शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

भूलने के अलावा रास्ता क्या है !


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित
पढ़ाई-लिखाई के दिनों में भूलने की बीमारी के भीषण नुकसान होते हैं मगर पढ़े-बिनपढ़े ही ऊँचे-ऊँचे पदों पर जा पहुँचने, और वहाँ दुनिया भर के दंद-फंद कर चुकने के बाद, यह बीमारी लगना बड़ा फायदेमंद होता है। फिर, कॉमनवेल्थ जैसा घोटाला हो, और जेल में रातें काटना पड़ रही हों, तो कौन घोटालेबाज उसे भूलना नहीं चाहेगा। ज़िन्दगी के काले पन्ने सभी भूलना चाहते हैं। बड़ा से बड़ा डाकू भी एक दिन अपनी जीवन भर की काली करतूतों को भूलने के लिए लाखों जतन करता है, फिर यह मामला तो ऐसा है कि कोई भी कानून के जाल में फंसकर फड़फड़ा रहा इंसान भी बीमारी न होने पर भी डाक्टर को बुलाकर कहेगा-भाई भले ही ओपन दिमाग सर्जरी करो, मगर मुझे भूलने की बीमारी दे दो।
वैसे भूलने की बीमारी मानव जीवन की एक नैसर्गिक घटना है, किसी भी दिमाग वाले को हो सकती है। ऐसा नहीं है कि जिसने पर्याप्त घोटाले कर रखें हों उसी को यह बीमारी होती है। पहले फिल्मों के हीरों को भूलने की बीमारी हुआ करती थी, वह मौज-मस्ती करने के बाद याददाश्त खो देता था, हीरोइन को बच्चा गोद में लिए दर-दर भटकना पड़ता था। अब जेल जाने वालों को भूलने की इस बीमारी ने आ घेरा है।
कलमाड़ी के लिए तो इस बीमारी की आमद किसी वरदान के रूप में हुई है, पूछताछ करने वालों के सामने घोटालों में शामिल साथियों के नाम लेने की बाध्यता नही रहेगी। कई संगी-साथी खुशी के मारे कूद-कूद पड़ रहे होंगे, जो उनके जेल जाने के बाद से लगातार डिप्रेशन में चल रहे थे, पता नहीं अगला पूछताछ में कब  नाम बक दे। बहुत से लोग खुश हो रहे होंगे जिनकी कलमाड़ी की तरफ देनदारी निकल रही होगी, क्योंकि भूलने की बीमारी होने से अब उन्हें यह भी तो याद नहीं रहेगा कि किस-किस से कमीशन, हिस्सा आना अभी बाकी है।
इन दिनों कलमाड़ी से मिलने जेल जाने वालों में अधिकांश लोग शर्तिया वे ही होंगे जो सेहत से ज्यादा यह पूछताछ करने जेल पहुँच रहे होंगे कि कब तक उनकी बाकी याददाश्त चली जाएगी, ताकि पूरी याददाश्त जाने के बाद वे चैन से जश्न मना सकें।

