शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

फँसने-फँसाने का सीज़न


व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
  आजकल फँसने-फँसाने का सीज़न चल रहा है। इधर कोई अपने कर्मकांडों से खुद फँस रहा है अथवा दूसरों के कुकर्मों से फँसा-फँसा फिर रहा है़, उधर कोई हाथ में जाल-पिंजरे लिये किसी के फँसने की संभावनाएँ तलाश रहा है। कोई मकड़ी की तरह जाल सा ताने चुपचाप ताक में बैठा है कि कोई कीड़े-मकौड़े सा आए और उसके जाल में फँस कर फड़फड़ाने लगे। आँख पर पट्टी-बाँधे, नाक और कान में रुई के फोहे घुसेड़े सूँघने-सुनने के काम से फारिग़, खुद फँस जाने वाली हरकतें कर, ‘फ़सानाबनने वालों की भी देश में इन दिनों कोई कमी नहीं है।
फँसने वाली हरकतें करने वाला हर शख्स अपने फँसने की संभावनाओं से अच्छी तरह वाकिफ होकर भी फँसने वाली हरकतों से बाज नहीं आता, बल्कि फँसाने के लिए ताक में बैठे बहेलिए की तरफ बेशर्मीपूर्वक यह दुराग्रह रखता है कि वह उसके साथ दोस्ताना अदा से पेश आएँ और उसे फँसाने वाली नीच हरकतें ना करें! जो चाहिये ले-लवा कर बस आँख मूँदे फँसने वाले की फँसने वाली हरकतों को पूरी तौर पर नज़र अंदाज़ करता रहे।
देखा जाए तो पहले मात्र चोरों-सेंधमारों और लुटेरे-पिंडारियों के फँसने-फँसाने के किस्से सुने जाते थे मगर आजकल तो तथाकथित शरीफ लोगों को एक-एक बाद एक लाइन लगाकर  फँसते हुए देखा जा रहा है। चोर-उचक्के खुद हतप्रभ हैं कि दूसरों को फँसा-फँसाकर सलाखों के पीछे ला पटकने का कानून बनाने वाले आजकल खुद ही फँसे चले जा रहे हैं। राजा, कलमाड़ी, कनिमोझी, ने फँसने वाली हरकतें करते वक्त एक सेकन्ड के लिये भी रुक कर मगजमारी नहीं की होगी, कि आगे कहीं फंदा तो नहीं लगा हुआ है! अपन कहीं फँसकर अपराधियों के तीर्थ स्थल तिहाड़ में तो नहीं पहुँच जाऐंगे। बस आँख बंद कर चल पड़े, चलते चले गए, चलते चले गए, अंततः बुरी तरह फँस मरे। फँसाने वालों के औसान देखिए अब गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को भी फँसाने के लिये पुख्ता इंतज़ाम किये जा रहे हैं।
जो भी हो, इतिहास ने कानून की आँख पर काली पट्टी बाँधी ही इसलिए है ताकि वह राजा और रंक का फर्क न कर जो मिल जाए उसे फँसा ले, किसी खाँ के साथ मुरव्वत न करे।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
उपवास का चलन अच्छा चल पड़ा है, जिसे देखों वह उपवास करने पर उतारू है। अब जबकि देश में अन्न की भरपूर पैदावार होने लगी है, और हमें उसे सड़ाने के लिए जतन करना पड़ते हैं, लोग अन्न को बचाने वाली हरकतें करने लगे हैं। खाते-पीते घरों के लोगों को जिनकी दसों उंगलियाँ घी में और सर कड़ाही में हों उपवासकरते देख बेचारे गरीबों पर तरस आता है, एक उपवासही तो उनके पास महीना काटने का अचूक अस्त्र हुआ करता है, वह भी इन सम्पन्न लोगों ने हथिया लिया।
औसत बीस रुपल्ली रोज़ाना कमाने वाला इंसान महीने में इतने उपवास रखता है कि उसकी आर्थिक हाय-हाय ठंडी हो जाए। महँगाई जब बढ़ती है और यह बीसरुपल्ली उन्नीसरह जाती है तो बेचारा कहीं से ढूँढकर एखाद उपास और रख लेता है। इस तरह देश की आर्थिक स्थिति और उत्पादन व वितरण व्यवस्था के साथ ताल-मेल बिठाकर चलता हुआ एक सच्चा भारतीय होने का प्रमाण देता है। मगर जो लोग राजपाट का आनंद ले रहे हैं, धन-दौलत, सुख-सुविधाओं में लोट-पोट रहे हैं उन्हें उपवास जैसी नौटंकी करना शोभा नहीं देता! भई, भगवान का दिया-न-दियासब कुछ है आपके पास, उसे खाने-पचाने में मन रमाओं, उपास-वुपास कर आत्मा को कष्ट पहुँचाने की क्या तुक है।
शरीर विज्ञान के स्वयंभू ज्ञाताओं को कहते सुना है कि हफ्ते में एक दिन उपवास रखा जाए तो पाचन तंत्र ठीक-ठाक काम करता है। यह ज्ञान तमाम खाऊओं के लिये बड़ा उपयोगी है जो गपागप देश का माल खाने में लगे हैं। हफ्ते में एक दिन अगर वे उपवास की तर्ज पर माल हज़म करने से परहेज कर लें तो उनका हाज़मा भी ठीक रहेगा और आगे माल भकोसने में सुविधा भी रहेगी।
शास्त्रों में पापों से मुक्ति के लिये व्रतों-उपवासों का विधान है। दुनियाँ भर के कुकर्म करने के बाद उपवास कर लेने से आत्मा शुद्ध हो जाती है। चोरी करो, डाका डालो, बलात्कार करो, गरीब-गुरबों का खून चूसो, शोषण-दमन, अत्याचार में पाटनरी करो, जातीय-धार्मिक घृणा फैलाओ, कत्लेआम को अंजाम दो और फिर भोले-भाले बनकर उपवासकर लो, सारे पाप खत्म। सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली इसी को तो कहते हैं।

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

चंद सुझाव चुनाव सुधार की खातिर


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
 चुनाव सुधारों की आवाज़ें उठ कर खड़ी होने वाली हैं। सोचा अपन भी योगदानदे लें, क्या जाता है। एक सुझाव घूम-घूमकर आ रहा है कि चुनाव का खर्च सरकार अपने कंधों पर उठाए। सही है, देश सेवा करने का लायसेंस सिर्फ धन कुबेरों को मिले यह तो लोकतंत्र की तौहीन है। लोकतंत्र को बचाने के लिए सरकार को संसाधन विहीनों की रोकड़े  से मदद करना चाहिए। अंटी में भरपूर पैसा न हो तो कोई चुनाव जीतकर देश सेवा करने का स्वप्न कैसे पूरा करेगा, इसलिए इस माँग का सम्मान करते हुए सरकार को हर चुनाव वर्ष में देश के बाकी सारे विभागों के बजट प्रावधानों को डायवर्ट कर आम चुनाव में लगा देना चाहिए।
चूँकि चुनाव की पूरी उठापटक का अन्तिम उद्देश्य एक अदद सरकार गांठना ही होता है, इसलिए सरकार अगर इस उठापटक का सारा काला-सफेद खर्चा खुद ही झेले तो उसका क्या बिगड़ जाएगा! बल्कि, सरकार को तो खुद आगे रहकर कई स्तरों पर चुनाव सुधार करना चाहिए। जैसे, जब तक शत-प्रतिशत वोट न पड़े सही चुनाव होना नहीं कहलाता। मगर देश का वोटर चुनाव के दिन को सोने का दिन समझता है और उस दिन आराम से चादर तानकर सोता है। या फिर, बहुत सारे महत्वपूर्ण घरेलू कामों को वह पाँच वर्षों से इसी दिन के लिए पेडिंग रखता है ताकि सूर्य की पहली किरण के साथ सारे काम एक के बाद एक निबटाए जा सकें, वोट डालने न जाना पड़े।
सरकार यह स्थिति सुधार सकती है। मेरे पास बढ़िया सुझाव है। वोटरों को घर पहुँच सेवा उपलब्ध कराई जाए, फिर तो वह झक मारकर वोट डालेगा। बैलेट बाक्स, वोटिंग मशीन और पूरे तामझाम को हर गाँव-शहर में दर-दर, दुकान-दुकान घुमा-घुमाकर वोटर को वोट डालने की सुविधा दी जाए। खोपड़ी पर जाकर बैठ जाया जाए कि चल रे डाल वोट, उसे डालना पड़ेगा। इस प्रकार भी यदि शत्-प्रतिशत् वोटिंग न हो पाए तो फिर सरकार खुद अपने खर्चे पर दारू और कम्बलों के साथ नगद राशि का वितरण सुनिश्चित करे, और वोट ले। इसके बाद भी यदि वोटिंग के लक्ष्य में कोई कमी रह जाए तो फिर फर्ज़ी वोटिंग के लिए पूरा लॉजिस्टिक सपोर्ट और नैतिक समर्थन, प्रोत्साहन इत्यादि उपलब्ध कराकर इस कमी को पूरा करवाए। सरकारी आदमियों की देखरेख में बूथ कैप्चरिंग, वोट लुटाई और छपाई के माध्यम से शांतिपूर्वक चुनाव सम्पन्न करवाए जाएँ।
अब बची काउंटिंग। काउंटिंग के समय ऐसे दक्ष गणकों की सेवा ली जाए जो दो को दस गिनने में महारथ रखते हों। यह सब काम सरकारी स्तर पर सम्पन्न होने में अड़चन हो तो इसे प्रायवेट सेक्टर को दे दिया जाए। जैसे मोबाइल वाले नाना प्रकार से लोगों की कॉल्स बढ़ाकर दुगना पैसा वसूलते हैं, उसी तरह वे काउटिंग में अपनी महारथ दिखाकर शत-प्रतिशत वोट गिन देंगे। अल्पतम मत में चुने लोगों की अल्पमत सरकार का धब्बा धुल जाएगा, और यह एक महत्वपूर्ण चुनाव सुधार होगा।
