रविवार, 28 फ़रवरी 2010

टुन्न होकर गरियाने का पर्व

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट

लो फिर चन्दा खाने का त्यौहार आ गया।
जी हाँ, होली को हमने हमेशा सामूहिक रूप से चन्दा खाने के त्यौहार के रूप में ही देखा है। बचपन में मोहल्ले के सारे चन्दा खाऊ इकट्ठा होकर घर-घर जाकर खाने लायक चन्दा इकट्ठा करते और फिर बाकायदा बजट बनाकर उसे खाते। कुछ चन्दा इसे उगाहने की मुहीम के दौरान खाया जाता, कुछ झाड-झँकाड़ इकट्ठा करने के दौरान, और कुछ ऐसे ही चलते -फिरते कभी सेव-चूड़ा कभी समोसा-कचौड़ी, के भक्षण में उड़ाया जाता। जब मर्ज़ी हो तब नाश्ते-पानी के लिये चन्दे को निजी बपौती के रूप में इस्तेमाल कर लिया जाता। कुछ चन्दा होली के दिन खाने-पीने लिये रखा जाता और कुछ होली के बाद के लिये भी बजट में प्रावधानित होता जिसे सिनेमा वगैरह देखने और इन्टरवल में ठंडा यानी कोकाकोला वगैरह पीने में उड़ाया जाता। कुछ नेता किस्म के, या नेता किस्म के मोहल्लेदारों के बच्चे षड़यंत्रपूर्वक बजट के एक हिस्से को सबसे बचाकर सुरक्षित रखते व चुगलखोर लड़कों से लुका-छुपाकर पान-बीड़ी-सिगरेट का शौक भी फरमा आते, और चुगलखोर लड़कों की जासूसी दक्षता के कारण पकड़ा जाने पर माँ-बाप से धना-धन पिटते भी थे। इस तरह चन्दे के तीन-चौथाई हिस्से को खाने के पवित्र अनुष्ठान में ठिकाने लगाया जाता और एक चौथाई हिस्से से होलिका मैया का दहन किया जाता।
मोहल्ले के जिस स्वयंसेवक को होली से सबंधित आवश्यक खरीददारी की जिम्मेदारी दी जाती वही, जनता से एकत्रित उस सामाजिक धन से कुछ ना कुछ चुंगी कर लेता। हर सामग्री पहले आधी अपने घर में पहुँचाई जाती फिर सार्वजनिक उपयोग के लिये लाई जाती। यह सब जीवनचर्या के एक महत्वपूर्ण कला-कौशल की तन्मयतापूर्ण साधना की तरह का क्रियाकलाप होता, बच्चों की अम्माएँ बच्चों में इस प्रतिभा के होते विकास को देखकर भारी खुश होतीं और उनके सुनहरे भविष्य की कामना करतीं।
दरअसल होली का त्यौहार कम्बख्त एक ऐसा त्यौहार है जो हरेक को बचपन से ही भ्रष्टाचार के हुनर की सघन ट्रेनिंग देता है। भ्रष्टाचार कैसे सम्पन्न किया जाय, सार्वजनिक माल को बाप का माल कैसे समझा जाए, सामाजिक धन का बहादुरी से गबन कैसे किया जाए, सारे तौर तरीके बड़ी खूबसूरती से सिखाता है। बहुत से गुणी बच्चे बड़े होकर भी बचपन में सीखे इन गुरों को सफलतापूर्वक आजमाते हैं और जहाँ मौका मिलता है वहाँ अपनी इस काबिलियत का कुशलतापूर्वक प्रदर्शन करते हैं। कुछ अनुभवी शख्सियतें तो लड़कपने में होलिका दहन के इस कर्मकांड से मिले तमाम बेशकीमती अनुभवों को राष्ट्रीय-अन्तर्राट्रीय स्तर पर उपयोग भी करते हैं और नाम और दाम भी कमाते हैं।
परम्पराएँ आखिर परम्पराएँ हैं, जिनका हम भारतीय शिद्दत से निर्वहन करते हैं। मगर लाख टके का सवाल है कि आखिर होली जलाने के लिए चन्दा उगाहने और खाने की यह महान परम्परा चली कहाँ से आई ? हिरण्यकश्यप ने तो भक्त प्रहलाद और होलिका के लिए चन्दा इकट्ठा किया नहीं होगा जो उन्हें जलाने के अभिनव प्रयोग को अन्जाम दिया जा सके! और चलो माना कि छिछोरपन में आकर उसने, उन दोनों को जलाने के अपने आतिशी कार्यक्रम के तहत कंडों-लकड़ियों के लिए चन्दा कर भी लिया हो, लेकिन शर्तिया उसने चन्दा खाया तो हरगिज़ ही नहीं होगा! दुष्ट भले ही वह कितना भी था, ऐसा दो कौड़ी का टुच्चा तो हिरण्यकश्यप हो ही नहीं सकता था, जो इतने बड़े राजपाट के बावजूद टुच्चे से चन्दे पर नीयत रखे। इसलिए इतिहासकारों के समक्ष यह एक खोज का विषय है कि होली जलाने की परम्परा के साथ चंदा बटोरने और उसे उदरस्थ करने की परम्परा हमें आखिर मिली कहाँ से, जिसकी लीक पर चलते हुए हमारे देश में आज भी अनेक चन्दा खाऊ पैदा हो रहे हैं।
