बुधवार, 25 नवंबर 2009

डेंगू परिवार जाली के उस पार

व्यंग्य - प्रमोद ताम्बट

दूसरे प्रहर में अचानक मेरी नींद किसी के पुकारने की आवाज से खुली तो देखा कि खिड़की की मच्छर जाली पर एक मच्छर परिवार बदहवास सा मुझे पुकार रहा है-ताम्बट साहब, ओ ताम्बट साहब ! मैंने झल्लाते हुए पूछा - क्या है ! क्यों इतनी रात को नींद खराब कर रहे हो ! मच्छर परिवार का मुखिया कातर आवाज में बोला - थोड़ी जाली खोल दो भाई साहब ! मैंने कहा - बेवकूफ समझ कर रखा है क्या ! तुम्हारी धींगा-मुश्ती बंद करने के लिए ही तो मैंने मच्छर जाली लगवाई है, अब खोल दूँ ताकि तुम मेरा और मेरे परिवार का जीना हराम कर दो…….!

मच्छर बोला भाई साहब कसम खाकर कहता हूँ जो किसी का खून पीया तो, आप कहो तो अपनी इस सुई में गठान लगा लेंगे, बाहर ही निकालकर रख देंगे ! हमें तो बस थोड़ा सा पानी चाहिए रहने के लिए, किसी टंकी में पड़े रहेंगे !
मैंने कहा- क्यों, बाहर क्या पानी की कमी पड़ गई है, इतने तो गटर खुले पडे़ हैं, गंदा बदबूदार पानी सड़कों पर बह रहा है वहाँ जाकर क्यों नहीं डंड पेलते !
मच्छर बोला- क्या बताऊँ भाई साहब, एक डेंगू के मरीज के खून की दावत उड़ा ली थी हम लोगों ने गलती से, तबसे गंदा पानी देखकर उल्टी, मतली सी आती है। हमारे डॉक्टर ने बताया है कि साफ पानी में रहो जाकर। आपके यहाँ वाटर फिल्टर लगा है, कुछ दिनों के लिए शरण दे दो, फिर हम अपने आप चले जाऐंगे।
मैंने कहा- माफ करो भैया तुम लोगों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। तुम लोग कम्बख्त अपनी सुई तक कभी बदलते नहीं हो ! बदलना तो छोड़ों, कभी धो भी लो तो एक बार तुम पर भरोसा कर लें। मगर डेंगू के मरीज़ के खून से सनी तुम्हारी सुई हम झेलने के लिए तैयार नहीं है। भागों यहाँ से।
मच्छर बोला - कसम खाकर कह रहा हूँ, चाहे जो सज़ा दे देना जो हम में से किसी ने भी किसी को अपनी सुई चुभाई तो।
मैंने कहा - अरे रहने दो भैया घर के अन्दर के जो चार-आठ मच्छर हैं उन्हीं से परेशान हैं। दिन-रात उनकी चौकीदारी करना पड़ रहीं है कि कहीं बाहर न निकल जाएँ और तुम जैसे आवारा मच्छरों की संगत में आकर डेंगू न साथ ले आएँ। तुम्हें और अन्दर ले लें तो तुम तो हमें सीधे अस्पताल ही पहुँचा दोगे। कहाँ-कहाँ भैया प्लेटलेट्स ढूँढ़ते फिरेंगे हम लोग। प्रायवेट ब्लड बैंक वाले वैसे ही चीथे दे रहे हैं।
मच्छरनी मेरे असहयोग और रूखे व्यवहार से रुआँसी होती हुई बोली-बहन समझकर अन्दर आ जाने दो भैया, कसम खाकर कह रहीं हूँ बाहर तो हमारा जीना हराम हो गया है। मुन्सीपाल्टी वाले कभी-कभी फॉग मशीन लेकर निकल पड़ते हैं, दोयम दर्जे की उन मशीनों से खैर हमारा कुछ बिगड़ता नहीं लेकिन नकली केमिकलों के उस फॉग से हमारे बच्चों को अस्थमा हो जाता है, खॉसी होने लगती है। बताओ भैया जाएँ तो जाएँ कहाँ ?
मैंने कहा - जहन्नुम में जाओ तुम और तुम्हारा परिवार, मुझे कोई मतलब नहीं। अब भागों यहाँ से वर्ना मैं अभी एंटी मॉस्किटों स्प्रे मारता हूँ।
मेरी इस बात पर उस मच्छर को गुस्सा आ गया, वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा- खाली-पीली धौंस क्यों दे रहा हैं बे ! तू क्या समझता है जाली नहीं खोलेगा तो क्या हम अन्दर ही नहीं आ सकते ? एक मौका चाहिए बस ! कचरा फैकने के लिए तो खिड़की खोलेगा! जरा जगह मिली कि हम घुस जाऐंगे अपना जुलूस लेकर। शाम को जब दफ्तर से लौटकर घर में घुसेगा तो तेरी खोपड़ी पर बैठकर अन्दर घुस जाऐंगे तुझे पता तक नहीं चलेगा। अभी समझा रहे हैं तो समझ में नहीं आ रही तुझे !
मुझे भी गुस्सा आ गया, मैंने कहा- अच्छा ! रंगदारी करोगे तुम ? तुम्हारी ये औकात ?
मच्छर बोला- हाँ हाँ रंगदारी करेंगे ! डेंगू के मच्छर हैं, कोई ऐरा गैरा मत समझ लेना। ना एक-एक को अस्पताल पहुँचाया तो मेरा नाम मच्छर नहीं। तुम्हारे घर के अन्दर जो घरेलू किस्म के मच्छर हैं ना उनका भी यहीं जाली पर बैठे-बैठे ब्रेन वाश कर आतंकवादी बना देंगे, उखाड़लो तुम क्या उखाड़ते हो ! सबको डेंगूवाद की ट्रेनिंग देकर इतना खूँखार बना देंगे कि तुम्हारी पूरी फौज-पुलिस भी लग जाए तो उनका बाल भी बाँका नहीं कर पाएगी।
मैंने कहा - घर के आसपास भी मत दिख जाना तुम लोग, फॉग मशीन घर के अन्दर बुलवा लूँगा मैं। फिर देख तेरा क्या हाल करता हूँ।
मच्छर ठठाकर हँसता हुआ बोला - हौ ऐसे बीड़ी के धुएँ से हम डरने लगे तो हो गया काम। नकली है सारा धुआँ नकली। सारी मशीनें घटिया हैं। अरे हम से ज़्यादा तुम्हारे भाई बंदों को हमारी फिक्र है। हमी मर जाऐंगे इन थर्ड क्लास मशीनों और उनके धुएँ से तो दवा कंपनियाँ क्या भुट्टे भूनेंगी। तुम टुच्चे इंसानों को हमें खत्म करने से ज्यादा जिन्दा रखने में इन्ट्रेस्ट है, वर्ना सोचो, तुमने साले चाँद पर पानी ढूँढने में कामयाबी हासिल कर ली, तुम चंद मच्छरों को दुनिया से खत्म नहीं कर सकते, लानत है तुम पर। डूब मरो चूल्लू भर पानी में।
मेरी ट्यूबलाइट अचानक दिपदिपाकर जलने लगी। बात तो सही कह रहा है कम्बख्त। हमने इतने परमाणु परीक्षण कर लिए, इतनी मिसाइलें बना लीं। दुनिया को खत्म करने के लिए आज हमारे पास पर्याप्त परमाणु असला है, हम मच्छर जैसी क्षुद्र प्रजाति को समूल नष्ट नहीं कर पा रहे, कमाल है ! मच्छरों से फैलने वाली नई-नई बीमारियों के शोध और अनुसंधान पर जितना खर्च किया जाता है उतने से तो मच्छरों की जड़ की जड़ से खटियाखड़ी की जा सकती है। डेंगू, मलेरिया की दवाइयों से जितनी कमाई होती है, उसके एक छोटे से हिस्से से मच्छरों का सूपड़ा साफ किया जा सकता है। मगर !!! यही तो समस्या है! अगर यही काम हो गया तो जाने कितनों की कमाइयाँ बंद हो जाऐंगी…….। आखिर कई लोग दूसरों की जान की कीमत पर जीने के लिए ही तो दुनिया में आते हैं जैसे खिड़की की मच्छर जाली पर बैठा वह डेंगू का मच्छर का परिवार।

