//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में |
भ्रष्टाचार के खिलाफ उसके विरोधियों का गुस्सा फूटकर भलभल-भलभल निकल पड़ा है। इसका बहाव कुछ ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता किस तरफ है, और इससे जहाँ-तहाँ संचित भ्रष्टाचार का कूड़ा-करकट बहेगा भी या नही, पता नहीं, मगर गुस्से को यूँ बहता देखकर लोग काफी खुश हैं, तालियाँ पीट रहे हैं। नदी-नालों की बहुतायत देख मुझे डर है कि यह गुस्सा, भ्रष्टाचार के कूड़े-करकट के ढेरों को जस का तस छोड़कर, दूर बहकर समुद्र में न निकल न जाए।
जंजीर से बंधे कुत्तों के प्राण चींथकर भौंकने के बावजूद भी जिस तरह हाथी अपनी मस्ती में आगे बढ़ता चला जाता है, उसी तरह भ्रष्टाचार भी बेफिक्र सा झूमता-झामता चलता चला जा रहा है, क्योंकि उसे अपनी अम्मा का पूर्ण संरक्षण प्राप्त हैं। अम्मा सबकी आँखों से बची हुई आराम से घूमती फिर रही है, उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। यह मानी हुई बात है कि जब बच्चा पैदा होकर यहाँ-वहाँ शैतानी करता फिर रहा है, तो उसकी अम्मा तो ज़रूर अस्तित्व में होगी और बच्चे से ज़्यादा खतरनाक भी होगी। जब तक उसकी अम्मा पकड़ में नहीं आएगी और उसे छठी का दूध याद नहीं दिलाया जाएगा वह चोरी-छुपे अपने बिगडैल बच्चे को दूध पिलाती रहेगी और बच्चा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहेगा।
भ्रष्टाचार के सताए हुए कुछ बंदे और बंदियाँ गाँधीवाद की बैलगाड़ी पर सवार होकर भ्रष्टाचार को खदेड़ने निकले हैं जबकि भ्रष्टाचार चार सौ किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार वाली बुलेट ट्रेन पर सवार फर्राटे से आगे बढ़ता जा रहा है। उसे पता है कि बैलगाड़ी पर सवार लोग आजीवन उस तक पहुँचने वाले नहीं हैं, वह बेखौफ सर्र-सर्र करता हुआ इधर से उधर, उधर से इधर फर्राटे भर रहा है। लेकिन उन बेचारों की इसमें कोई गलती नहीं। दरअसल, गाँधीजी भ्रष्टाचार की अम्मा के रूप-रंग, गुण-लक्षणों के बारे में किसी को कुछ बता कर ही नहीं गए, तो उसे कैसे कोई पहचानेगा ? यही कारण है कि लोग, भ्रष्टाचार की अम्मा को न तो आज़ादी के समय पहचान पाए और न ही आज़ादी के चौसठ साल बाद पहचान रहे हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की अम्मा हमेशा ‘खैर’ मनाती रहती है, लेकिन आखिर कब तक मनाएगी !
थोड़े दिनों की शान्ति है, उसके बाद ही पता चलेगा कि किसमें कितना है दम।
जवाब देंहटाएंबहुत सही ब्यंग्य किया है सर!
जवाब देंहटाएंसादर
अम्मा को पहचानते तो अच्छे से हैं पर अम्मा तो अम्मा ठहरी...सो, बूते से बाहर है ये
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