मुझे शक हैं कि ज़रूर यह बदमाशी हिरण्यकश्यप के दरबारियों ने की होगी। महाराज के नाम पर चन्दा इकट्ठा कर खा गए होंगे कम्बख्त। वही परम्परा उनके बच्चों के बच्चों, बच्चों के बच्चों से होती हुई धीरे-धीरे पूरे देश में छा गई होगी। अब तो चन्दा चाहे किसी कारथ हो उसे खाए बिना कोई मनोरथ पूरा ही नहीं होता। लोग हर सामाजिक-असामाजिक कार्य का चन्दा खाने में श्रद्धा का पूर्ण भाव दर्शाते हैं। किसी गरीब के कफन के लिये भी अगर चन्दा किया जाए, जो कि इस बदनसीब देश में अक्सर करना पड़ता रहता है, तो चंद शातिर चन्दा खाऊ उसे भी खाने से नहीं चूकते।
होली से जुड़ी कुछ अभूतपूर्व परम्पराएँ और भी हैं जिनके अपरम्परानुमा होते हुए भी उनके बिना होली मनती ही नहीं है। भँगेड़ियों को देखो ! ऐसे रंगबिरंगे त्योहार पर भी तमाम काले-पीले होकर भाँग-घोटा चढ़ाकर तरन्नुम में आय-बाय बके चले जाते हैं, या देसी ठर्रा चढ़ाकर नालियों में लोटते हुए नज़र आते हैं। हिरण्यकश्यप तो बेचारा इतिहासकारों द्वारा शराब पीता कभी धरा नहीं गया, ना ही वो कभी नालियों में लोटता हुआ ही पाया गया! भक्त प्रहलाद भी बेचारा गऊ किस्म का भक्त रहा है! फिर होली पर टुन्न होकर गरियाने की यह परम्परा किसने शुरू की। यह नौटंकी भी लगता है उन्हीं दरबारियों की खड़ी की हुई रही होगी। इधर हिरण्यकश्यप का पेट फटा होगा उधर वे सात दिवस के राष्ट्रीय शोक की छुट्टियों का फायदा उठाकर कलारी में जा बैठे होंगे। वही से प्रारंभ होकर यह परम्परा लगता है पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हुई हम तक आ पहुँची है, इसीलिए होली पर दारू पीकर दंगा करना एक अनिवार्यता बन गई है।
रंग-गुलाल की परम्परा और किसी ने भी चलाई हो, हिरण्यकश्यप ने तो हरगिज़ नहीं चलाई होगी! जिसकी बहन धोके में जल मरी हो वह क्यों उल्लास में रंग-गुलाल खेलेगा ? फिर वह तो खुद भगवान नरसिंह के हाथों मारा गया था, उसे मौका ही कहाँ मिला रंग-गुलाल उड़ाने का। तब फिर बचा प्रहलाद, परन्तु जिसके बाप का पेट फाड़ डाला गया हो वह उसकी अँतड़ियाँ समेटेगा या पिचकारी लेकर फुर्र-फुर्र रंग उड़ायेगा ? जिसकी बुआ ताजी-ताजी जल कर मरी हो वह उसके ‘फूल’ चुनेगा या रंग-गुलाल खेलेगा ? तब फिर किसे ऐसी हिमाकत सूझी जो हमें आज तक झेलनी पड़ रहीं है।
अजीब परम्परा है, जिस प्रकरण में दो-दो जाने गई हों उसकी पृष्ठभूमि में लोग ‘गुजिया’ बनाकर खा रहे हैं। मिठाईयाँ बनाकर मोहल्ले भर में बाँट रहे हैं। गजब की असंवेदनशीलता है ! लोग, एक औरत के जल मरने की खुशी में सराबोर होकर एक-दूसरे के गले मिल रहे हैं। हँसी-मजाक, ठट्ठा कर रहे है। हुरियारे बनकर झुँड के झुँड ढोल-ढमाके के साथ नाचते-गाते शहर भर में गश्त सी लगा रहे हैं, दूसरों को डरा रहे हैं, कि स्सालों सम्हलकर रहना, वर्ना खैर नहीं। अभी होली जलाई है समय आया तो तुम्हें भी जला देंगे। प्रहलाद की पार्टी तक ने होलिका दहन और हिरण्यकश्यप वध के बाद भी कभी ऐसा जुलूस न निकाला होगा........ । फिर हम क्यों बावले हुए जाते है ?
