//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
नेताजी छुटभैयों को समझा रहे है- ऐसी कोई खराब स्थिति नहीं है, बिल्कुल निराश होने की जरूरत नहीं है, एक मछली तालाब को गंदा कर रही थी, हमने उसे बाहर निकाल फेंका। अब सब ठीक हो जाएगा। सभी लोकतांत्रिक प्रणालियाँ बिल्कुल ठीक तरह से काम कर रहीं हैं, आप लोगों को लोकतंत्र पर भरोसा रखना चाहिये।
एक छुटभैया गर्मी खाता हुआ बोला-क्या खाक भरोसा रखना चाहिये। थोड़े दिन पहले भी आपने कहा था कि एक मछली तालाब को गंदा कर रही है, हमने उसे निकाल फेंका है, फिर यह दूसरी मछली फिर कहाँ से आ गई? यहाँ तो हर थोड़े-थोड़े दिनों में एक-एक नई मछली बाहर निकल रही है। लगता है पूरे तालाब में ही गंदगी मचाने वाली मछलियाँ भरी पड़ी हैं। आखिर हम कब तक बर्दाश्त करें!
नेताजी बोले-चिन्ता मत करों हमने भी यहाँ-वहाँ बहुत से मछुआरे बिठा रखें है जो लगातार देख रहें हैं कि कौन-कौन सी मछली तालाब गंदा कर रही है।
छुटभैया बोला- इससे क्या फर्क पड़ने वाला है, हमें तो नुकसान हो रहा है! यह अच्छी बात नहीं है। आप को जल्दी कुछ करना चाहिये, वर्ना ठीक नहीं होगा।
नेताजी फिर समझाते हुए बोले- नाराज़ होने की ज़रूरत बिल्कुल नहीं है। इतने बुरे हालात नहीं है।
छुटभैया बोला- कैसे बुरे हालात नही हैं, कोई सौ-पचास रुपये का हेर-फेर कर रहा हो तो चुप भी बैठें, मगर यह क्या है! करोड़ों रुपए लोग खा ले रहे हैं, और डकार भी नहीं ले रहे। और आप लोग चुप बैठे हुए हो। कैसे नाराज़ ना हों!
नेता जी बोले- कोई चुप बैठे हुए नहीं हैं, हमारे पास बराबर पहुँच रहा है, मेरा मतलब है हर समाचार हमारे पास पहुँच रहा है।
छुटभैया दाँत भींचता हुआ बोला-साहब, भ्रष्टाचार की इन्तहा हो गई है अब। जनता को तो हम सम्हाल लेंगे लेकिन खुद हमसे अब रहा नहीं जाता, हाथ कसमसा रहे हैं। अब कोई अगर हमारे हाथ से पिट गया तो फिर मत कहना।
नेताजी को गुस्सा आ गया, वे चिल्लाए-क्या समस्या क्या है रे तेरी, बार-बार धमका रहा है।
छुटभैया बोला- समस्या क्या है! हम क्या बेवकूफ हैं जो मेहनत करके आप लोगों के लिए वोट लेकर आते हैं। आप लोग करोड़ों रुपए अकेले खा जाते हो तो हमें तो ठगा सा महसूस होता है ना! कसम से आत्मा तिलमिलाकर रह जाती है। लोकतंत्र है तो उसका मान करना चाहिये, ऐसा थोड़े ही चलेगा कि खुद ही पूरा खा जाओ। यह तो भ्रष्टाचार में भी भ्रष्टाचार वाला मामला हो गया। जबकि हमारे देश में भ्रष्टाचार में शिष्टाचार की परम्पराएँ हैं।
नेताजी छुटभैये का मुँह देखने लगे। बाकि सारे छुटभैये भी मौजूदा परिस्थितियों पर आक्रोश जाहिर करते हुए हो-हल्ला मचाने लगे।
प्रमोद जी
जवाब देंहटाएंआशीर्वाद
आपका लेख व्यंग से भरपूर व्यंग्यात्मक है -----
अब तो प्याज लहसुन भी घोटाला करने लगे
देश में भ्रष्टाचार में शिष्टाचार की परम्पराएँ
जवाब देंहटाएंसही मारा जी
करारा
बहुत ही सटीक व्यंग्य किया है सर!
जवाब देंहटाएंआज के हालत ऐसे ही हैं.
सादर
nice
जवाब देंहटाएंछुटभैयों की डिमांड जायज है
जवाब देंहटाएंकिशोरों और युवाओं के लिए उपयोगी ब्लॉगों की जानकारी जल्दी भेजिएगा
बात तो पते की ही है।
जवाब देंहटाएंबात तो छुटभैया जी ने सटीक कही है आखिर शिष्टाचार भी तो कोई चीज़ होती है.. कम से कम आचरण की भ्रष्टता को भी शिष्ट होना लाज़मी है जी..!!
जवाब देंहटाएंवर्ष २०११ आपको एवं आपके सभी परिजनों को मंगलमय,सुखद और उन्नत्तिकारक हो.
जवाब देंहटाएंयह व्यंग्य नहीं यथार्थ चित्रण है.सच में आजकल भ्रष्टाचारी -भ्रष्टाचार को शिष्टाचार ही कहते हैं.
बेहतरीन व्यंग
जवाब देंहटाएंआपके व्यंग्यों की धार बहुत पैनी रहती है!
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ!
:-) बहुत सटीक व्यंग्य है... हरिभूमि पर ही देख लिया था.... ज़बरदस्त!!!
जवाब देंहटाएंकल 29/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !