//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
नईदुनिया दिल्ली में प्रकाशित संपादित अंश |
भूखों का एक डेलीगेशन खाद्य मंत्री से मिलने गया। पहले तो खाद्य मंत्री ने यह सोचकर कि-‘‘भुख्खड़ साले आ गए मुफ्त में गेहूँ माँगने’’, मिलने से साफ इन्कार कर दिया, फिर जब दलालों ने समझाया कि वे गेहूँ माँगने नहीं आएँ हैं, बल्कि अब तक सड़े और भविष्य में सड़ने वाले गेहूँ के बारे में सार्थक चर्चा करने आएँ हैं, तब जाकर खाद्य मंत्री डेलीगेशन से मिलने के लिए राज़ी हुए।
भूखों का डेलीगेशन जब कान्फ्रेन्स हॉल की कुर्सियों पर चढ़कर बैठ चुका तब खाद्य मंत्री अपने ‘गेहूँ सचिव’ के साथ अवतरित हुए और बिन्दास अपनी कुर्सी पर जमते हुए भूखों से मुखातिब होकर बोलने लगे- ‘‘भाइयों और बहनों मुझे बड़ा दुख है कि आप सब लोग भूखे हैं, परन्तु मैं आपको स्टॉक में मौजूद गेहूँ एक दाना भी नहीं दे सकता।’’
भूखों के नेता ने तपाक से कहा- ‘‘अपना वह गेहूँ का दाना आप अपने पास रखिए, हमें उसकी कोई ज़रूरत नहीं। भगवान की दया से शहर में इतनी भीख मिल जाती है कि हम आप जैसे छत्तीसों को खिला सकते हैं।’’
गेहूँ सचिव भूखों के नेता की इस बदतमीज़ी पर उखड़ कर बोला- ‘‘बदतमीज़, मंत्री जी से ऐसे बात करते हैं ? सबको जेल भिजवा दूँगा।’’
मंत्री जी गेहूँ सचिव को शांत करते हुए बोले-‘‘कंट्रोल युवर सेल्फ माय बॉय। मैं देखता हूँ। हाँ भई, अपनी समस्या बताइये, बस ध्यान रखिएगा कि मैं आपको गेहूँ का एक दाना भी मुफ्त में न देने के लिए कटिबद्ध हूँ, चाहे कुछ भी हो जाए। हमारा लक्ष्य देश के पूरे गेहूँ भंडार को सड़ाने का है। जब वह पूरी तौर पर सड़ जाएगा और बदबू और संड़ांध के मारे जीना हराम कर देगा तब हम आगामी योजना पर काम करेंगे।’’
भूखों का नेता मंत्री जी से बोला-‘‘सर हम उसी गेहूँ के सड़ाने की महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय योजना पर आपसे कुछ चर्चा करने के लिए आएँ हैं। वैसे हम जानते हैं कि आप इस मामले में पर्याप्त दूरदृष्टि रखते हैं परन्तु फिर भी चूँकि हम इस देश के जिम्मेदार भूखे नागरिक हैं इसलिए इस दिशा में अपना रचनात्मक योगदान देने के लिए उपस्थित हुए हैं। आप कहें तो हम देना चालू करें ?’’
मंत्री जी का इशारा मिलते ही भूखों का नेता, नेताओं की तरह शुरू हो गया- ‘‘सर देश में गेहूँ को गोदामों में सुरक्षित रखने की पुरानी परम्परा ठीक नहीं है, इससे कितना गेहूँ फिज़ूल अनसड़ा पड़ा हुआ है। अविलंब सारे गोदामों की छतों को उखड़वा देना चाहिए, ताकि बारिश का पानी गोदामों में भरकर गेहूँ को अच्छी तरह सड़ा सके। गोदाम के दरवाज़ों को ईट-गारे से सील कर देना चाहिये, ताकि पानी बाहर ना निकल सके और बाहर खुले मैदानों में रखे गेहूँ के ऊपर पड़ा टरपोलिन तुरन्त हटाकर गेहूँ को खुले आसमान के नीचे ‘नंगा’ छोड़ देना चाहिए। गेहूँ देश भर में जहाँ कहीं भी सुरक्षा की नीयत से इधर-उधर लुकाकर रखा गया है, उसे फौरन जलवृष्टि को समर्पित किया जाना चाहिये। घर-घर में लोग गेहूँ सड़ाने के कार्यक्रम में रचनात्मक योगदान दें, इस दृष्टि से सरकार की ओर से जन-जागृति का व्यापक कार्यक्रम हाथ में लेना चाहिए।’’
डेलीगेशन द्वारा मंत्री जी और गेहूँ सचिव को, दिये जा रहे सुझाव उनकी योजना एवं कार्यक्रम की टक्कर के होने के बावजूद पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था जैसे सारे भूखें उनका मज़ाक उड़ाने के लिए एकत्र हुए हों। गेहूँ सचिव ने फिर गुर्राते हुए कहा-‘‘देखिए, हमारा कार्यक्रम एक राष्ट्रीय महत्व का कार्यक्रम है, आपको इस तरह उसका मज़ाक उड़ाने का कोई हक नहीं है। आप सबको सरकारी कामकाज में बाधा डालने के जुर्म में अन्दर किया जा सकता है।’’
भूखों के नेता ने कहा-‘‘श्रीमान कौन कहता है कि हम आपका मज़ाक उड़ाने के लिए यहाँ आएँ हैं। अरे, हमें मज़ाक ही उड़ाना होता तो हम अपने झोपड़े में बैठे-बैठे ही ना उड़ा लेते ? क्या कर लेते तुम ? हमें पागल कुत्तों ने तो काटा है नहीं, जो हम अपनी गाँठ का पैसा खर्च करके यहाँ आएँ, और तुम जैसे मसखरों का मज़ाक उडावें। हम तो यह चाहते हैं कि गेहूँ को सड़ाने की इस सरकारी योजना में किसी तरह की लापरवाही ना हो सके। आप तो जानते ही हैं कि ‘हरामखोरी’ सरकारी योजनाओं में किस कदर हावी है। इस योजना में भी अगर वही ‘खोरी’ चली, गेहूँ ठीक से ना सड़ाया गया, कोई कोताही हुई तो फिर योजना खामोखां बदनाम हो जाएगी। वैसे ही आजकल मीड़िया वाले कुत्तों की तरह ‘स्कैम’ ढूढ़ते फिर रहे हैं। कोई कमी बेशी रही, कहीं थोड़ा बहुत गेहूँ सूखा सट्ट पड़ा मिल गया, बिन-सड़े गेहूँ का कहीं स्टिंग ऑपरेशन हो गया तो हफ्ता भर अखबार टी.वी. में सुर्खियाँ चलती रहेगी, ‘‘गेहूँ सड़ाने की योजना में भारी भ्रष्टाचार और घोटाला.......। तुम लोग बर्खास्त और होते फिरोगे।’’
गेहूँ सचिव और भूखों के नेता में यह गंभीर चर्चा चल ही रही थी कि डेलीगेशन के साथ आए एक तंदरुस्त से भूखे ने खड़े होकर मंत्री जी से पूछा-‘‘हजूर हजूर, हमें तो यहाँ सड़ा गेहूँ बटोरने का लालच देकर लाया गया है, अब लग रहा है कि हमें सरासर ठगा गया है। आपके इरादे नेक नहीं हैं। मेहरबानी करके यह बताया जाए कि आप लोगों की तमाम मेहनत और कर्त्तव्य निष्ठा के साथ गेहूँ को सड़ाने की तमाम कोशिशों के बाद जब वह गेहूँ पूरी तौर पर सड़ जाएगा और बदबू मारने लगेगा, उसमें कीड़े पड़ जाऐंगे, हज़ार-हज़ार कोस दूर तक संड़ांध के मारे लोगों का जीना हराम हो जाएगा........ तब तो हजूर हमें वह सड़ा गेहूँ खाने को मिलेगा कि नही ?’’
मंत्री जी नाराज़ से होकर आनन-फानन में उठ खड़े हुए और भूखों के नेता से डपटकर बोले-‘‘ऐसे आलतू -फालतू लोगों को लेकर क्यों आते हो ? साले काम के ना काज के दुश्मन अनाज के ?’’ फिर उस डेलीगेट से मुखातिब होकर बोले, माननीय -‘‘मंत्रिमंडल में आपके इस प्रश्न पर विस्तार से चर्चा कर ली जावेगी, ऐसी स्थिति में अगर सड़ा गेहूँ समुद्र में फिकवाने अथवा जलवाने अथवा ज़मीन में गड़वाने से आम जनता में बँटवाना सस्ता पड़ा तो फिर इस विषय पर मंत्रिमंडल द्वारा सकारात्मक निर्णय लिया जाएगा। तब तक के लिए आज्ञा दीजिए। धन्यवाद। जयहिन्द।’’