ठीक है, अभी तो खैर होली सर पर आ खड़ी है, परम्परा है, मना लीजियें। चन्दा भी खाइये, भाँग-घोटा, ठर्रा भी चढ़ाइये, खूब गाली-गलौच करिये, रंग में सराबोर हो जाइये, मिठाई-पकवान उड़ाइये, पड़ोसनों के गले लगिये, परन्तु भाइयों उस बदमाश को ज़रूर ढूँढ निकालिये जिसने होली की परम्परा के नाम पर चन्दा खाने, भाँग खाकर नालियों में लोटने, शराब पीकर गाली-गलौच करने, माँ-बेटियों के साथ बदतमीजी करने की अपरम्पराएँ चला दी हैं। उसे ढूँढकर लाओं उससे एक और जरूरी बात पूछना है कि ‘‘गटर के पानी में डुबकी लगवाकर फिर ‘‘बुरा ना मानो होली है’’ कहने की परम्परा आखिर किसने शुरू की। परम्परावादियों के पास कोई जवाब हो तो कृपया होली के पहले मुझे बताने का कष्ट करें।
 
समुचित संपादन के साथ दिनांक 28 फरवरी 2010की नईदुनिया साप्ताहिक पत्रिका के होली विशेषांक में प्रकाशित।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

उल्लू के पट्ठों बी.टी. बैगन खाते हो या नहीं ?

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
मास्टर जी बेहद गुस्से में थे। देश भर में घूम-घूमकर सबको डाँटते फिर रहे थे- तुम्हारे बाप ने कभी खाया है बैगन! खाया हो तो जानो कि बी.टी. बैगन का स्वाद क्या होता है। पागल हो तुम सब के सब, दिमाग का इलाज कराओ अपने। मेरी! मेरी नीयत पर शक कर रहे हो! मैं दूध का धुला जनता का सच्चा हितैशी, मुझे मोनसांटो का ऐजेंट समझते हो! समझते हो मैंने मल्टी नेशनल कम्पनी से पैसे खा लिए। समझते हो तो समझो, क्या उखाड़ लोगे! बिना बात एक अच्छी पौष्टिक गुणकारी सब्ज़ी का विरोध कर रहे हो, लगे हुए हो पटर-पटर करने में। दो कौड़ी के पब्लिक फोरम को संसद समझ रहे हो, सिर पर ही चढ़ते जा रहे हो। मगर मैं किसी के दबाव में आने वाला नहीं हूँ ? तुम दर्जन भर बुद्धिजीवी-साइन्टिस्ट तो क्या पूरा देश भी एकजुट होकर ऐलान करे कि बी.टी. बैगन नहीं खाएंगे, तब भी हमने तो कसम खा रखी है कि चाहे कुछ भी हो जाए देश के खेतों में उसे पहुँचा कर रहेंगे, एक-एक को बी.टी. खिलाकर ही मानेंगे।