दिनाँक 25.11.2009 को हरिभूमि में प्रकाशित

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

लोकतंत्र की बहती गंगा में लगा लो डुबकी




व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
गुज़रा हुआ ज़माना होता तो आज़ादी आंदोलन की नैतिकता के खुमार में डूबी हुई राष्ट्रभक्त नेताओं की राष्ट्रभक्त पत्नियाँ मधु कोड़ा को जी भर कोसतीं, थू-थू करतीं, भर्त्सना-आलोचना और जो कुछ-कुछ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अन्तर्गत किया जा सकता था करतीं, मगर इस वक्त भूमंडलीकरण के इस दौर के नेताओं की बीवियाँ नथूने फूलाकर, दाँत-बत्तीसी पीस-पीसकर, थई-थई पाँव पटक-पटककर, घर भर को सर पर उठाए अपने पतियों की लानत-मलामत कर रही है, बेचारों को पानी पी-पीकर कोस रही हैं कि - लो, देखों, सुन लो, डूब मरो चुल्लू भर पानी में, कुछ सबक लो मधु कोड़ा से। उसने चार हज़ार करोड़ के वारे-न्यारे कर दिये, तुमसे चार रुपल्ली की काली कमाई ना हो पाई! क्या झक मार रहे हो राजनीति में इतने सालों से !
बेचारे समाजसेवी नेतागण, उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा है कि आखिर कहाँ कमी रह गई ! उन्होंने तो अपनी पूरी योग्यता खर्च कर ली, चोट्टाई, धूर्तता, बेईमानी, कमीनापन सब कुछ इस्तेमाल कर राजनीति के धंधे में उतरे थे, मगर फिर भी मधु कोड़ा की छिंगली ऊँगली के नाखून के बराबर भी कमाई नहीं कर पाए। आखिर मधु कोड़ा भी वही संसदीय राजनीति कर रहा था जो वे कर रहे हैं, वही लोकतंत्र, वही लोकतांत्रिक दुधारू संस्थान, वही पार्टी, वही भ्रष्टाचार, वही चरनोई, चरने की वही अदम्य लालसा, वही नोट, वही पेटी, वही खोखे-फिर भी इतना लम्बा हाथ मारने के सुनहरे मौके तो कभी सपने तक में नहीं मिले। यक्ष प्रश्न है, क्या किया आखिर उस राष्ट्रवादी, राष्ट्रभक्त, देशप्रेमी, वीर, युगपुरुष ने जो रातों-रात अकूत धन-संपदा कूट ली।
खैर, उसे जो करना था कर गया, परेशान बेचारे दूसरे हो रहे हैं। अखंड राजनैतिक जीवन में सम्मानजनक काला धन नहीं कमा पाए तो घरवालियाँ फटी पड़ रहीं हैं- चूड़ियाँ पहनकर बैठ जाओ घर में। चार हज़ार करोड़ ना सही, चार सौ करोड़, चालीस करोड़, चालीस लाख, चार लाख कुछ तो दो नम्बर में कमाकर लाते ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में !! फालतू कलफ लगा सफेद झक्क कुर्ता पाजामा पहनकर मुर्गा बने घूमते रहते हो। उसे देखो जुम्मा-जुम्मा चार दिन में उसने काली कमाई में बड़े-बड़े दिग्गज राजनीतिज्ञों को पछाड़ दे मारी।
कुछ नेताओं की भोली-भाली बीवियाँ को पता नहीं है कि चार हज़ार करोड़ यानी दरअसल चार पर कितने शून्य लगते हैं ! इतने नोट यानी वास्तव में कितने हो सकते हैं! कितनी अटैचियाँ, ब्रीफकेस, ट्रंक, आलमारियाँ, फ्रिज, डबलबैड भरे जा सकते हैं ! इतने नोट रखने के लिए कितने देशी-विदेशी बैंकों में खाते खोलना पड़ेंगे ! कितने लॉकर किराए पर लेना पड़ेंगे ! इस सब का उन्हें बिल्कुल अन्दाज़ नहीं है मगर उनको इतना जरूर समझ में आ गया है कि उनका पति यूँ ही खाली-पीली पब्लिक मनी पर पंजे मारता फिरता है, हाथ-वाथ कुछ लगता नहीं। इधर-उधर से खखोर-खखारकर भीख सी बटोर कर ले आता है, उसी पर फुदकता फिरता है। सो अब वे अपने नेता पति का पुरुषार्थ जगाने के इरादे से कोप भवन में जा बैठी हैं - कि अब तो शिखंडियों कुछ करों ! कब तक दूसरों के साम्राज्य को दूर से टुकर-टुकर देखकर खुश होते रहोगे ! कब तक दूसरों की अकूत कमाइयों की खुरचन पर जिन्दा रहोगे ! आओ, आगे बढ़ो, पूरा देश तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है ! लोकतंत्र की बहती गंगा में हाथ धोकर तुम भी एक मधु कोड़ा बन कर दिखलाओ। खूब कमाओ, खूब कमाओ, और यदि नहीं कमा सकते तो शरीर पर राख-वाख मलकर, भगवा धारणकर किसी कन्दरा में जाकर बैठ जाओ, भूलकर भी सक्रिय राजनीति में अपना मुँह मत दिखाना।

