रविवार, 20 दिसंबर 2009

रविवारीय नईदुनिया में व्यंग्य- पंखों की नेमत और उड़ने की कला

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//



कुछ कीडे़ होते हैं, उड़ने की कला का सही इस्तेमाल ही नहीं जानते। यूँ उड़ते हैं मानों आँख पर पट्टी बाँध रखी हो। उड़ते हैं, यहाँ टकराते हैं, उड़ते हैं, वहाँ टकराते हैं। इस टकराया-टकराई में मुमकिन है अपना सिर या कि हाथ-पैर भी तुड़ा बैठते हों और बिना इलाज के जीवन भर के लिए अपंग हो जाते हों। कुछ कीड़े तीर की गति से किसी के थोबडे़ पर जा भिड़ते हैं, या कपड़ों में जा घुसते हैं और अंततः इस गुस्ताखी के लिए उस गुस्सैल बंदे के हाथों मसलकर मार दिये जाते हैं, उड़ने की इतनी अनोखी और महत्वपूर्ण कला धरी की धरी रह जाती है। अरे भई, प्रकृति ने पंख दिये है कि जितना चाहे उतना ऊँचा उड़ो, लेकिन वे खुले आसमान में उड़ने की बजाय मरने के लिए ज़मीन पर ही फुर्र-फुर्र करते रहते हैं।
मख्खी भी एक उड़न्तू जीव है, शरीर में बाकायदा पंखों की व्यवस्था है। इच्छा शक्ति हो तो ऊँची उड़ान भर सकती है, आसमान में चन्द्रमा पर जाकर बैठ सकती है, मगर बैठेगी कहाँ, घूरे पर। चाहे तो प्रधानमंत्री के घर में डायनिंग टेबल पर आराम से आसन जमाकर रबड़ी खा सकती है, मगर वह किसी झुग्गी बस्ती में जाकर बूदार मानव विष्ठा पर बैठक करेगी, मरे जानवर की सड़ी देह पर जाकर भिन-भिनाएगी। औकात से ज़्यादा किसी को कुछ मिल जाए तो ऐसा ही होता है, जैसे मख्खियों को बिना योग्यता के पंख मिल गएँ हैं मगर उन्हें गटर में बैठने में ही मज़ा आता है ।
एक होता है मच्छर, सुविधाजनक रूप से आदमी का खून पीने के लिए इसे छोटे-छोटे पंख और एक नुकीली स्ट्राँ मिली हुई है, गॉड गिफ्ट की तरह, मगर यह प्राणी कान पर भिन-भिन कर या आदमी के सर पर चक्करदार उड़ानें लगा-लगाकर अपना टाइम खराब करता है। आखिरकार किसी स्प्रे का शिकार होकर स्वर्ग सिधार जाता है। कर्म के हिसाब से देखा जाए तो मच्छरों को पंखों की कोई आवश्यकता नहीं थी, खून ही तो पीना है कैसे भी पी लो। खून पीने के बाद वैसे भी वे उड़ तो पाते नहीं, मारे और जाते हैं। इसलिए बिना पंखों के भी उनका काम चल सकता था। आदमी को देखों पंख नहीं है, मुँह में स्ट्राँ भी नहीं है, लेकिन मौका लगते ही दबोच में आ गए आदमी का खून गटागट पीता है, साँस भी नहीं लेता।
कीट-पतंगे, चाहें तो ‘पतंगों’ की तरह उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं, मृत्यु उनके करीब भी नहीं आ सकती। मगर नहीं, वे उड़ेंगे तो सीधे अपनी मौत की दिशा में दौडेंगे। दो कौड़ी की ‘शमा’ या सौ-दो सौ वॉट के बल्ब की मामूली सी गर्मी में जल मरेंगे। बारिश में कई छोटे-छोटे जीवों के शरीर में पंख फूट आते हैं, तुच्छ जीवन बचाने के लिए फ्री-फंड का प्राकृतिक तोहफा। मगर उन्हें उड़ने की कला का कोई खानदानी अनुभव तो होता नहीं, टेम्परेरी सुविधा मिली होती है, सो पानी से नहीं तो ‘बेक’ होकर बेमौत मरते हैं। अपने सक्षिप्त से जीवनकाल में एक बार ढंग से उड़ भी नहीं पाते।
चीलों का ऊँचे आसमान में धीर-गंभीर मंथर गति से हवा में संतुलन कायम कर घंटों उड़ान भरते रहना बड़ा पुरसुकून लगता है, लेकिन उनका पेट भरा हुआ हो तभी, वर्ना वह अनंत ऊँचाइयों से भी पिद्दी से चूहे को देखकर अपनी नियत खराब कर लेती है, पूरी तौर पर नीचे की और गिरकर उस पर झपट पड़ती है। गिद्धों के पास विशाल पंख हैं, ताकत है, चाहें तो दुनिया का सबसे ऊँचा उड़ने वाला पक्षी बन सकते हैं, मगर वे मरे हुए जानवरों की बदबूदार देह में जीवन सुख ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उड़ना-वुड़ना सब भूल जाते है। बस आँतें चीथते  रहते हैं।
इंसान का मामला एकदम अलग है, किसी किसी इंसान का तो एकदम ही अलग। इन्हें पंख नहीं होते पर वे ज़मीन पर कभी नहीं रहते। नाली के कीड़े होकर भी आसमान में उड़ते हुए नज़र आते हैं। इतना ही नहीं, ज़मीन से उड़ते समय गंदी नाली का कीचड़ भी अपने साथ लपेट ले जाकर वे आसमान को भी गंदा किया करते हैं। अपनी कीचड़ युक्त चहलकदमी से सारे आकाश को बदरंग कर देते हैं।
अद्भुत है यह उड़ने की कला भी, जिनके पास पंखों की नेमत है वे उँचाई पर जाने के लिए उनका उपयोग नहीं कर पा रहे, और जिनके पास किसी साइज़, कलर, डिजाइन का कोई पंख नहीं वे आसमान में बैठे नीचे लोगों पर कुल्लियाँ कर रहे हैं।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