कैसे अनपढ़ हो तुम लोग! गुरबक, जाहिल गँवार हो! कुछ समझते ही नहीं। तुमसे तो कुछ शोध-अनुसंधान होता नहीं, इतनी मेहनत करके किसी दूसरे ने कुछ बनाया है तो उसका तो खयाल करो। उसके पेट पर क्यों लात मार रहे हो! थोड़ा देख लो आजमाकर! ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा, पारम्परिक फसलें खत्म होंगी, खेतों का सत्यानाश होगा, कर्जे में डूब जाओगे, मरोगे पाँच-दस हज़ार, तो क्या हुआ, चलता है। अपन हिन्दुस्तानी है, मोटी चमड़ी वाले। अपना तो काम ही है मरना। अपन नहीं मरेंगे तो क्या अमरीकी मरेंगे! अपन ने अगर बी.टी. बैगन नहीं चखा तो उन्हें पता कैसे चलेगा कि उनका अनुसंधान सफल हुआ कि नहीं। बैगन-भाजा, बैगन-भरवॉ, बैगन का भुरता, ये तो तुम्हारी प्रिय डिशें हैं, इनके आगे बस बी.टी. लगाना है, इतनी सी बात है। मगर तुम्हीं यदि रायता फैलाओगे तो देश की छवि कितनी खराब होगी। हमारी छवि कितनी खराब होगी। हमारी सरकार की छवि की तो दुनिया भर में मट्टीपलीत होकर रह जाएगी। सारी दुनिया थूकेगी हमारी सरकार पर, कहेगी-जो सरकार अपनी जनता को बैगन जैसी सड़ी सी चीज़ जबरदस्ती नहीं खिला सकती, उसको विकास करने का कोई हक नहीं, कर्ज़े बाटने की क्या ज़रूरत है! हम तो बेमौत मारे जाएंगे। देखते हैं कि कैसे तुम लोग नहीं खाते हो बी.टी. बैगन! ना एक-एक के हलक में इसे ठूसा तो हमारा नाम भी माट्साब नहीं।
फिलहाल थक-हारकर माट्साब ने डाँट-डपट कर देश-वासियों को बी.टी. बैगन खिलाने की अपनी मुहीम कुछ दिनों के लिए मुल्तवी की है, बमुश्किल वे मिनिस्ट्री के दूसरे गैर ज़रूरी कामों के लिए समय निकालकर अपने दफ्तर को लौटे हैं। इधर बैगन से पहले ही से परेशान जनता हैरान होकर सोच रही है कि आखिर यह आदमी इस बुरी तरह हाथ धोकर बी.टी. बैगन खिलाने के पीछे क्यों पड़ा हुआ है। वैसे ही इस बेगुण-बेस्वाद तरकारी के मारे जीना हराम है। पतियों से परेशान पत्नियाँ बदला लेने के लिए जब चाहे तब इस मनहूस को बघारकर धर देती है थाली में। कम्बख्त इस कदर बादी करता है कि गैस-अफारे से पूरा देश परेशान है, और ये माट्साब बी.टी. बैगन का उत्पादन बढ़ाकर किसानों को मालामाल करने की झक लिए बैठे हैं, जबरदस्ती इसे देशवासियों के हलक में उतारने पर उतारू हैं।
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि माट्साब साल-छः महीने बाद फिर कुछ और ब्रम्हास्त्र और मिसाइलें लेकर मैदान में उतरेंगे, एक-एक को ठीक करने के लिए। हो सकता है पुलिस-मिलिट्री भी साथ में लेकर आएँ और दादागिरी से पब्लिक मंचों को हथियाकर कहें- अब बोलों उल्लू के पट्ठों बी.टी. बैगन खाते हो या नहीं ?

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

मुम्बई का डॉन कौन

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
च्याइला! अपून एक-एक के कान के नीचे बजाएगा, कोई भंकस नहीं मँगता है। हिन्दी साइडर लोग को वार्निंग करके बोलता है कि इधर हँसने का तो मराठी में, रोने का तो मराठी में, गाना गाने का, खाना खाने का, सब मराठी में। कोई भी महाराष्ट्र के बाहेर का आदमी होय मराठी मेंइच सब काम करने का। मराठी मानूस के ऊपर पिच्छू बासठ साल से ‘हिन्दी’ में चल रहा जुलुम अब बंद होने कुइच मँगता है।
इधर अपून नक्की करके दियेला है कि चौपाटी पर दरियाव का लाट का जो आवाज आता है वो भी मराठी मेंइच आने कू मँगता है। उधर गेटवे ऑफ इन्डिया पर कबूतर लोग का लो फड़फड़-फड़फड़, गूटरगू-गूटरगू का आवाज आता है वो भी मराठी मेंइच मँगता है। मिल का भोंपू, लोकल ट्रेन का खड़-खड-खड़:फड़-फड़-फड़, मोटार, गाड़ी, ऐटो, विमान सबका आवाज मराठी में आने कोइच मँगता है। नई आएगा तो अपून अख्खा मुम्बई को आग लगा डालेगा।
पिच्चर जो इधर निकालता है सब मराठी मेंइच निकालने को मँगता है। अमिताच्चन को बोलने का है तो मराठी में बोलना मँगता है, शारुक को हकलाने का है तो मराठी मेंइच हकलाने को मँगता है । पिच्छू का अख्खा पिच्चर मदर इंडिया, मुघलेआझम, पाकीजा, सब अभी मराठी में ट्रांसलेट करने को मँगता है। शोले, बोले तो मराठी में डब करके दिखाने का। धर्मेन्दर का डायलाग अइसा होने को मँगता है - वसंती, ह्या कुत्र्यांच्या समोर नाचू नकोस! नया नया सब पिच्चर अभी मराठी में निकालने का, नई तो सब थेटर का पड़दा हम लोग राकेल डालकर फूँक डालेगा।
ये सब जो फाईस्टार में फैशन शो वगैरा में सब अउरत लोग नागड़ेपना चलाता है, अइसा अभी हम लोग बर्दाश्त नहीं करेगा। फैशन शो करने का है तो खूब करो पन लड़की लोग मराठी बाई के जैसा नउवारी लुगड़ा डालकर रेंप पर चलने कू मँगता है। उधर बिल्कुल गजरा-बिजरा डालकर रापचिक मराठी कल्चर दिखने कू मँगता है।
भाईगिरी, गुंडागिरी, टपोरीगिरी, मवालीगिरी जितना मर्जी करो वांदा नई, पन ये सब अगर हिन्दी भाषे में किया तो खबरदार! अख्खा मुम्बई का सेठ लोग कू जो मर्जी वो करने का, मिल खोलने का, शट डाउन-तालाबंदी करने का, गरीब मजदूर लोग का खून चूसने का, जोर-जुलुम सब करने का, पन ये सब हिन्दी में बिल्कुल चलने को नई मँगता। कोई भी मजदूर का हक अगर ‘हिन्दी’ में मारा तो हम उसको ‘मराठी’ में मार-मारकर हाथ-पाँव तोड़ डालेगा।
सब च्यॉनल वाला प्रोग्राम, नेशनल टी.व्ही. च्यॉनल, ऑल इंडिया रेडियो सब हमकू मराठी में दिखने-सुनने कू मँगता है। कुछ भी करने का, इन्टरप्रेटर लगाने का, ट्रांसलेटर लगाने का, स्टूडियों में भलेइच आवाज हिन्दी में एयर होए मगर इधर मुम्बई में आकर मराठी मेंइच सुनाई देने को मँगता है।
अख्खा शाइर लोग, पोएट अउर रायटर लोग मुंबई में अड्डा जमाके, मराठी का खाके, मराठी का पीके, मराठी हवा में श्वास लेके हलकट, हिन्दी में लिखता है। अभी हम बोलता है सब साला मराठी में लिखना शुरु करने का। हिन्दी पोयट्री, कहानी, कादम्बरी सब मराठी में लिखने का। गझल मराठी में बोलने का। इधर राजभाषा का अख्खा कारीक्रम हिन्दी में कर-करके तुम लोग दिमाग का दही करके रखेला है। अभी अइसा नहीं चलने कू मँगता है। हिन्दी डे का पखवाड़ा का सब प्रोग्राम मराठी में करने को मँगता है, नई तो मराठी में मार खाने कू तैयार रहने कू मँगता है।