शनिवार, 14 नवंबर 2009

मीठे-मीठे लोगों की कड़वी दास्तान

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट

इन दिनों लोग बेहिसाब मीठे होने लग पड़े है। पैदाइश से ही गपा-गप मीठा खाना भारतीयों की वह छिछोरी आदत होती है, जिसे छोड़ने के लिए कहे जाने पर वे आगबबूला होकर किसी के भी प्राण ले सकते हैं। बात-बात में मिठाई खाने का बहाना ढूँढ निकालना और किलो-पसेरी मीठा चलते-फिरते खा जाना हम भारतीयों की जन्म-जात ‘विलक्षण’ प्रतिभाओं में से एक ‘विशिष्ट’ प्रतिभा होती है, सारी दुनिया के लोग जिसे फटी आखों से देखते हैं।
जन्म हो, मृत्यु हो, तीज-त्योहार, सगाई, शादी-ब्याह या तलाक हो, कोई नई चीज़ ख़रीदी हो, बेची हो, बिना मिठाई के किसी भी उत्सव का आयोजन सम्पन्न होना सम्भव ही नहीं है। ऐसे में एक सच्चे भारतीय का नख से लेकर शिख तक मीठा होना तो लाज़िमी है ही। परन्तु यह मीठापन किसी स्वस्थ शरीर में आविर्भूत होने के बाद फिर वह शरीर चाहे गामा पहलवान का ही क्यों ना हो, कुछ भी मीठा खाने के लायक ही नहीं रह जाता।
अब आप समझ गए होंगे कि मैं उस बिना जुर्म की सज़ा की बात कर रहा हूँ जिसे ‘मधुमेह’ या ‘डायबिटीज़’ कहा जाता है, जो किसी भी कड़वे से कड़वे आदमी को भी मौका मिलते ही मीठा बना सकती है। एक बार यदि कोई मीठा हो पड़ा, तो फिर इस मिठास को मनों-क्विंटलों से तौलते जाओं, वह कम नहीं होगी। पल-पल बढ़ती ही जाएगी। बढ़ते-बढते अंततः इतनी बढ़ जाएगी कि आप एखाद शक्कर फैक्ट्री के मालिक बनने का सपना आसानी से देख सकते हैं।
मीठा घोषित होते ही फिर दुनियाभर में बस एक डॉक्टर ही मीठे आदमी का असली साथी होता है, ताज़िन्दगी। इन दोनों का साथ, दोनों में से किसी एक के स्वर्ग सिधारने के बाद ही टूटता है। पैथालॉजी वाले तो जैसे उसके रिश्तेदार से हो जाते हैं। आए दिन वहाँ जाकर जाँच के लिए खून की भेंट जो चढ़ाना पड़ती है, घर की सी बात हो जाती है।
ये पैथालॉजियाँ न होती तो गज़ब हो जाता । पैथालॉजी वालों की ही मेहरबानी से रहस्य खुलता हैं कि आपने कितनी बोरी शक्कर अपने शरीर में छुपा कर रखी है। आप कल्पना कर सकते हैं उन गोदामों की जहाँ शक्कर की बोरियाँ, थप्पियों में एक के ऊपर एक रखी होतीं हैं। शक्कर के मरीज़ आमतौर पर किसी गोदाम से ही दिखते हैं। सूजे हुए चेहरे वाले मोटे, तोंदू जो उत्तरोत्तर ‘सीकिया’ होते जाते हैं। मैं जब भी किसी मोटे को देखता हूँ तो यही अन्दाज़ लगाने का प्रयास करता हूँ कि आखिर यह कितनी शक्कर की बोरियाँ लादे घूम रहा होगा। अन्दाज़ लगाना ज़्यादा कठिन नहीं है। आदमी बढ़िया दौड़-भाग रहा है, दबाकर बरफी-गुलाबजामुन खा रहा है, तो समझ लो ट्रक हल्का-फुल्का लोडेड है, आराम से घाटी-पहाड़ पार कर लेगा। आदमी मीठे से बिदक कर भाग रहा है, नाप-तौल कर खा-पी रहा है, तो समझ लें थोड़ा ओव्हर लोडेड है। मीठे की तरफ देख भी नहीं रहा, चलते-फिरते लड़खड़ाकर गिर-गिर पड़ता हो, आए दिन डॉक्टरों के पास बदहवास सा लेटा नज़र आता हो, दवाओं-गोलियों से भी नाउम्मीद होकर बाबा रामदेव की शरण में पहुँच गया हो, तो समझलें क्षमता से कहीं ज़्यादा शक्कर की बोरियाँ गोदाम में भरी पड़ी हैं और इस इफरात मीठेपन के बावजूद जिन्दगी में कडुवाहट घुल चुकी है।
समाज में आदमी की औकात के हिसाब से उसके शरीर में मीठापन पाया जाता है। मेहनतकश मजदूर है, मीठेपन का नामोनिशान नहीं मिलेगा। सरकारी दफ्तर के बाबू-अफसर, बैठे-बैठे रोटी तोड़ने वाले हैं, मीठापन मिल सकता है। धन्नासेठ, बड़े-बड़े व्यापारी, नेता-मंत्री, अफसर हों, शत्-प्रतिशत मीठापन मिलेगा। जो जितना दबाकर खा रहा है वह उतना ही मीठा मिलेगा, शरीर से भी और ज़ुबान से भी। मगर जो जितना ज़्यादा मीठा उसके लिए स्वर्ग के द्वार उतने ही ज़्यादा खुले हुए मिलेंगे, चौबीसों घंटे, जब चाहो चले आओ, दरबान बिल्कुल नहीं रोकेगा।
आज के जमाने में जब हर एक आदमी दुनियाभर की कड़वाहट अपने भीतर भरा बैठा, रूखा, चिड़चिड़ा और सनकी होता चला जा रहा है, क्रूरता, घिनौनेपन और अमानवीयता की मिसालें पेश करने में एक दूसरे से आगे निकलने के लिए बेकरार है, तब काश यह कामना की जा सकती कि रक्त की यह मिठास थोड़ी सी आदमी की खोपड़ी में भी पहुँच जाए तो कितना अच्छा हो, सारा संसार मीठा-मीठा हो जाए। परन्तु, यह असम्भव है, इससे आदमी के अन्तिम सफर का टिकट कटने में ज़रा सी भी देरी नहीं होगी।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

