समझ लो अच्छे से। कल को यही जनता और उसके बच्‍चे जूते-चप्पल हाथ में लेकर आपको ही ज्ञान बाँटने के लिए आ खड़े होंगे। भागते फिरोगे गली-गली।
परसों तुम्हारा नया शिमूफा होगा कि जनता को मरने के लिए प्रायवेट अस्पतालों में जाने की जरूरत नहीं है, ‘आपगली-गली में सरकारी अस्पताल खोल दोगे और मुफ्त इलाज और दवाइयाँ भी बँटवाओगे। इतना कमीनापन अच्छा नहीं। करोड़ों रुपये खर्च कर स्थापित हुए कुशाग्र बुद्धि डॉक्टर और लायसेंस के लिए लाखों रुपया खर्चा कर धंधे पर बैठे ड्रगिस्ट-केमिस्ट क्या फुटपाथ पर बैठकर जड़ी-बूटी कूटेंगे ? ‘नानसेंस’, किसी दिन कहोगे प्रदूषण बहुत है, सारी जनता को आक्सीजन सिलेंडर बाँटे जाएंगे, मुफ्त! यह सब क्या सरकारी जिम्मेदारियाँ हैं? बिगाड़ रहे हो जनता को! कल को हम वापस आएंगे तो इतना सब कुछ कैसे कर पाएंगे? बंद करो यह लोकतंत्र-लोकतंत्र का नाटक, दिमाग खराब कर के रख दिया आपने।
गप्प हॉक रहे हो कि मुंसीपाल्टी, कलेक्ट्री, आर.टी.ओ. में किसी को दलाली देने की जरूरत नहीं है, सारे काम मुफ्त हो जाएंगे। पंजीरी बँट रही है क्या सालों? लोकतंत्र में ऐसा कहीं होता है। लोकतंत्र का मतलब क्या यह होता है कि सब कुछ मुफ्त बँटने लगे, सब को सब कुछ मिल जाए, चारों ओर अमन चैन हो, सब कुछ ठीक-ठाक चलने लगे। मूर्खों हमारी नहीं तो कम से कम अपनी तो चिंता कर लो, पहली बार में ही जनता को सब कुछ दे दोगे, तो अगले चुनावों में वोटों के लिए जनता क्या बांगलादेश से लाओगे?
बावलों अगर सपने में भी यह सोचते हो कि आपजैसे पढ़े-लिखों की गुडागर्दी से देश की सारी जनता आपके झाँसे में आ जाएगी तो सुन लो, अभी बच्चे हो, जनता को झाँसे में लाने का जो अनुभव हमें है, तुम्हें बिल्कुल नहीं है। सावधान हो जाओ ईमानदारी के पिल्लों, हमारी फौज आपको भौंक-भौंक कर खदेड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार है। हम आपको भंभोड़कर रख देंगे और काटेंगे-घसीटेंगे अलग। आपको इस देश से खदेड़कर ही दम लेंगे।
वह समय गया जनतंत्र की औलादों, जब जन का, जन के लिए, जन के द्वारा चलाए जाने वाले परोपकारी राज्य को जनतंत्रकहने की कुप्रथा प्रचलन में थी। हमने एडी-चोटी का जोर लगा कर ऐसी कुप्रथाएँ खत्म की और धन का, धन के लिए, धन के द्वारा स्वलोभकारी राज्य की स्थापना की जो आज धनतंत्रके नाम से जोर-शोर से चल रहा है। आपलोग जन-जन को फालतू की पट्टी पढ़ाकर हमारी भविष्य की सारी योजनाओं पर पानी फेरना चाहते हो! याद रखो, भूलकर भी अगर ऐसी नापाक हरकत की, तो दौड़ा-दौड़ाकर इसी जनता से पिटवाएंगे आपको, जो कि लहरा-लहरा कर आपकी घिनौनी झाड़ू दिखाने की जुर्रत कर रही है हमें।
कम्बख्तों, जीयो और जीने दो के सिद्धांत पर चलना चाहिए, मगर नहीं! ना जाने किस मिट्टी के बने हो, जरा भी लोच नहीं है। अगला चुनाव फिर सर पर आ गया है, खर्चे पानी के लिए कुछ तो माल अन्दर कर लेने देते! दया-धर्म कुछ है कि नहीं दुनिया में? हमें पता है लालची बंदरों, तुम हमें बिल्कुल हॉथ मारने नहीं दोगे। खुद, पाँचों उंगलियाँ घी में और सर कढ़ाई में डाल कर बैठना चाहते हो चांडालों, ताकि सारे मुल्क पर कब्ज़ा कर सारा माल अकेले ही चॉप सको! मगर आपकी तो ऐसी की तैसी, हमने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली है, जो जुम्मा-जुम्मा चार दिन में हम जैसे घाघों को किनारे कर सको! तुम रायता बनाना शुरू तो करो, हम भी उसे फैलाने के लिए कमर कस के तैयार बैठे हैं। ना हमने तुम्हारे रायते को मिट्टी में मिला दिया, तो संसदीय प्रजातंत्र के पटल से हमारा नामो-निशान जे.सी.बी. लगवाकर खुरचवा देना, हम कुछ नहीं कहेंगे। अब सम्हल जाओ, ज्यादा होशियारी मत झाड़ो। न समझोगे तो मिट जाओगे, अरे ओ आपवालों तुम्हारी दास्तॉ भी न होगी दास्तानों में।