शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

लोकतंत्र की बहती गंगा में लगा लो डुबकी




व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
गुज़रा हुआ ज़माना होता तो आज़ादी आंदोलन की नैतिकता के खुमार में डूबी हुई राष्ट्रभक्त नेताओं की राष्ट्रभक्त पत्नियाँ मधु कोड़ा को जी भर कोसतीं, थू-थू करतीं, भर्त्सना-आलोचना और जो कुछ-कुछ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अन्तर्गत किया जा सकता था करतीं, मगर इस वक्त भूमंडलीकरण के इस दौर के नेताओं की बीवियाँ नथूने फूलाकर, दाँत-बत्तीसी पीस-पीसकर, थई-थई पाँव पटक-पटककर, घर भर को सर पर उठाए अपने पतियों की लानत-मलामत कर रही है, बेचारों को पानी पी-पीकर कोस रही हैं कि - लो, देखों, सुन लो, डूब मरो चुल्लू भर पानी में, कुछ सबक लो मधु कोड़ा से। उसने चार हज़ार करोड़ के वारे-न्यारे कर दिये, तुमसे चार रुपल्ली की काली कमाई ना हो पाई! क्या झक मार रहे हो राजनीति में इतने सालों से !
बेचारे समाजसेवी नेतागण, उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा है कि आखिर कहाँ कमी रह गई ! उन्होंने तो अपनी पूरी योग्यता खर्च कर ली, चोट्टाई, धूर्तता, बेईमानी, कमीनापन सब कुछ इस्तेमाल कर राजनीति के धंधे में उतरे थे, मगर फिर भी मधु कोड़ा की छिंगली ऊँगली के नाखून के बराबर भी कमाई नहीं कर पाए। आखिर मधु कोड़ा भी वही संसदीय राजनीति कर रहा था जो वे कर रहे हैं, वही लोकतंत्र, वही लोकतांत्रिक दुधारू संस्थान, वही पार्टी, वही भ्रष्टाचार, वही चरनोई, चरने की वही अदम्य लालसा, वही नोट, वही पेटी, वही खोखे-फिर भी इतना लम्बा हाथ मारने के सुनहरे मौके तो कभी सपने तक में नहीं मिले। यक्ष प्रश्न है, क्या किया आखिर उस राष्ट्रवादी, राष्ट्रभक्त, देशप्रेमी, वीर, युगपुरुष ने जो रातों-रात अकूत धन-संपदा कूट ली।
खैर, उसे जो करना था कर गया, परेशान बेचारे दूसरे हो रहे हैं। अखंड राजनैतिक जीवन में सम्मानजनक काला धन नहीं कमा पाए तो घरवालियाँ फटी पड़ रहीं हैं- चूड़ियाँ पहनकर बैठ जाओ घर में। चार हज़ार करोड़ ना सही, चार सौ करोड़, चालीस करोड़, चालीस लाख, चार लाख कुछ तो दो नम्बर में कमाकर लाते ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में !! फालतू कलफ लगा सफेद झक्क कुर्ता पाजामा पहनकर मुर्गा बने घूमते रहते हो। उसे देखो जुम्मा-जुम्मा चार दिन में उसने काली कमाई में बड़े-बड़े दिग्गज राजनीतिज्ञों को पछाड़ दे मारी।
कुछ नेताओं की भोली-भाली बीवियाँ को पता नहीं है कि चार हज़ार करोड़ यानी दरअसल चार पर कितने शून्य लगते हैं ! इतने नोट यानी वास्तव में कितने हो सकते हैं! कितनी अटैचियाँ, ब्रीफकेस, ट्रंक, आलमारियाँ, फ्रिज, डबलबैड भरे जा सकते हैं ! इतने नोट रखने के लिए कितने देशी-विदेशी बैंकों में खाते खोलना पड़ेंगे ! कितने लॉकर किराए पर लेना पड़ेंगे ! इस सब का उन्हें बिल्कुल अन्दाज़ नहीं है मगर उनको इतना जरूर समझ में आ गया है कि उनका पति यूँ ही खाली-पीली पब्लिक मनी पर पंजे मारता फिरता है, हाथ-वाथ कुछ लगता नहीं। इधर-उधर से खखोर-खखारकर भीख सी बटोर कर ले आता है, उसी पर फुदकता फिरता है। सो अब वे अपने नेता पति का पुरुषार्थ जगाने के इरादे से कोप भवन में जा बैठी हैं - कि अब तो शिखंडियों कुछ करों ! कब तक दूसरों के साम्राज्य को दूर से टुकर-टुकर देखकर खुश होते रहोगे ! कब तक दूसरों की अकूत कमाइयों की खुरचन पर जिन्दा रहोगे ! आओ, आगे बढ़ो, पूरा देश तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है ! लोकतंत्र की बहती गंगा में हाथ धोकर तुम भी एक मधु कोड़ा बन कर दिखलाओ। खूब कमाओ, खूब कमाओ, और यदि नहीं कमा सकते तो शरीर पर राख-वाख मलकर, भगवा धारणकर किसी कन्दरा में जाकर बैठ जाओ, भूलकर भी सक्रिय राजनीति में अपना मुँह मत दिखाना।

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