व्यंग्य- आओ पब्लिक को सभ्य बनाने में जुट जाएँ - प्रमोद ताम्बट

सुना हैं कि मजदूर-किसानों के साम्यवादी मुल्क चीन ने अपने आप को असभ्य दिखने से बचाने के लिए अपने नागरिकों के पाजामा पहनकर बाहर निकलने पर भृकुटियाँ वक्र कर लीं हैं। वे नहीं चाहते कि वहाँ होने वाले वर्ल्ड एक्सपों 2010 के दौरान चीनी जन सार्वजनिक जगहों पर पाजामा पहनकर असभ्यता का प्रदर्शन करें। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर क्लासी दिखाने के लिए शंघाई प्रशासन ने चीनियों की छोटी सी नाक में नकेल डालना शुरू कर दी है। नेक इरादा है। सर्वहारा के मुल्क में जब पूँजीवादियों का जमावड़ा हो तो एहतियात तो बरतना ही चाहिये। हमें भी समय-समय पर अपने देश में होने वाले भूमंडलीय आयोजनों के मद्देनज़र तुरंत चीनियों के इस कदम का अनुसरण कर लेना चाहिए क्योंकि हमारे यहाँ भी काफी कुछ दलिद्दर यहाँ-वहाँ बिखरा हुआ है जिसे विदेशी मेहमानों से छुपाना बेहद जरूरी है। ।
हमारे महानगरों में गाँव-खेड़ों से लाखों की तादात में पहुँचने वाले गंवार और जाहिल लोग पाजामा, धोती-कुर्ता और लुँगी को घुटनों से भी ऊपर तक चढ़ाए हुए यहाँ-वहाँ स्वछंद घूमते, हमारी आधुनिक सभ्यता को मुँह चिढ़ाते नज़र आ जाते हैं। कई तो ऐसे भी मिल जाऐंगे जो कच्छा या घुटन्ना पहने ऐन एयर कंडीशन्ड शापिंग मॉल के सामने खड़े, विशाल अर्ध-गगनचुंबी मॉल और उसमें आने-जाने वाले सभ्यजनों को मूर्खों की भांति ताकते खडे़ होंगे और कुछ इन कच्छेधारियों की आधा-एक प्रतिशत सभ्यता को भी मुँह चिढ़ाते हुए, ठीक जैसे माँ के पेट से आए थे वैसे ही, सम्पूर्ण सभ्यता से मुक्त, शत-प्रतिशत वस्त्र विहीन दाँत निपोरते खड़े पाए जाएँगे।
भारत में अगले साल जोर-शोर से होने वाले कामनवेल्थ खेलों के समय दुनियाभर की विस्फारित नज़र हम पर होगी। अतुल्य भारत से अनजान कुछ उल्लू के पट्ठों की नज़र में तो यह परम्परागत प्रश्न टका होगा कि आखिर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का इतना बड़ा आयोजन हम करेंगे कैसे जबकि हमारे पास लोगों को निवृत कराने तक के लिए रेल पटरियों और खुले मैदानों के अलावा कुछ है ही नहीं। ऊपर से हम यूँ धोती-कुरते, लुंगी-पाजामों और कच्छों में यहाँ-वहाँ घूमते नज़र आ गए तो हमारी आधुनिक कार्पोरेटिव छवि को कितना धक्का लगेगा ! देश की कितनी बदनामी होगी ! विकसित देशों के लोग कहेंगे भारत में सभ्यता नाम की चीज़ अब भी नहीं है, जाहिल गंवार लोग अभी भी धोती-कुर्ता, कच्छा-पाजामा पहनकर सड़क पर चले आते हैं जबकि हम तो कबके नंगे घूमने लग पड़े हैं। इसलिए हमें अभी से व्यवस्था चाक-चौबंद कर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोग अपनी-अपनी झुग्गियों, टपरों, कच्चे मकानों से बाहर ना निकलें। गाँवों, कस्बों छोटे-मोटे शहरों की झोपड़-पट्टियों में मौजूद मटमैले, चीकट लोग अपने-अपने दड़बों में ही बंद रहे। वे बाहर निकलेंगे तो सीधे शहरों की तरफ भागेंगे और आधुनिक सभ्यता का सत्यानाश करेंगे।
महिलाएँ भी देखिए बाबा आदम के ज़माने के घाघरे पहनकर जा पहुँचतीं है दिल्ली, मुंबई। हमारी प्रगति की रफ्तार के हिसाब से तो सलवार सूट और साड़ियाँ भी अब परिदृष्य से बाहर हो गईं हैं, और छोटे-छोटे लधु-मध्यम आकार के कपडे़ सभ्यता की निशानी बन गए हैं। ऐसे में औरतों का यूँ कुछ भी पहनकर टेक्नालॉजी पार्कों, सायबर-सिटियों और आधुनिक कॉल सेंटरों के सामने जाकर चाट-पकौड़ी खाते खड़े रहना कहाँ की सभ्यता है। इस गांवरूपने पर भी हमें डंडे फटकारने की ज़रूरत है, हाँ सड़क किनारे हॉट डॉग पिज्जाहट पर छोटी छोटी चिंदियाँ पहने नवयौवनाओं का नज़ारा मिले तो मज़ा आए, आधुनिकता एकदम से सिद्ध हो जाए।
ग्लोबलाइजेशन का तकाज़ा है कि जो आप वास्तव में हैं वह आप बिल्कुल ना दिखें। दुनिया के सभ्य लोगों के सामने हमारी ऐसी तस्वीर पेश हो कि लोग बेवकूफ गुरबक बनकर हमारे पास दौडे़ चले आएँ। आप भले ही ऊपर से बेहतरीन थ्री पीस सूट, महँगी टाई और जूते चढ़ाए हुए हों पर अन्दर कसी हुई लंगोट किसी को दिखना नहीं चाहिए। हमारे लोग भले ही मंदिरों, रेल्वे स्टेशनों, बस स्टेंडों, बाज़ारों और लाल बत्तियों पर भीख माँगते नज़र आएँ पर उन्हें अच्छे साफ-सुथरे कलफ लगे, इस्तरी किये कपड़ों में होना चाहिए। देश के तमाम मेट्रो शहरों में रेल्वे लाइन के इर्द-गिर्द मौजूद नर्क को तो हम कुछ नहीं कर पाएँगे परंतु उसमें बसे लोगों के कच्छे-पाजामें छीनकर हम उन्हें सभ्य तो बना ही सकते हैं। क्या देर-दार है भाई, हम जैसे अपने देश को आधुनिक बनाने की तैयारी में जोरशोर से लगे हुए हैं चीन की तरह हमारी पब्लिक को भी सभ्य बनाने में जुट जाएँ तो क्या हर्ज है।