रविवार, 10 अक्तूबर 2010

नकारा है वह प्रजातंत्र जो पगार तक नहीं बढ़ाने दे


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
            जलकुकड़े देखना हो तो कोई भारत आए। अब बताइये, दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र की सबसे ताकतवर संस्था के सदस्यगण, महँगाई के बोझ से दबकर टेढ़े होने से बचने के लिए अगर अपनी पगार खुद बढ़ा लेते हैं तो इसमें जलने की क्या बात है। यह हमारे देश देश की विशेषता है, किसी को कुछ ज़्यादा ही हासिल हो जाए, भले ही वह तनख्वाह हो, बख्शीस हो, लूट में हिस्सा हो, भीख हो........तो दूसरे लोग धूँ-धूँ कर जलने लगते हैं।
            देश के नेतृत्व की तनख्वाह बढ़ी देख जो ज्वलनशील लोग जल रहे हैं उनमें ज़्यादातर वे लोग हैं जो खुद भी तनखैये हैं और जिन्हें अपनी तनख्वाह खुद बढ़ाने का कोई अधिकार नहीं है। इन तनखैयों की भी बढ़ जाती, भले ही उतनी ना बढ़ती जितनी जनसेवकों की बढ़ी है, तो जलने की यह क्रिया उतनी लपटदार नहीं होती जितनी होती देखी जा रही है।
          अरे जलकुकड़ों, ज़रा शर्म करो ! यह भी कोई बात होती है, आखिर वे देश के कर्णधार हैं, दाल उनके लिए भी सौ रुपए किलो हुई है, सब्ज़ियाँ उनकी सब्ज़ी मंडी में भी सत्तर-अस्सी चल रही है, पेट्रोल-डीज़ल उनकी भी बारह बजा रहा है। एक तुम्हीं नहीं हो जिसे महँगाई डायन खाए जा रही है। यह बात अलग है कि वे पूरे के पूरे घी की कड़ाही में तर हैं।
            बकवादी बकवास कर रहे हैं कि जब सन्तानवे फीसदी आम जनता औसत बीस रुपट्टी रोज़ पर गुज़र-बसर कर रही है तो ये जनता के चुने हुए प्रतिनिधि कौन से लाट साहब हैं जो उनकी तनख्वाह हज़ारों-लाखों में हो.......! अरे, जनता को बीस ही रुपए रोज़ मिल रहे हैं तो इसमें बेचारे जनसेवकों का क्या दोष! बीस रुपए क्या अगर बीस पैसे भी मिलें तो इसमें उनका क्या कसूर ! अंबानी भाइयों को करोड़ों रुपया महीना मिलते हैं तो क्या उसमें भी उन बेचारों का दोष है! मूर्खों, क्या वे लोगों की तनख्वाहें, मजदूरी तय करने के लिए संसद में बैठे हैं! और कोई दूसरा काम नहीं है उनके पास। कितने महत्वपूर्ण काम उनके कंधों पर हैं, कार्पोरेट घरानों का खयाल रखना पड़ता है, उनके हितों के लिए ईंट से ईंट बजानी पड़ती है, खुद कभी स्कूल में सवालों के जवाब न लिखें हों मगर संसद में भाँति-भाँति के सवाल बनाकर उठाना पड़ते हैं, सवालों का हिसाब किताबरखना पड़ता है। देश की समस्याओं के प्रति दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए कुर्सियाँ तोड़नी पड़ती हैं, माइक फेंकने पड़ते हैं, एक दूसरे का सिर तोड़ना पड़ता है, क्या कुछ नहीं करना पड़ता। यह सब क्या मुफ्त में हो जाएगा ? भुट्टे भूनने के लिए तो कोई जन प्रतिनिधि बनता नहीं है ? इन्कम तो कुछ होना ही मंगता है ना! 
            यह तो बहुत ही नाइन्साफी है, देश सेवा के बदले चार पैसे अगर वे गरीब किसी से ले लें तो आपको दिक्कत, संसद में सवाल उठाने के अगरचे वे पैसे चार्ज कर लें तो आपको दिक्कत, स्विस बैंक में खाता रखें तो आपको दिक्कत, तो अब क्या अपनी तनख्वाह भी छोड़ दें ? भूखों मर जाए ? क्या चाहते क्या हो आप लोग, क्या अब लोग देश सेवा भी करना बंद कर दें ? क्या देश की आम जनता का नेतृत्व करना भी बंद कर दें ? साधु बनकर पहाड़ों में चलें जाएँ ? जनता को यू ही सड़क पर छोड़ दें ?
            देखिए यह पैसा ये पगार हाथों का मैल है, किसी के हाथ कम मैले है किसी के ज़्यादा! इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है! फर्क सिर्फ इतना ही तो है कि हम खुद अपना हाथ मैला नहीं कर पा रहे हैं और वे दनादन किए जा रहे हैं! अगर वे अपनी मर्ज़ी से इतना भी ना कर सकें तो फिर लानत है दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र पर, नकारा है वह प्रजातंत्र जो पगार तक नहीं बढ़ाने दे ! 
दिनांक 10.10.10 को नईदुनिया रविवारीय मैगज़िन में प्रकाशित।

4 टिप्‍पणियां:

  1. भाई प्रमोद, जलना क्या, कितना जले, क्यों जले, उनसे तो सीख ले रहे लोग. अपनी-अपनी सोचो भाई, लूट मची है, हाथ धो लो, पता नहीं फिर मनुज तन मिले या नहीं, ये तो भूखे-नंगों का देश है, रहेगा, देश की चिंता छोड़ो, अपनी चिंता करो. देखो बड़े लोग कर रहे हैं, तुम भी करो, जेब भरो, कोई परेशान है, दुखी है, उसे और् परेशान, और दुखी करो, अपना सुख सुनिश्चित करो. सभी लगेगी हैं, गंगा बह रही है, हाथ धोने में क्या हर्ज.

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  2. इतना भी न समझ पाया...मैं मूरख कहाया.. :)

    आप ने ज्ञान चक्षु खोल दिये.

    बहुत सटीक!

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