अभी सब हिन्दी साइडर लोग को फायनल बोलता है, अख्खा इंडिया होएगा तुम्हारा राष्ट्र, अपून का राष्ट्र बोले तो महाराष्ट्र! हिन्दी होयेगा तुम्हारा राष्ट्रभाषा अपून का राष्ट्रभाषा बोले तो मराठी है। अभी अपून को अभी के अभीच्च राष्ट्रगान मराठी में ट्रांसलेट करके मँगता है, तिरंगा भी अख्खा के अख्खा मराठी कलर में तैयार करके मँगता है। जब 'हमारा' तिरंगा झेंडा मराठी में फर्र-फर्र बोलके फहराएगा तो हम सब मराठी मानूस लोग एक स्वर में अपना राष्ट्रगान मराठी में गाएँगा - ज़न गण मन अधिनायक........ और तुम सब हिन्दी साइडर लोग अगर मराठी का जागा में हिन्दी में सूर मिलाया तो कान के नीचे एक रखके देगा, फिर बोम मारते बैठने का हिन्दी मेंइच। मुम्बई का डॉन कौन ? अपून ! एक एक को बोल के रखता है भंकस नई करने का।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

क्रिकेट की मण्डी में कौन आएगा बिकने।

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट 
अब जाकर मेरे सामने सब्ज़ियों-भाजियों का दयनीय पहलू उद्घाटित हुआ है। सब्ज़ी मण्डी की खुली नीलामबोली में दलाल आढ़तियों द्वारा जब कभी भटे-टमाटरों की बोली नहीं लगाई जाती तो उनके नाज़ुक दिलों पर क्या गुजरती होगी, मुझे अब समझ में आया है, जब पाकिस्तानी खिलाड़ियों को आई.पी.एल. क्रिकेट मण्डी से बिना नीलाम हुए वापस लौटना पड़ा।
आई.पी.एल. की क्रिकेट मंडी में पाकिस्तानी खिलाड़ियों की दशा सड़े टमाटरों से भी ज्यादा गई-गुज़री हो गई, क्योंकि सड़े टमाटरों को तो फिर भी कोई न कोई सॉस-चटनी बनाने वाला खरीद ही लेता है इन्हें तो किसी ने कौड़ी का भाव नहीं दिया। हद होती है बेदर्दी की! मुझे तो उनके प्रति घनघोर सहानुभूति हो रही है क्योंकि बेचारों को बिक ना पाने के कारण अपने देश में ना जाने कितने जूते खाना पड़ रहे होंगे, जबकि इसमें उन बेचारों की रत्ती भर भी गलती नहीं रही! भटे-टमाटर नहीं बिक पाते तो क्या इसमें उनकी गलती होती है! वे धुरंधर तो अपनी तरफ से बढ़िया नव्हे-धुले, क्रीम-पाउडर लगाकर शिद्दत के साथ बिकने के लिए तैयार खड़े थे। अच्छे हट्टे-कट्टे मजबूत और खूब मेहनती तो है ही, बिकने का जज़्बा भी कूट-कूटकर भरा हुआ था। कहीं कोई दिक्कत थी नहीं। जो कोई भी मालिक नीलामी में हाथ मार लेता, वे सिर नीचा कर दुम हिलाते हुए उसी के पीछे जाकर जा खडे़ हो जाते। मगर अफसोस कि बेचारों को हिन्दुस्तानी रोकड़े पर ऐश करने का सौभाग्य नहीं मिल पाया। क्रिकेट घरानों के मालिकों ने उन्हें पिच पर झाड़ू लगाने के काबिल तक नहीं समझा। सब के सब उन्हें छोड़कर ऐसे उठ गए जैसे उन्हें छूत का कोई गम्भीर रोग हो गया हो।
मैंने सुना है कि पाकिस्तान की जनता खास तौर पर क्रिकेटरों के मामले में काफी संजीदा है। बढ़िया भारी-भरकम जूते-चप्पल और पर्याप्त साइज़ के बोल्डर-पत्थरों के साथ हर वक्त आक्रामक मुद्रा में तैयार रहती है और बात-बात में इस प्राणघातक सामग्री का उदारतापूर्वक इस्तेमाल भी कर लेती है। क्रिकेटरों के चाहे जितने घर हों और पाकिस्तान की चाहे जिस भी गली में हों, उन सबमें आग लगाने के लिए पर्याप्त ईंधन और दियासलाई की व्यवस्था भी हमेशा चाक-चौबंद रखी जाती है। भले ही घर में चूल्हा जलाने के लिए मट्टी का तेल ना हो मगर हारने पर क्रिकेटरों के घर फूँकने के लिए तमाम ज्वलनशील पदार्थों की जुगाड़ यहाँ-वहाँ से कर ही ली जाती है। चूँकि उनके लाड़ले क्रिकेटर अपने-आपको आई.पी.एल. की मंडी में बेच नहीं पाए हैं तो पाकिस्तानी अवाम उनकी इस शर्मनाक असफलता पर अपने आप को लुटा-पिटा, ठगा हुआ महसूस कर रही है और अब वह काफी दिनों से जमा आग्नेयास्त्रों का जखीरा उन पर किस तरह से इस्तेमाल करेगी कुछ कहा नहीं जा सकता।   
बचपन से सुनते आएँ हैं कि हारने पर, और खासतौर से हम पड़ोसी काफिरों से हारने पर पाकिस्तानी सरकार द्वारा क्रिकेटरों को लाइन में खड़ाकर कोड़ों का प्रसाद दिया जाता है। अब चूँकि पाकिस्तान में सैनिकों की तानाशाही की जगह जरदारी का लोकतंत्र हैं, इसलिए बाज़ार से कन्साइन्मेंट रिजेक्ट होकर वापस आ जाने पर  कोड़े तो शायद ना पड़ें, लेकिन घर में क्रिकेटरों  को बीवियों की ओर से जूते-चप्पल शर्तिया घलने वाले हैं, और सड़क चलते शोहदे पत्थर भी मारेंगे सो अलग।
गली-गली में फिकरे कसे जाएँगे, क्रिकेटरों की बीवियाँ हाथ नचा-नचाकर मोहल्लेभर के सामने चिल्लाएँगी-अरे नासपीटे, चवन्नी भर की कीमत नहीं थी तो खड़ा क्यों हुआ नीलामी में जाकर! वह भी दुश्मनों के मुल्क में, कम्बख्त-मारे ने नाक कटवा दी मुल्क की! कोई बीवी चिल्ला-चिल्लाकर कहेगी-अरे निगोड़े कोई खरीद नहीं रहा था तो पटकनी क्यों नहीं दी एखाद को! लड़-मरके अपना हक लेना नहीं आता तुझे ! कैसा पाकिस्तानी है तू ? माँ-भेन की गालियाँ नहीं आतीं तुझे, देता मो भर-भरके कम्बख्तों को! कोई शरीफ बीवी कहती-अजी इतना तो कह ही सकते थे, ले लो-ले लो, हम फ्री में ही खेल लेंगे! न खरीदता कोई, ना देता पैसा, खाने खेलने पर तो ले सकता था टीम में! दौड़ दौड़कर बॉल ही उठा दिया करते फोर बाउन्ड्री से! कोल ड्रिंक, पानी ही पिला देते खिलाड़ियों को! मगर तुमने कोई कोशिश ही नहीं की! बस, न बिके तो मुँह उठाकर वापस चले आए। थोड़ा तकादा तो लगाना था।
पूरा पाकिस्तान ग़मज़दा है कि देखो हमारे बिकाऊ माल को न खरीदकर भारतीयों ने हमारे क्रिकेटरों की कैसी छीछालेदर की है ! कैसा अन्याय-अत्याचार किया है। इससे बड़ी बेइज्ज़ती तो कोई हो ही नहीं सकती कि हमारे खिलाड़ी बिकने के लिए उतावले हैं मगर कोई खरीददार ही नहीं है। पाकिस्तानी सरकार भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कह रही है कि हमारे माल की ऐसी उपेक्षा अच्छी नहीं-शान्ति स्थापित करने की कोशिशों में बाधा हो सकती है। भविष्य में यदि वह विश्व समुदाय के सामने दहाड़ें मार-मार कर रोए और शिकायतें करे कि देखो भारत ने हमारे खिलाड़ियों को ना खरीदकर हमारे मानव अधिकारों का हनन किया है तो कोई बड़ी बात नहीं। पाकिस्तानी सेना और आतंकवादियों के लिए भी एक नए मुद्दे ने जन्म लिया है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यदि किसी मण्डी में ना खरीदा जाए तो क्या एक्शन लिया जाए ! भारत में आतंकवादी हमले तेज किये जाएँ या सीमा पर गोलीबारी चालू की जाए।
जो भी हो क्रिकेट घरानों की इस अहमकाना हरकत से हमारी ईमानदार छवि को गहरा धक्का लगा है। दुनिया जान गई है कि हम बिकाऊ माल की खरीददारी में भी किस कदर पार्शलिटी करते हैं। यही हरकतें रहीं तो आई. पी. एल. की क्रिकेट मण्डी में कौन हमारे पास आएगा बिकने के लिए ?