शुक्रवार, 24 जून 2011

सुविधाएँ-असुविधाएँ सबको समान


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//            
          कुछ लोग कहते हैं कि हमारे यहाँ दो देश अस्तित्व में हैं, एक घिसट-घिसट कर जीने वाले गरीबों का और दूसरा लाखों-करोड़ों की अंधाधुध कमाई वाले रईसों का। कुछ लोगों का कहना है कि गरीबों के लिए यहाँ समुचित व्यवस्थाएँ हैं ही नहीं, उन्हें हर समय रोते-झीकते रहना पड़ता है और रईसों के लिए सुख-सुविधाओं का अंबार है जिनका उपभोग करते हुए वे चैन की बंसी बजाते हैं।
          मैं पूछना चाहता हूँ कि जब करोड़पतियों पर एफ.आई.आर. दर्ज होती है तो पुलिस उन्हें घसीटती, इज्ज़त का पंचनामा बनाती भले न ले जाए, मगर क्या उनके लिए अलग थाना-कचहरी होती है ? वे भी उसी तरह धक्के खाने को मजबूर होते हैं जैसे हालात का मारा एक मामूली चोर या गिरहकट धक्के खाता है। राजधानी दिल्ली की तिहाड़ जेल क्या मात्र रईसों के लिए है ? क्या वहाँ सिर्फ राजा, कलमाड़ी, कनिमोझी और दूसरे करोड़पति घपलेबाज़ों भर को रखा जाता है, एक मामूली चोट्टा वहाँ सज़ा नहीं काटता ? क्या कलमाड़ी और कनीमाझी को वहाँ चुभने वाले कम्बल पर नहीं सोना पड़ता ? नहाने-धोने या खाने के लिए लाइन में नहीं लगना पड़ता ? क्या उन्हें वहाँ स्पेशल चाय मिलती है या पनियल दाल में दाल के कुछ दाने ज़्यादा और रोटी में कंकड़ कम मिलते हैं। जी नहीं, चाहे अमीर हो या गरीब सुविधाएँ-असुविधाएँ सबको समान रूप से मिलती है, यही हमारे देश के प्रजातंत्र की खूबी है।
          सरकारी स्कूल, जहाँ क्लासरूम से लेकर मास्टर तक और चॉक से लेकर ब्लेकबोर्ड तक सब कुछ नदारत रहता है, क्या बड़े लोगों के लिए नहीं होते। हाल ही में एक कलेक्टर साहब ने अपनी बिटिया को सरकारी स्कूल में डालकर क्या यह साबित नहीं किया कि चाहे तो कोई भी बड़ा आदमी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ा सकता है, और जब कोई भी पढ़ा सकता है तो फिर मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ा सकते हैं। ऐसा थोड़े ही है कि जर्जर सरकारी स्कूल की फटी टाट-पट्टियाँ और टपकती छतें मध्यान्ह भोजन के भरोसे रहने वाले गरीब-गुरबों भर के लिए हैं और किसी के लिए नहीं। देश में जो चाहे इसका आनंद ले सकता है।

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