रविवार, 24 जुलाई 2011

सुस बैंक में खाता


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
हरिभूमि में प्रकाशित व्यंग्य पर चित्रांकन—वासु
          गुन्नुभैया अपनी सुअर के आकार की गुल्लक लेकर अपने दादाजी के पास पहुँचे और लगभग फुसफुसाते हुए उनके कान में बोले-‘‘दादाजी दादाजी! मालूम आपको! सुस बैंक में खाता खोलना बहुत ही आसान है!’’
          दादाजी अपने पोते की गुल्लक को गौर से देखते हुए बोले-‘‘अच्छा! फिर अपन क्या करें ?’’
          गुन्नुभैया फिर फुसफुसाए-‘‘आप सुस बैंक में मेरा भी खाता खुलवा दो।’’
          दादाजी मुस्कुराते हुए बोले-‘‘क्यों! आपको स्विस बैंक में खाता खुलवाने की ज़रूरत क्यों पड़ गई ?’’
          गुन्नुभैया ने इधर-उधर झाँककर सुनिश्चित करने के बाद कि कोई देख-सुन नहीं रहा है, अपने दादाजी का कान अपने मुँह के पास खींचते हुए कहा-‘‘आपको नहीं पता, इंकम टेक्स वाले कभी भी छापा मारकर मेरी यह गुल्लक ज़प्त करके ले जा सकते हैं। आजकल माहौल बड़ा खराब चल रहा है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि सुस बैंक में खाता खुलवा लूँ सब झँझट खत्म।’’
          दादाजी, जो बैठकर दूरदर्शन पर फालतू कार्यक्रम देखकर बोर हो रहे थे, पोते द्वारा फुसफुसाए जा रहे इस मामले में मनोरंजन की अपार संभावनाएँ देख बड़े उत्साहित हो गए और गुन्नुभैया को गोद में बिठाकर बात आगे बढ़ाने लगे। बोले-‘‘यह समस्या तो बड़ी गम्भीर है भई। मगर बेटे! इन्कमटेक्स वाले तो ब्लैकमनी रखने वालों के ऊपर छापा मारते हैं, उनका पैसा ज़प्त करते हैं। आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।’’
          गुन्नुभैया बोले-‘‘ आप किसी को बताना मत, मेरी गुल्लक में भी ब्लैकमनी है, इसीलिए तो मैं टेन्शन में हूँ।’’
          दादाजी आँखें चौड़ी करते हुए बोले-‘‘अच्छा! यह आपको किसने बताया ?’’
          गुन्नुभैया फिर दादाजी का कान खींचते हुए बोले-‘‘पापा-मम्मी रोज़ रात को नोटों की गड्डियाँ गिनते हुए बातें करते हैं कि ये ब्लैकमनी न हो तो अपन तो भूखों मर जाएँ। इस गुल्लक में उसी ब्लैकमनी का हिस्सा ही तो है।’’
          दादाजी के माथे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं, लेकिन वे फिलहाल बेटा-बहु से न उलझकर पोते के साथ पूरे मनोरंजन के मूड़ में थे। वे गुन्नुभैया के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-‘‘लेकिन बेटे, आपको तो यह व्हाइट में मिल रही है, इसलिए आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। स्विस बैंक में भी खाता वही लोग खुलवाते हैं जो चोरी का पैसा रखते हैं, रिश्वतखोरी-कमीशनखोरी का पैसा रखते हैं, दलाली हेराफेरी का पैसा रखते हैं। आपका पैसा तो शुद्ध पाकेटमनी का पैसा है!’’
          गुन्नुभैया के सबसे विश्वस्त घर-भर में दादाजी ही थे, इसलिए वे अपनी सारी राज़ की बातें उनके सामने खोलने से कोई परहेज़ नहीं कर रहे थे। वे फिर दादा के कान में अपना छोटा सा मुँह घुसेड़ते हुए बोले-‘‘अब क्या-क्या बताऊँ आपको! कोई शुद्ध-वुद्ध नहीं है। मैं भी कभी-कभी पापा-मम्मी के पर्स से नोट चुरा कर इसमें डाल देता हूँ। मम्मी की बात पापा से, पापा की बात मम्मी से और उन दोनों की बातें आपसे न बताने के लिए रिश्वत लेता हूँ। रामूभैया के साथ सामान लेने जब बाज़ार जाता हूँ तो वो जो पैसा बीच में हज़म करता है उसमें से कमीशन लेता हूँ। अपने दोस्तों के पापाओं का जो काम अपने पापा से करवाता हूँ उनसे दलाली बराबर ले लेता हूँ। हेराफेरी लायक मेरी उम्र अभी है नहीं, समय आने पर वह भी करूँगा। और दादाजी, यही सब ब्लैकमनी ही तो मैंने अपनी गुल्लक में डाल रखी है। अब बताइये मुझें सुस बैंक में आता खोलना कितना ज़रूरी है ?’’
          दादाजी के होश फाख्ता हो लिए, काटो तो खून नहीं। उन्हें पालने में क-पूत के पाँव साफ-साफ दिखाई दे रहे थे। उन्होंने हल्की सी नाराज़गी का भाव चेहरे पर लाते हुए पोते को डाँटा -‘‘ गुन्नु !! अच्छे बच्चे गंदी बातें नहीं करते। किसने सिखाई ये सब उटपटाँग बातें आपको ?’’
          पोते महाराज भी दादाजी की बात से नाराज़ हो गए। विद्युत गति से उनकी गोद से कूदते हुए बोले-‘‘मुझे पता था, पता था मुझे, आप जैसे ईमानदार खड़ूस बुढ्ढों के बस की बात नहीं है यह। मैं तो पापा-मम्मी से ही बोलूँगा, वो झट से सुस बैंक में मेरा खाता खुलवा देंगे।’’ इतना कहकर गुन्नुभैया हाथ में अपनी सुअर के आकार की गुल्लक लेकर चलते बने। दादाजी अवाक देश की भावी पीढ़ी को ताकते रह गए।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