आओ हम भी करें जलवायु परिवर्तन पर चिंता

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट



मालदीव वालों ने समुद्र की गहराई में और नेपाल वालों ने एवरेस्ट की चोटी पर बैठकर जलवायु परिवर्तन के बारे में सोच-विचार कर लिया, तो हम क्यों पीछे रहने वाले थे। देश का साम्प्रदायिक तापमान बढ़ाने में माहिर गुजरात केमुख्यमंत्रीमहोदय ने भी कच्छ के रेगिस्तान में अपनी चिंता की दुकान सजाकर राजस्थान वालों से यह मौका छीन लिया। रेगिस्तानीपने की अधिकता के मद्देनजर धूल-बालू फाँकते हुए जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतामग्न होने का पहला हक राजस्थानियों का बनता था, मगर गुजरात वालों ने इसे बड़ी खूबसूरती से हथियारकर उन बेचारों के सामने प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है कि वे अब कहाँ बैठकर जलवायु के बारे में चिंता व्यक्त करें। गुजरात वाले चाहते तोअलंग समुद्र तटपर जहाजों के कबाड़ और रासायनिक प्रदूषण के बीच बैठकर चिंता व्यक्त कर ले सकते थे और रेगिस्तान राजस्थानियों के चिंतित होने के लिए छोड़ सकते थे, मगर दोनों जगह अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होने से यह परस्पर समभाव संभव नहीं हो सका। अब राजस्थानी चाहें तो सूखे पेड़ों के ठूठों पर बैठकर यह काम सम्पन्न कर ले सकते हैं क्योंकि वहाँ पेड़ों के टोटे से वायु हमेशा जल विहीन रहती है और जल के टोटे से पेड़-पौधे हरियाली विहीन रहते हैं।
अब चूँकि पहल हो ही गई है तो देश के दूसरे राज्यों को भी फटाफट यहाँ-वहाँ बैठकर जलवायु परिवर्तन पर चिंता व्यक्त कर लेना चाहिए। मध्यप्रदेश के लिए आदर्श स्थिति होगी कि वे हजार-दो हजार फुट गहरे बोर में बैठकर गिरते भूजल पर या सूखी नदियों-तालाबों में गाव-तकिए लगाकर जल संकट पर चिंता व्यक्त करें। उत्तरप्रदेश के लिए मुफीद होगा कि वे भी रासायनिक कीचड़ में तब्दील होती जा रही गंगा-जमुना के बीच नौका विहार का शाही लुत्फ लेते हुए चिंतन करें। बिहार वाले कृपया वार्षिक बाढ़ आयोजन का इंतजार कर लें और बाढ़ के पानी में बैठकर या उसके विनाश कर निकल जाने के बाद राहत सामग्री पर बैठकर यह काम निबटा सकते हैं।
झारखंड वालों के लिए बैठने के लिए अच्छी होंगी खदानें। कोड़ाओं द्वारा खनिज संपदा के अंधाधुंध दोहन से भूगर्भ गतिविधियाँ गड़बड़ा जाए इससे पहले ही किसी खदान में मंच लगाकर जलवायु परिवर्तन पर विचार किया जा सकता है।
दिल्ली वालों को तो किसी लम्बे चलने वाले दैनिक ट्राफिक जाम में बैठकर दुनिया भर को यह संदेश पहुँचाने का मौका है कि देखों रे पेट्रोल जला-जलाकर भी तुम जलवायु की खटियाखड़ी कर रहे हो। ट्राफिक जाम में गाड़ियों से निकलने वाली जहरीली गैसों से अगर कोई चिंतामग्न राजनयिक बेहोश होकर गिर पड़े तो संदेश दुनिया भर में सफलता से पहुँचा समझो।
पंजाब-हरियाणा वाले जहरीले पेस्टीसाइट्स की बोरियों पर बैठ लें। पश्चिम बंगाल वाले भी मजदूर-किसानों की खोपड़ी पर बैठकर मीटिंग कर दुनिया को बताएँ कि तुम्हारे यहाँ अगर जलवायु के सत्यानाश पर लोग बेवजह हल्ला मचा रहे हैं तो पश्चिम बंगाल आकर हमें मौका दें। हम अपने सोनार बाँग्ला में ग्रीन हाउस गैसों को ससम्मान जगह देंगे।
महाराष्ट्र में मुम्बई वाले उसी जगह चिंतन करने बैठें जो समुद्र स्तर बढ़ने से सबसे पहले डुबने वाली है। उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत वाले भी अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर सुविधानुसार बैठने की जगह चुन लें और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर जल्द से जल्द अपनी चिंता व्यक्त कर लें। बाकी सारे प्रदेश भी युद्ध स्तर पर चिंताएँ व्यक्त करलें वर्ना अगर सारी चिंताएँ कोपेनहेगन में ही व्यक्त कर ली गईं तो फिर हम भारतीयों के पास हाथ पर हाथ रखे बैठने के अलावा कुछ बचेगा ही नहीं।
दिनाँक 19.12.2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित