शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

फैक्चर्ड मैनडेट



//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
दिल्ली की जनता को फैक्चर्ड मैनडेटदेने की सज़ा मिली है-दोबारा चुनाव! इसके बाद भी यदि जनता न मानी तो दोबारा, तिबारा फिर चौबारा और पाँचवी बार भी हो सकते हैं चुनाव। जब तक किलियर कट मैजोरिटी नहीं दोगे बेटों, झेलते रहो चुनाव। सही हों-गलत हों, चोर हों-लुटेरी हों, भ्रष्ट हों-निकम्मी हों, कैसी भी हों राजनैतिक पार्टियाँ, मैनडेट तो तुम्हें किसी एक को देना ही पड़ेगा नासपिटों, यही लोकतंत्र का तकाज़ा है।
लेकिन मुझे लगता है कि अगर राजनैतिक पार्टियाँ आपस में तालमेल न बिठाकर यूँ ही बार-बार चुनाव-चुनाव खेलती रही तो कहीं ऐसा न हो कि जनता, तमाम पार्टियों को घर बैठने की सलाह देकर खुद ही सरकार बना ले और कुटिर उद्योग की तरह उसे चलाए। क्या कहा ? लोकतंत्र है! जनता ऐसा नहीं कर सकती! ऐसा करना तो सरासर देशद्रोह कहलाएगा। सरकार तो किसी न किसी पार्टी को ही चलाना पड़ेगी! जनता का फर्ज़ है कि वह चुपचाप किसी एक पार्टी को मैनडेट थमाकर सरकार चलाने का अधिकार दे और घर जाकर आराम करे। भूले से भी खुद उस अधिकार का इस्तेमाल करने की जुर्रत की तो समझ लेना, इतने डंडे पडेंगे कि नानी याद आ जाएगी।
फिर क्या करें? किसी को भी पकड़कर राज्याभिषेक कर दें? आ भई, तू फालतू बैठा है, आजा बैठ जा आकर गद्दी पर और फटाफट अपने नौरत्‍न एपाइंट कर ले। चलने दे नादिरशाही की तर्ज पर दिल्ली की सरकार। यह भी नहीं हो सकता, लोकतंत्र इसकी इजाज़त नहीं देता। लोकतंत्र इस बात की इजाज़त दे देता है कि जनता तीन-चौथाई तादात में नादिरशाहों को चुनकर क्लियर मेनडेट दे दे, बाकी सरकार चलाने का काम वे खुद कर लेंगे। जनता को तकलीफ उठाने की कोई ज़रूरत नहीं।
एक और आइडिया है। इधर सरकारी सेवकों की सुप्रसिद्ध मक्कारी की वजह से बहुत सारी सेवाएँ प्रायवेट सेक्टर को सौंपी जाने लगी हैं। क्यों न लगे हाथ यह एक्सपेरीमेंट भी कर लें, कि दिल्‍ली में सरकार चलाने का जिम्मा प्रायवेट सेक्टर को सौंप दिया जाए। शीर्ष कार्पोरेट घरानों को आमंत्रित कर दिल्ली सरकार बनाकर उसे चलाने के प्रस्ताव प्राप्त किये जाए। या फिर, सीधे ओपन टेंडर आमंत्रित कर सरकार बनाने और चलाने की दरें प्राप्त कर लें और लोएस्ट दर के आधार पर सरकार बनाने का ठेका किसी फर्म को देकर झंझट से छुटकारा पा लिया जाए। ठेके में स्पर्धा को और व्यापक बनाना है तो ग्लोबल टेंडरिंग की जा सकती है ताकि मल्टीनेशनल्स भी दिल्ली सरकार बनाने के प्रस्ताव पेश कर सके, और यदि किसी अपने वाले को उपकृत करना है तो कोटेशन कॉल कर पीसवर्क पर सरकार बनाने का ठेका दिया जा सकता है। अर्थात प्रत्येक डिपार्टमेंट अलग-अलग राजनैतिक पार्टी को देकर दिल्ली सरकार का कामकाज सुचारू रूप से चलाया जा सकता है।
देखो भई, पुरानी कहावत है जैसा देस वैसा भेस । नहीं मान रहे बापड़े और हर बार फैक्चर्ड टूटा-फूटा, बेमतलब का मैनडेट देते रहेंगे तो अपन को तो भई देश चलाना है। कम्बख्त इस जनता का क्या, जहाँ मर्ज़ी वहाँ अपना वोट पटक कर लोकतंत्र के सामने मुसीबत खड़ी कर देती है। अब फिर अगर जनता ने वही हरकत की तो मैं तो दूसरी स्टेट से जनता बुलवाकर दिल्ली में चुनाव करवाने तक के पक्ष में हूँ, किसी को अच्‍छा लगे या बुरा। जैसे भी हो भाई लोकतांत्रिक ढॉचे की सुरक्षा तो होना ही चाहिए।   
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