देवों के सोने जागने का राज क्या है

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//     
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ
          देव सो गये। अब उठेंगे फुरसत से। जब तक उठेंगे काफी पानी सर के ऊपर से बह चुकेगा। दुनिया का तो खैर कुछ नहीं कहा जा सकता मगर अपने देश में पाप, अनाचार और बढ़ जाएगा, नींद में गाफिल होने के कारण देव कुछ देख जो नहीं सकेंगे। पापियों को तो देवों के सोने-जागने से कोई फर्क नहीं पड़ता, वे पूर्ण कर्त्तव्यपरायणता से अपना काम करते रहते हैं, मगर पाप, अनाचार बढ़ जाने का कारण, देवों को सोया देख धर्मात्मा लोगों का बहती गंगा में हाथ धोने लग पड़ना है। वे चार महीने जमकर कुकर्म करते हैं और देवों के जागते ही फिर शरीफ बनकर घूमने लगते हैं।
          देवों की नींद के चक्कर में बेचारे प्रेमासक्त युगल जोड़े शादी-ब्याह से वंचित रह जाते हैं और चार महीने उनकी गुडमर्निग होने तक विरह की आग में जलते रहते हैं।
          मैं सोचता हूँ कि इतने पुरातन और महत्वपूर्ण इशू पर किसी ने आज तक पी.एच.डी. क्यों नही की। कितना बढ़िया विषय है, एकदम मौलिक - ‘‘देवों का सोना-जागना, और इसका मानव जाति पर प्रभाव एक विवेचनात्मक अध्ययन’’! देश तो क्या दुनिया भर में इस विषय पर आज तक किसी माई के लाल ने कोई शोध अनुसंधान नहीं किया होगा।
          मुझे मौका मिले तो मैं अपने शोध प्रश्नों से ज्ञान जगत को स्तब्ध कर दूँ। जैसे-देव आखिर सोते क्यों हैं? सोते हैं तो इतना क्यों सोते हैं ? क्या देवों की नींद में सूरज की रोशनी से कोई खलल नहीं पड़ता! क्या सभी देव सो जाते हैं या कुछ जागकर वैकुंठ की चौकीदारी वगैरह भी करते हैं! सोते समय क्या देवगण खुर्राटे भरते हैं, यदि भरते हैं तो खुर्राटों की फ्रिक्वेंसी क्या रहती है। इससे एक-दूसरे को डिस्टर्बेंस होता है या नहीं। इतने सारे देवों के खुर्राटों की आवाज़ हमें यहाँ पृथ्वी पर क्यों सुनाई नहीं देती। ज़रा से बादल लड़ जाते हैं और गड़-गड़ की आवाजें होने लगती हैं तो दारू पीकर पड़ा आदमी भी चौक कर उठ बैठता है। देवों को ना तो खुर्राटों से फर्क पड़ता है ना बादलों की गड़गड़ाहट से।
          इस विषय पर सचमुच गंभीरता से शोध होना चाहिये आखिर देवों के सोने-जागने का राज़ क्या है?

रविवार, 17 जुलाई 2011

तिहाड़ में ओलम्पिक

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
       सुना है खेल-पितामह कलमाड़ीइन दिनों तिहाड़ जेल में ओलम्पिक की महत्वाकांक्षी योजना तैयार करने में व्यस्त है। तिहाड़ में ओलम्पिक हो तो खेलभी अनोखे होने चाहिये और स्पर्धाएँभी। हालाँकि योजनाएँ बनाने में कलमाड़ी जी का लोहा इस समय दुनिया मान रही है, इसलिए उन्हें मुझ जैसे किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे के सलाह-मशवरे की ज़रुरत नहीं है फिर भी कुछ छूट ना जाए इसलिए कुछ सलाहें दरपेश है।
     तिहाड़ कुछ अलग तरह के खेलों के माहिर खिलाड़ियों का खेल गॉव सा है, लिहाज़ा तिहाड़ ओलम्पिक भी कुछ अलग किस्म का होना चाहिये, जिसका उद्घाटन देश के किसी कुख्यात अपराधी से कराया जाए और उद्घाटन समारोह में गोलियों की तड़तड़ से दर्शकों का और हथगोलों की धमधम से अतिथियों का स्वागत हो। ओलम्पिक की मशाल देश भर में बाहर छुट्टे घूम रहे अपराधियों के हाथों से होती हुई तिहाड़ प्रांगण तक पहुँचे, तो अन्दर-बाहर दोनों ही जगह अपराधकर्मियों का उत्साह बस देखते ही बने।
     जेल के अन्दर एक कॉलोनी का भव्य सेट लगवाकर चोरों की एक चोरी स्पर्धा कराई जानी चाहिये, जिसमें कम से कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा कीमत के, ज़्यादा से ज़्यादा माल पर हाथ साफ करने वाले शातिर चोरों की चोर्यकला का प्रदर्शन हो सकें। स्पर्धा में रोचकता रहे इसलिए सिर पर चोरी का माल रखकर तेज गति से दौड़ने का इवेंट भी इसके साथ जोड़ा जा सकता है। और ज़्यादा रोचकता बनी रहे इसके लिये दौड़ते प्रतिस्पर्धियों के पीछे पुलिस के खूँखार कुत्ते भी छोड़े जा सकते हैं।
     इसी सेगमेंट में डकैती स्पर्धा भी रखी जा सकती है, जिससे व्यवस्था पोषित डकैतियों के मुकाबले, लुप्त होती जा रही पारम्परिक डकैती कला को प्रोत्साहन मिल सके। डकैत, कॉलोनी के मालदार घरों को पहचानकर उनकी अच्छे से रेकी करने के उपरांत घर मालिकों के हाथ-पाँव तोड़कर माल ले जाने का अपना कौशल दिखा सकते हैं। बैंकों में डकैती की एक विशेष स्पर्धा भी इसमें रखी जा सकती है जिसमें जेल परिसर में बैंक की बिल्डिंग बनाकर बैंक से ज़्यादा से ज़्यादा नोट बोरियों में भरकर सफलता पूर्वक फरार होने और पुलिस के हथ्थे न चढ़ने की अद्भुत् योग्यता रखने वाले डकैत पुरस्कृत किये जा सकें।
     एक इवेंट कत्ल का रहे, जिसमें इन्सान को खल्लास करने के विभिन्न तरीकों की स्पर्धा हो। क़त्ल होने के लिए देश की आम जनता से सम्पर्क किया जा सकता है। वह यूँ भी आए दिन घुट-घुटकर मरती ही है, कलमाड़ी के काम आकर मरेगी तो उसका जीवन सार्थक हो जाएगा। क़त्ल के ही इवेंट में, बलात्कारके बाद क़त्लका इवेंट भी रखा जा सकता है और केवल बलात्कारका इवेंट तो पृथक से हो ही सकता है। क़त्ल के नाम से भले ही ओलम्पिक के टिकट ना बिकें मगर बलात्कार के नाम से अवश्य बिकेंगे, प्रतिस्पर्धियों में भी ग़ज़ब का उत्साह देखा जाएगा। प्रश्न यह उठेगा कि बलत्कृत होने के लिये काफी सारी अबलाएँ कहाँ से आएँगी, तो इसके लिये पुलिस विभाग से सहायता ली जा सकती है।
     इसी प्रकार, तमाम और भी अपराधों में खेल भावना और रोचक प्रतिस्पर्धत्व को ध्यान में रखते हुए तिहाड़ ओलम्पिक का शानदार आयोजन किया जा सकता है। इसकी भव्यता में चार चाँद लग जाएँ अगर इसमें घपला-घोटाला स्पर्धाएँ भी शामिल की जावे। कौन, किस तरह से अनोखी-अनोखी योजनाएँ बनाकर देश का पैसा हड़प सकता है, इसकी एक महास्पर्धा आयोजित हो। टेबलों पर नोटों की गड्डियाँ रखी हों और प्रतिस्पर्धी कम से कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा नोट खाने का पराक्रम दिखाएँ।
          कलमाड़ी जी की कल्पनाशीलता और तिहाड़ में बंद अब्वल दर्जे के अपराधियों की अद्भुत खेल भावना से तिहाड़ ओलम्पिक एक विश्व स्तर के आयोजन का रूप ले सकता है, बशर्ते राजनैतिक वरदहस्त पाकर कलमाड़ी जी जल्दी छूट कर बाहर न आ जाएँ।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

काला धन, सफेद धन, निर्धन


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
काले धन की बात करो तो डंडे पड़ते हैं, जानते हुए भी देश में बहुत सारे लोग काले धन की चिन्ता करने से बाज नहीं आ रहे हैं। कई सामाजिक चिन्ताखोर काले धन को बाहर निकलवाकर हवा-धूप दिखलाना चाहते हैं क्योंकि आम धारणा है कि काला धन रजाई-गद्दों, बाथरूम के फर्शों, टॉयलेट सीटों के नीचे पड़ा सीड़ रहा है। कुछ लोग विदेशी बैंकों के तगड़े कमरों (स्ट्राँग रूम) में पड़े काले धन की चिन्ता में दुबले हुए जा रहें हैं।
उन लोगों की कल्पनाशीलता की दाद देनी पड़ेगी, जिन्होंने भरसक खयाली पुलाव पका रखे हैं कि- विदेशी बैंकों में पड़ा यह काला धन यदि घर वापसी करे तो कितने लोग खा-पी लेंगे, कितने लोग नंगे न रहेंगे, कितने निरोग हो जाएँगे, कितने पढ़-लिख जाएँगे वगैरा-वगैरा। हालाँकि सबको पता है कि हम कितना भी ज़ोर लगा लें एक बार विदेश गया धन कभी वापस नहीं आता। कुछ लोग फालतू पलक-पावड़े बिछाकर बैठे हैं कि यह तमाम काला धन बाहर आकर राष्ट्रीय सम्पत्ति बने तो फिर उसको विधि-विधान से जीमकर सफेद धन में तब्दील कर लेने का राष्ट्रीय कर्म सम्पन्न किया जाए। इस काम में तमाम सारे राष्ट्रप्रेमी उद्यमियों को महारथ हासिल है।
तुलना के लिए समय खराब किया जाए तब भी यह ज्ञान मिलना मुश्किल है कि सफेद धन का अंबार बड़ा है या काले धन का, हालाँकि दोनों में फर्क यह है कि काला धन काली करतूतों के एवज में हासिल होता है और सफेद धन सफेद करतूतों के एवज में। सफेद-काली दोनों ही करतूतों के एवज में निर्धननाम का एक राष्ट्रीय प्राणी पैदा होता है।
काले धन का सफेद धन में और सफेद का काले धन में तब्दील होने का मायावी कारोबार तो चलता ही रहता है, मगर यह जो निर्धन नाम का प्राणी दिन-रात बढ़ता ही चला जा रहा है उसकी किसी रंग के धन को कोई चिन्ता नहीं है। लोग काले को सफेद में सफेद को काले में, और इन दोनों ही रंगों के धनों को पीलेया हरेधन में तब्दील करने की करतूतों में लगे हुए हैं और उधर बेचारा निर्धन नामक प्राणी दूर खड़ा इन करतूतों को विस्फारित नेत्रों से देख रहा है।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

महँगाई के गूमड़

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//          
          मध्यमवर्गीय भारतीय को रुला-रुलाकर मारने के लिए पूर्ववर्ती दुष्ट मानवों ने क्या-क्या धत्कर्म नहीं किये। एक निठल्ले ने पहिए का अविष्कार कर मारा। फिर किसी दूसरे ने पहियों के ऊपर दुनिया भर का कबाड़ फिट कर वाहन बना दिया। किसी और ने धातु की टंकियाँ बनाकर कबाड़ में लगा दीं। फिर कोई बेचैन शोधकर्ता ज़मीन के अन्दर जा घुसा और उसने एक बदबूदार काले कीचड़नुमा पदार्थ की खोज कर दी जिसे पेट्रोलियम नाम से पुकारा जाने लगा। एक दूसरा शोधकर्ता बरसों से इसी ताक में बैठा था कि पेट्रोलियम की खोज हो तो मैं उससे डीज़ल-पेट्रोल और घासलेट बनाऊँ। उसने डीज़ल-पेट्रोल बनाया और धातु की टंकियों में भर दिया। लो साहब, वाहनों की बाढ़ आ गई, वे सड़कों पर सरपट दौड़ते फिरने लगे। जिसे देखो वही उस कबाड़ के ऊपर अपना पृष्ठ भाग रखने का बेताब दिखाई देने लगा।
          सड़क पर दौड़ते-फिरते वाहनों में आनंदपूर्वक घूमते फिर रहे इन्सानों का सुख कुछ लोगों से देखा नहीं गया। उन्होंने महँगाई का अविष्कार कर लिया और जब मर्जी तब पेट्रोल-डीज़ल को महँगा कर इन्सान को सताना चालू कर दिया। आजकल घड़ी-घड़ी जिस तरह से पेट्रोल-डीज़ल के भाव बढ़ते हैं, पहिए का अविष्कार करने वाले उस बंदे के ऊपर मेरी खुंदक बढ़ती जा रही है। अगर वह निठल्ला बैठेठाले पहिये का अविष्कार न करता, तो यदि पेट्रोलियम का अविष्कार हो भी जाता तब भी किसी को क्या पड़ती कि वह पेट्रोल-डीज़ल का अविष्कार कर उससे लोहे के कबाड़ को दौड़ाता फिरता। पहिया न होता तो पेट्रोल-डीज़ल न होता, न महँगाई हमें रोने पर मजबूर कर पाती।
          एक शोधकर्ता ने एक चीज़ खास तौर पर हिन्दुस्तानी गरीबों के लिए इज़ाद की थी और उसी समय तय कर दिया था कि यह लम्बी-लम्बी लाइनें लगाने के उपरांत ही बाँटी जाएगी। इसका नाम है घासलेट। इस घासलेट की कीमत में आग लगा कर कम्बख्तों ने गरीबों-गुरबों को भी रुला लिया।
          देखिए, एक भारतीय को रुलाने के लिए दुष्ट मानव कब से कैसे-कैसे षड़यंत्र करता आ रहा है। इन्हीं षड़यंत्रकारियों की वजह से हर भारतीय महँगाई के नाम पर सर पटक-पटककर रो रहा है। हरेक के माथे पर स्पष्टतः बड़े-बड़े गुमड़ दिख रहे हैं, महँगाई के गूमड़।