सोमवार, 8 जून 2020

स्‍थानांतरण मस्तिष्‍क का

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

          मानव शरीर के सबसे कीमती ऊतकों के समूह ‘मस्तिष्‍क’ को सुरक्षित एवं चलायमान बनाए रखने के लिए प्रकृति ने मनुष्‍य के शरीर में मात्र एक जगह बनाई है, ‘खोपड़ी’, परन्‍तु कुछ महान लोगों ने अथक परिश्रम, दीर्घकालीन प्रयासों एवं अपने आस्‍था व विश्‍वास के बल पर प्रकृति की इस स्‍थायी व्‍यवस्‍था के विरुद्ध जाकर मस्तिष्‍क को रखने के लिए दूसरा ही ठीकाना विकसित कर लिया है, वह है ‘घुटना’। खोपड़ी के साइज़ के मस्तिष्‍क को घुटने के साइज़ में लाने के लिए उन्‍होंने क्‍या किया होगा पता नहीं। मगर जब किसी ज्‍़यादा आयतन वाली वस्‍तु को उसके आयतन से बनिस्‍पत कम जगह में ठूँस-ठूँस कर घूसेड़ा जाए तो निश्चित ही उसकी कार्य-क्षमता सदियों नीचे जाकर गिर सकती है, और तो और उसकी अकाल मृत्‍यु भी हो सकती है। 
          इन दिनों हो यही रहा है कि अक्‍़ल और सोच-विचार संबंधी सभी कार्य उसी ज़बरदस्‍ती घुटने में ठुँसे हुए मस्तिष्‍क से कराया जा रहा है जो या तो कार्य-क्षमता विहीन है या मरणासन्‍न अथवा मृत अवस्‍था को पा चुका है। 
          खोपड़ी वाला रिक्‍त स्‍थान अधिकतर खाली मकान की तरह खाली पड़ा-पड़ा धूल-धक्‍कड़ और मकड़ी के जालों का उत्‍पादन करता रहता है। अन्‍दर यहाँ-वहाँ तंत्रिका तंत्र के केबल उखड़े हुए बिजली के तारों की तरह तटके हुए, हवा में झूलते देखे जा सकते हैं। इन केबलों की कोई उपयोगिता नहीं रह गई है क्‍योंकि जिस मस्तिष्क को वे सूचनाएँ पहुँचाने का काम करते थे वह तो घुटने में शिफ्ट कर दिया गया है। दाएँ या बाएँ किस घुटने में यह भी अज्ञात है। खोपड़ी मालिक ने वे कीमती केबल शायद इसलिए लटके छोड़ दिए हैं क्‍योंकि क्‍या पता निज़ाम बदलने पर शायद फिर मस्तिष्‍क को घुटने से निकालकर खोपड़ी में स्‍थापित करना पड़ जाए। या हो सकता है बुरे वक्‍त में उन केबलों को निकाल कर कबाड़ी को बेचने का भी इरादा हो। 
          मस्तिष्‍क विहीन खाली पड़ी खोपड़ी में किसी-किसी के द्वारा कूढ़ा-करकट इकट्ठा करने की बातें सुनी जाती हैं। बाहर कचरा फेंकना मना जो है। जुर्माना हो सकता है। कूढ़े से कम्‍पोस्‍ट अच्‍छा बनता है। देशभक्‍त शोहदों के बालों की बढ़वार शायद इसीलिए आजकल ऊफान पर है क्‍योंकि कूढ़े की खाद जो प्रचूर मात्रा में उपलब्‍ध है। कुछ लोग खाली पड़ी खोपड़ी में भूसा स्‍टॉक कर के रखते हैं। जैसे आमतौर पर गाँवों में दबंग लोग अपने जानवरों के लिए स्‍कूल के कमरे में भूसा भर कर रखते हैं। हालाँकि खोपड़ी में भूसा भरा होना खासा खतरे का काम है। देश में आग लगाने वालों की कमी तो है नहीं। तभी तो आजकल लोग भड़की हुई खोपड़ी लिए दनदनाते फिरते हैं। ऐसा कोई हाई वोल्‍टेज सीन देखकर लोग आसानी से समझ जाते हैं कि अगले का दिमाग उसके घुटने में है। 
          जबसे गो और गो-उत्‍पादों की महत्‍ता बढ़ी है, लोग खाली खोपड़ी में गोबर भी भर के रखने लगे हैं। वक्‍त-ज़रूरत के हिसाब से उसे बाहर निकाल कर उपयोग में लाते रहते हैं। वैचारिक रूप से नापसंद लोगों के मुँह पर पोतने के लिए गोबर सबसे मुफीद रहता है। या फिर यूँ ही अपनी बातों-भाषणों के साथ मुँह से फुर्र-फुर्र उड़ाते रहो। नेता लोग यही करते हैं। गीला होने से गोबर में आग लगने का खतरा कम रहता है मगर यदि वह पड़ा-पड़ा सूख गया हो तो उसमें थोड़ी सी हवा के साथ आग दे दो, बस, वह आग भीतर ही भीतर सुलगती रहेगी और दशकों सदियों तक सुलगती रह सकती है। कब वहाँ से निकल कर निरीह मानव समाज को राख कर दे कह नहीं सकते। ऐसी काफी सारी राख हम अपने चेहरों पर पहले ही से पोते घूम रहे हैं। 
          मेरा मानना है कि भविष्‍य में मानव घुटने के अलावा भी मस्तिष्‍क को रखने के लिए कोई न कोई जगह अवश्‍य खोज लेगा। जैसे पिंडली या टखने में भी दिमाग को ठूँसकर रखा जा सकता है। हो सकता है घुटने में गठिया का प्रकोप हो जाने की दशा में लोग ऐसा करते भी हों। जो लोग दिन-रात खाने में लगे रहते हैं वे शायद पेट में मस्तिष्‍क रखने लगें। खाने से मेरा मतलब छप्‍पन भोग से नहीं बल्कि रिश्‍वत, सरकारी धन-संपत्ति, जनता की गाढ़ी कमाई खाने से है। उनके मस्तिष्‍क को सोच-विचार से क्‍या काम, पड़ा रहेगा पेट में। 
          बात निहायत ही अवैज्ञानिक है मगर मेरा बस चले तो मैं सबका मस्तिष्‍क उनके दिलों में स्‍थानांतरित करवा दूँ ताकि फिर वे अपने दिल से सोचने को मजबूर हो जाएँ। कहते हैं न दिल से सोचने वाले ज्‍़यादा भावुक होते हैं। शायद, दिल में रहकर आदमी का मस्तिष्‍क प्‍यार-मोहब्‍बत, भावनाओें, रिश्‍तों की खूबसूरती को समझने लगे। बेशकीमती इन्‍सानी जि़न्‍दगी की कद्र करने लगे, नफरतों की जुगाली करना भूल जाए, शायद ? ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता।
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