इस तरह जगह-जगह से रचनात्मक सुझाव आमंत्रित कर इससे पहले कि लोग अनशन कर मरने-मारने पर उतर आएँ, चुनाव सुधार कार्यक्रम सम्पन्न कर लिया जाए।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
 सरकारी क्षेत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक पूर्व सैनिक ने सेनापति बनकर बड़ी शिद्दत से मोर्चा सम्हाला, अब उन दूसरे क्षेत्रों पर नज़र अटकना लाज़िमी है, जहाँ सेनापति की खाल तो कई लोग ओढ़े घूम रहे हैं परन्तु करम उनके मामूली रंगरूटों के स्तर के भी नहीं हैं। फौजें भी गली-गली में कई हैं, मगर जब सेनापति ही लडै़याहो तो फौज क्या खाकर कुछ कर लेगी। ज़ाहिर है देश की ये तमाम फौजें भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ करने की चिंता से पूरी तौर पर बरी हैं।
आचरण की भ्रष्टता का मुद्दा शुद्ध रूप से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का मुद्दा है, मगर संस्कृति के अलमबरदारइस मुद्दे पर घोड़े बेचकर सो रहे हैं, चाहे फिर वे  पुरातन भारतीय संस्कृति का अलमथामे हुए हों या प्रगतिशील-जनवादी संस्कृति का। सारे अलमइस्तरी किये धरे अलमारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं या आधे झुके हुए शोक मग्न दिखाई दे रहे हैं।
सब जानते हैं कि इंसान भ्रष्ट होने से पहले सांस्कृतिक पतनया पतित संस्कृतिका शिकार होता है। ऐसा नहीं है कि जन्म लिया और चल दिया भ्रष्ट होने। हरे-हरे नोट दिखाए जाए तो ऐसे ही कोई लपक नहीं लेता, एक बार ज़रूर अपनी रीढ़ को टटोलता है। अगर खुदा न खास्ता रीढ़ मजबूत मिली तो उसे खोलकर पतनके लिए भेजता है, फिर नोटों की तरफ हाथ बढ़ाने का साहस करता है। एक बार नोटों की गंध का नशा हो जाए तो फिर धीरे-धीरे अपने आचरण का पूरा किरियाकरम कर डालता है।
कुछ लोगों के मत में साहित्य का काम देश भर में रद्दी का उत्पादन करते रहना होता है, इससे इंच भर सांस्कृतिक मूल्य भले न स्थापित हों, भरपूर रद्दी अवश्य निकलनी चाहिए। जब व्यक्तिवाद की निकृष्टता, आचरण की भ्रष्टता और पूँजीवादी संस्कृति का जबरदस्त बोलबाला हो, तब साहित्य के सेनापति और रंगरूट व्यवस्थाकी बदबूदार विष्ठाको भाषा की चाशनी चढ़ा-चढ़ा कर ईनाम-ओ-इकराम के लिए अपनी झोली फैलाए बैठे रहे, यह इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी नहीं तो क्या है।
जब तक साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र की फौजें अपनी लड़ैयागिरी से बाज नहीं आतीं, भ्रष्टाचार की यह लड़ाई भले ही शताब्दियों तक खिचे, यह सूरत नहीं बदलने वाली।    

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

हिन्दी पखौड़े की एक महत्वपूर्ण बैठक

//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//
भारतमाता हाउसिंग सोसायटी के अध्यक्ष ने अपना उद्बोधन प्रारंभ कर देर से चल रही चकर-चकर को विराम दिया-‘‘ब्राडर, हिन्डी का वास्ते किछु करने का नक्की किया तो भिड़ू लोग बोला हिन्डी पखौड़ा आरेला ए, उसी को ढूमढाम से बना डालने का, येइच वास्ते ये मीटिंग अरेंज कियेला ए। वैसा भी हिन्डी हमारा नेशनल लैंगुएज होने का वास्ते कुछ चैरिटी करने को मँगता, कुछ अइसा फंक्सन करने को मँगता कि अख्खा पाब्लिक को लगे कि अपून हिन्डी का वास्ते किछु किया। अभी तुम लोग बोलो क्या करने का।’’
अध्यक्ष का भाषण खत्म होते ना होते किराना व्यापारी भग्गूमल लाभचन्दानी बोल पडे़ - ‘‘वड़ी तुम हड़वखत फालतू का फकड़-फकड़ कड़के धंधे का टेम खोटी कड़ता। पखवाड़ा का पूड़ा काड़ीकड़म तैयाड़ कड़के हमको बोलो कित्ता चन्दा मँगता, हम लोग देगा, फिर कड़ो काड़ीकड़म।’’
भग्गूमल की बात चट्टो बाबू को एकदम नागवार गुजरी तो वे तीर की तरह सनसनाते हुए बोल पड़े- ‘‘अइसा कइसा चोलेगा ? भोग्गू तुम हार वोखत धंधा का बात कोरके सोसायटी का जिम्मेवारी से भोग जाता है। ये हिन्दी पोखवाड़ा नेशनल लैंगुएज का ममला है, तुम अइसा भोगने नहीं सकता।’’
एक तरफ केरल के कुट्टी बाबू बोल पडे़- ‘‘हमको समज नई आता पेखवाड़ा बनाने का बनाओ, एवरी टाइम चेन्दा का बात कायकू करता!’’
-‘‘ए कुंडू तू चुप कर, पिरोग्राम का खर्चा कि्या तेरा अब्बा झेलेगा। चलो खाँ फटाफट तै कड्डालो क्या कर रिये हो, नई तो अपन ये चले, हिन्दी-विन्दी गई तेल लेने।’’ बन्ने खाँ भोपाली थोडे़ तैश में बोल पडे़ थे जो कि एक पंडित जी को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हुआ। वे भी कड़क कर बोले- ‘‘खामोश, हिन्दी का ऐसा अपमान सहन नहीं किया जाएगा, यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न है, हर हर........!’’ उनके महादेवबोलने के पहले ही बन्ने खाँ बोल पड़े -अरे खाँ भाई मिया मे तो के रिया था हिन्दी तो हमारी मादरी ज़बान हे, जो भी करना हो करो, अपन सबमें राज़ी हैं, बस ज़रा जल्दी कल्लो।’’
अध्यक्ष महोदय ने समझाया- ‘‘लड़ने का नई, अपना-अपना राय बोलो, पखौडे़ में क्या-क्या पोरोग्राम रखने का है, फिर पिछु चान्डा डिसाइड करेगा।’’
केरल वाला फिर बोल पड़ा-देखो इन्दी पैप्पर लो, उसको पड़ो, छुट्टकुल्ला, स्ट्टोरी, प्पोयम कुछ भी पड़ो, सब अपना-अपना इन्दी सुधारों, अम एइसाइच अमारा इन्दी सुधारा। सब लोग अइसा करेगा तो नेशनल लैंग्वेज का बला हो जाए। ’’
एक मराठी मानूस तुरंत बोला-‘‘एक मलाबारी, भंकस करने का नई। इस्कूल में हिन्दी पढ़-पढ़कर अख्खा मगज पिक गयेला ए, अभी बस इन्टरटेनमेंट मँगता है। शिनेमा वाली बाई को बुलाकर नचबलिए करवाने का, झक्कास मज्जा मँगता है।’’
सरदारजी ने भी अपनी सलाह दी- ‘‘ओ बाश्शाओ, गिल्ली-डंडा का मैच रख लो जी। कलोनी का सब बच्चा-जनाना लोग को शामल करके चेयररेस, खो-खो, रस्सीकूद का परोग्राम रख लेंदे है। कबड्डी मैच भी रख सकदे है नौजवाणों के वास्ते।’’ इस राय पर कई दूसरे लोगों ने भी हाँ में हाँ मिलाई पर वह ढंग से मिल नहीं पाई।
एक गुजराती भाई बात काटता हुआ चिल्लाया- ‘‘होस में बात करो ने सरदारजी! हिन्दी पखवाड़ा और कुदा-कुदी का क्या मेल भला! ऐसाइच करना था तो हमकू किस वास्ते बुलाया इधर।’’
भग्गूमल फिर बोले- ‘‘याड़ देवी जागड़न कड़वा लो, सबसे बेहतडीन ड़हेगा।’’
फिर तो देखते ही देखते हिन्दी पखवाड़े का सत्यानाश करने की ऐसी ढेरों तरकीबें चारों ओर से सुनाई देने लगी। कोई बोला पतंगबाजी करवालो। कोई रंगोली प्रतियोगिता की सलाह दे रहा था। किसी एक की मंशा थी कि कहानी, कविता, गीत, निबन्ध, वाद-विवाद प्रतियोगिता रखी जाए, परंतु खेलकूद प्रेमियों की ओर से उन्हें निरन्तर विरोध सहना पड़ रहा था। इस मामले में खेल प्रेमी उन्हें पीटने की तैयारी में भी दीख रहे थे जो बार-बार नीरस किस्म के प्रस्ताव देकर माहौल खराब कर रहे थे।
अचानक एक नौजवान उत्साह से उछलता हुआ बोला-‘‘ऐसा करेंे, लाफ्टर चेलेंज का आयोजन किया जाए, भारतमाता सोसायटी के सब लोग उसमें अपने-अपने आयटम पेश करें। आयटम हिन्दी में होंगे तो हिन्दी डे मन ही जाएगा! एक पंथ दो काज!’’ यह आइडिया फौरन से पेश्तर सबको पसंद आ गया। औपचारिक रूप से सबकी हामी लेने के बाद सभा बरखास्त की ही जा रही थी कि कोई बोल पड़ा-अरे भई यह तो एक ही दिन का प्रोग्राम हुआ, पखवाडे़ के बाकी चौदह दिन क्या भुट्टे भूनोगे ?’’
सबके सिर पर गाज सी गिर पड़ी। कुछ तो चकरघिन्नी हो गए कि हिन्दी पखवाड़ा और भुट्टों का क्या ताल्लुक हो सकता है, तो कई को यह जानकर जोरदार सदमा लगा कि पखवाड़े में पन्द्रह दिन होते हैं, और बाकी चौदह दिन भी टाइम खोटी करना पड़ेगा। चकल्लस फिर शुरू हो गई-‘‘ऐसा कैसा चलेगा!’’, ‘‘हमको दूसरा कोई काम नही है क्या!’’, ‘‘पखवाड़ा ही मनाते रहेंगे क्या!’’, ‘‘काम पे भी जाना पड़ता है, घर का काम भी देखना पड़ता है!’’, अन्तिम निर्णायक बिन्दु जो उभरकर आया वह था, ‘‘भाड़ में गई तुम्हारी हिन्दी, हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा!’’
जनता का मूड़ भाँपकर आखिरकार बंगाली बाबू खड़े हुए और उन्होंने बिना कोई भूमिका बाँधे मीटिंग का समापन भाषण प्रारंभ कर दिया-‘‘भाइयों, आज का मीटिंग जिस आजेन्डा के वास्ते बुलाया गिया था, सोबने बिचार कोर के देखा कि ये हिन्दी पोखवाड़ा, हिन्दी डे भारतमाता सोसायटी का बोस का बात नहीं हाय, इसके पीछे फालतू टाइम खोटी कोरके कुछ फैदा नहीं। इसलिए सब लोग को मीटिंग में आना  का वास्ते होम धोन्यबाद देता है। अब होम ओध्यक्ष का परमीशन से आजेंडा चेंज करता हाय। दुर्गा पूजा सीर पर हाय, सोब लोग खाली एग्यारासो-एग्यारासो रूपिया चान्दा देगा, बाकी सोब काम होम, होमारा घोरवाली और होमारा खोका-खोकी कोर लेगा। किसी को कोई तकलीफ उठाने का जरूरत नहीं, सोब लोग आपना आपना घोर में आराम से रेहने का, खाली आरती का टाइम में ताली बजाने का वास्ते आने का।’’
सभी लोगों को बंगाली बाबू का प्रस्ताव बेहद पसंद आया उन्होंने जबरदस्त उत्साहवर्धन करते हुए जोरदार तालियाँ बजाईं और सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर दिया। इस तरह हिन्दी पखवाडे़ की एक महत्वपूर्ण बैठक समाप्त हो गई।
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हास्‍य-व्‍यंग्‍य पञिका अट्टहास के सितम्‍बर 2011 के अंक में प्रकाशित

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

ये मायावी आँकड़े


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
बहुत दिनों से थोक में आँकड़े आ रहे हैं। फलाना इतने अरब खा गया, ढिकाना इतने करोड़ दबा गया, अमके ने इतने लाख की रिश्वत ले ली, ढिमके के डबल बैड में इतने करोड़ नगद और उतने करोड़ के जे़वर निकले। हाल ही में प्रधानमंत्री समेत तमाम केन्द्रीय मंत्रियों ने गाजे-बाजे के साथ अपनी सम्पत्ति की घोषणा की, छोटे-बड़े कई आँकड़े अखबारों में मुख्य पृष्ठ पर प्रकट हुए। पढ़े-लिखे लोग पढ़-पढ़कर चमत्कृत हो रहे हैं और अपनी तुच्छ सम्पत्ति से उन मायावी आँकड़ों की तुलना कर, सिर पटक-पटक कर अफसोस कर रहे हैं- हाय, हम क्यों न समय रहते राजनीति में घुस पड़े! कुछेक लाख हम भी छाप लेते, कुछ गाड़ियाँ-बंगले हमें भी नसीब हो जाते।
जिन्होंने ठीक से स्कूल-कॉलेज का मुँह देखा है, उन्होंने तो आँकड़ों को सही-सही पढ़ लिया और उनके आयतन को आत्मसात भी कर लिया, मगर एक सौ इक्कीस करोड़ में से, देश की अधिकांश पढ़ने-लिखने से पूरी तौर पर बरी आम जनता इन आँकड़ों की माया से एकदम अप्रभावित है। उसका सौभाग्य है कि ये लम्बे-लम्बे, चौड़े-चौड़े आँकड़े पढ़कर उन्हें अपनी छाती नहीं कूटना पड़ रही है। कारण उन्‍हें अखबार पढ़ना ही नहीं आता। कहीं से अगर इन आँकड़ों की खबर लग भी गई तो उनके लिये समझना नामुमकिन है कि इतना धन वास्तव में कितना धन होता है। वे अपनी बीस रुपये औसत रोज़न्दारी से खुश है, उनके दिमाग को कोई फालतू टेन्शन नहीं है।
देश के कर्णधारों ने अधिकांश जनता को इसी दिन के लिये तो अनपढ़-गँवार बनाए रखा है, ताकि जब नेताओं की पोलों के समाचार अखबारों में छपें, टीवी पर सनसनी फैलाएँ तो बेचारी को उन्हें पढ़ने-समझने की ज़हमत न उठाना पडे़ और न ही गुस्से और आक्रोश की अगांधीवादी भावना से दो-चार होना पड़े। लोग यदि अपनी रोटी-रोज़ी की जुगाड़ की चिन्ता छोड़कर इस आँकड़ेबाज़ी की चिन्ता करने लगें तो देश का विकास कितना प्रभावित होगा!
इसमें विरोधी ताकतों की मुश्किलें बढ़ाने की सियासी चाल भी है। जाओ बेटा घर-घर और समझाओ गँवार जनता को कि हमने कितना माल दबाया है। जनता तुम्हारे दुष्प्रचार को समझे इस लायक उसे छोड़ा ही नहीं गया है, कर लो बेटा क्या करते हो। 
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शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

थोड़ी सी पी लेने दो

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          हलक में शराब के दो घूँट उतरने के बाद इंसान की ज़ुबान बे-लगाम हो जाती है यह तो पता था, मगर असह्य बदबू का वास होने के बावजूद भी मुँह में उसके सरस्वती आ बिराजती होंगी नहीं पता था। फिल्म अभिनेता ओम पुरी ने अन्ना के मंच से शराब के नशे में धुत्त होकर नेताओं की जो लू उतारी, होशो-हवास में तो कभी न उतारी होंगी।

          यूँ देखा जाए तो इंसान होशो-हवास में सार्वजनिक मंचों से कितनी अनर्गल बकवास करता रहता है, एक काम की बात कोई कह जाए तो मजाल है। मगर उसे थोड़ी पिला दो, फिर मज़ा देखों, दूसरों की तो दूसरों की अपनी भी पोले खोलना शुरु कर देता है। शराबबंदी के कट्टर हिमायतियों को इंसान के इस नैसर्गिक गुण की ओर ध्यान देना चाहिए, वे अगर यूँ ही शराबबंदी के पीछे पड़े रहे, और खुदा न खास्ता कभी वह हो गई तो देश में कोई सत्य बोलने वाला बचेगा ही नहीं। मेरी विनम्र राय है कि भारत में पीना-पिलाना एकदम अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए, कम से कम इंसान अपने घटिया स्वार्थों को ताक पर रखकर चार सच्ची बातें तो बोलेगा। इससे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि लोग उसकी बातें गौर से कान खोलकर सुनेंगे, जैसे ओमपुरी की बातें सबने सुनी, यहाँ तक कि जो उन्होंने नहीं कहा वह भी सुन लिया। वे नशे में न होते तो लोग अपने इस कान से उस कान तक की सुरंग एकदम साफ-सुथरी रखते ताकि कही गईं बातें एक तरफ से प्रवेश कर दूसरी तरफ से निर्विघ्न रूप से निकल जाएँ।
          देश की तमाम आम जनता नेताओं के सारे सत्य जानती है, और अपने-अपने निजी मंचों पर, मुँह में निजी भोपू लगाकर, निजी कानों में उन सारे सत्यों को ढोलती भी रहती है। मगर फर्क क्या पड़ता है ? वजह यही है, बिन टुन्न हुए कितना भी बड़ा सत्य बोलों किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर, यदि लोग थोड़ी सी चढ़ा लें और फिर सत्यों का शंखनाद करना चालू करें तो फिर देखिए कितनी जल्दी परिवर्तन की हवा बहना चालू होती है। कारण वही है थोड़ी सी पी लेने से मुँह में सरस्वती का वास हो जाता है।