गुरुवार, 24 जून 2010

सूतक का चिमटना

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          क्या होता है, कैसा होता है, कहाँ रहता है, कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, यह सब तो नहीं पता परन्तु यह कम्बखत 'सूतक' बैठेठाले आए दिन हमसे आ चिमटता है। पड़ोस में कोई मुसलमान रहता हो, ख्रिस्तान रहता हो, और किसी दूसरे धर्म, सम्प्रदाय का बन्दा रहा करता हो, उससे नहीं चिमटेगा। दुनिया के किसी देश में, किसी शहर में, किसी नस्ल, किसी जाति के आदमी से यह सूतक कभी नहीं चिमटेगा, मगर हम दुनिया में कहीं भी रहें यह बाकायदा घर ढूँढ़कर हम पर चढ़  बैठेगा और हम जैसे पवित्र दूध के धूले संस्कार-पुत्रों को अपवित्र कर जाएगा। फिर किसी सहस्यमय अशुद्धि से मुक्ति के लिए गोमूत्र छिड़कने से लेकर पूजा-पाठ और अर्धनग्न होकर पवित्र नदी (भले ही वह पर्याप्त प्रदूषित हो जो कि होती ही है) में डुबकी लगाने का प्रदर्शनकारी कर्मकांड। नदी ना हो तो आसपास किसी तालाब, पोखर, कुएं, बावड़ी पर हर हर गंगे के नाद के साथ शरीर से चिमटे सूतक को ठंडे पानी से रगड़-रगड़ कर छुटाने की हौलनाक कवायद। खुले में नंगे बदन स्नान की ऐसी कोई प्राकृतिक व्यवस्था ना हो तो घर ही में नगर निगम के बाल्टी भर मटमैले पानी में चम्मच भर गंगा जल डालकर भी काम चलाया जा सकता है।
          ब्रम्हांड भर में कहीं भी ग्रहण हो और भारतीय पंडितों को पता भर चल जाए तो समझो सूतक चल पड़ा। हमारे देश में भले ही रात हो या घने बादलों की वजह से यह अनोखा खगोलीय कार्यक्रम ज़्यादा लोग देख भी न पाएँ, परन्तु सूतक बिलानागा बराबर हर एक से आ चिमटेगा और समय के अन्तर के हिसाब से देश-दुनिया भर में जरूरतमंद भारतीयों से चिपटता चला गया।
          किसी के यहाँ बच्चा हो तब भी वह फौरन घर के हर सदस्य से आ चिमटता है। बच्चा भले ही किसी मेटरनिटी होम में पैदा हुआ हो, घर में सुख की नींद सो रहे परिवार के दूसरे सदस्य इस सूतक की चपेट में आ जाते हैं। इधर अस्पताल में डॉक्टर और तमाम स्टाफ को छोड़कर यह घर में बुढ्ढा-बुढ्ढी से जा चिमटेगा और वे अस्पताल जाकर बहु की सेवा सुश्रुषा करने की बजाय घर में बंद होकर बैठ जाएँगे। बच्चे का बाप मान लो किसी दूसरे शहर में हो तो सूतक पहली ट्रेन पकड़कर वहाँ पहुँच जाएगा और उससे जा चिमटेगा, बेचारा सवा महीने अपनी निजी कलाकृति का मुखड़ा भी देख नहीं पाएगा।
          घर में कोई सिधार जाए सूतक बिना देर किये आ खड़ा होता है और इमर्जेंसी से भी खतरनाक निषेधाज्ञा लागू कर देता है। छुआछूत की धारा एक सौ चौवालिस लागू हो जाती है। परम्पराओं की तमाम धाराएँ ज़मीन तोड़-तोड़कर बाहर निकल पड़ती हैं। मृतक की आत्मा बाहर बिजली के खंभे (आजकल घरों में पेड़ कम ही होते हैं) पर बैठी देखती रहेगी कि किसने-किसने सूतक का पालन नहीं किया, किसने घर के बाहर कदम रखा, किसने किसी दूसरे के घर जाकर नाश्ता-पानी कर लिया। आत्मा को यह पसंद नहीं कि उसे भूखा रखकर लोग सूतक में खुद खाएँ-पिएँ। सूतक की निषेधाज्ञा का क्रूर तकाज़ा है कि यदि   वह विराजमान है और पड़ोस में कोई मर भी रहा हो तो उसके मुँह में दो चम्मच पानी भी मत डालो।
          यू तो हम भारतीयों पर जाति-धर्म से निरपेक्ष कोई ना कोई सूतक हमेशा चिमटा ही रहता है, मगर दिमाग को लगे अज्ञान के ग्रहण का सूतक बेहद अनिष्टकारी साबित हो रहा है। इस सूतक से मुक्ति के लिए विज्ञान के समुद्र में डुबकी लगवाई जाना ज़रूरी है, मगर परम्पराओं की नदी में डुबकी लगाने का व्यामोह लोगों से छूटता नहीं। विडंबना है कि आजकल नदियों में गले-गले तक कीचड़ के अलावा कुछ नहीं।

बुधवार, 9 जून 2010

नुक्कड़ नाटक दास्तान-ए-गैसकांड का एंडरसन प्रसंग


जादूगर    -    लड़के! सात समुन्दर पार जाएगा ?
जमूरा    -    पासपोर्ट नहीं है!
जादूगर    -    फिकर नहीं!
जमूरा    -    तो ठीक है उस्ताद, मगर काहे के वास्ते!
जादूगर    -    पकड़ लाने को!
जमूरा    -    किसको ?
जादूगर     -    एंडरसन को !
जमूरा    -    एंडरसन कौन ?

जादूगर    -    बहुराष्ट्रीय कम्पनी का मालिक, लाशों का सौदागर, अमरीकी पूँजीपति,   मुनाफाखोर, गरीब देशों की अवाम  की जान का दुश्मन, सफेद सुअर।

जमूरा    -    समझ गया, समझ गया उस्ताद। मगर अंग्रेजी नहीं आती।

जादूगर    -    फिकर नहीं, बस बैठ हवा के झोके पर, रुकना मत किसी के रोके पर, घुस जाना गोरों के देश में, पकड़ लाना एंडरसन को..................गिलि-गिलि-गिलि फूं...........

(जमूरा घेरे के चक्कर लगाता है, एंडरसन को पकड़ लाता है)

जमूरा    -    उस्ताद, पकड़ लाया, पकड़ लाया। बड़ी मुश्किल से हाथ आया है। के रिया था टेम नहीं है। डालर की एक बोरी उठाओ और उस्ताद और तुम मजमा-वजमा बन्द कर ऐश करना। जमूरे ने पटकनी मन्त्र सुनाया और कन्धे पर बिठाकर उठा लाया। उस्ताद, गोरा आदमी बड़ा नाराज़ है, इसे वेलकम गीत सुना दें। अगर ये नाराज़ हो गया तो हमारा देश इक्कीसवी सदी में कैसे जाएगा ? हमारे देश में लेटेस्ट टेक्नालॉजी कैसे आएगी ?

जादूगर    -     हाँ लड़के इसे गाना सुना।
                     (सब गाते हैं)
                     एंडरसन आया
                     डालर लाया
                    लाशों के ढेर पर मुँह फाड़-फाड़ कर
                    ठहाका खूब लगाया,
                    ठहाका खूब लगाया
                    अमरीका के गोरे ने
                    गिरफ्तार कर छोड़ दिया
                    भई डालर भर बोरे में,
                    डालर भर बोरे में
                    सत्ता यूँ मुस्काई
                    चलो खर्च निकले चुनाव के
                    शुक्रिया अमरीकी भाई,
                    शुक्रिया अमरीकी भाई देखो और भी आना
                    देश में और कम्पनी खोल कर कब्रिस्तान बनाना
                    कब्रिस्तान बनाना जनता हम दे देंगे
                    मगर ध्यान रखना समय-समय पर
                    नोट जरूर खिलाना................
एंडरसन    -    टूम लोग ये क्या गाटा ठा.........? हमको समझ नहीं आया। टुम हमको ट्रांसलेशन करके सुनाटा क्या ?   

जमूरा    -    हम तेरा वेलकम करटा। हमारे देश का परम्परा हाय, जो भी विदेशी आटा उसको एयरपोर्ट पर भक्तिगीत  सुनाटा हम लोग.............

एंडरसन    -    फरम्फरा! ये क्या होटा हाय ?

जमूरा    -    फरम्फरा मीन्स ट्रेडीशन-ट्रेडीशन!

एंडरसन    -    ट्रेडीशन, ओह ! पर ये टुम कैसा वेलकम किया। तुम्हारा सरकार ने टो हमारा बहुत अच्छा वेलकम किया। हमको एयरपोर्ट से हमारा कम्पनी का गेस्ट हाउस तक लाया। अच्छा खाने-पीने का इंटज़ाम किया। हमको बोला सर आप सात समुन्दर पार से आया, भूखा होगा, खाना खाओ, हम खाया, खूब खाया, खूब पिया और डंड पेला। फिर देखो टुम्हारा सरकार को हमारा कितना फिकर हाय। हमको बोला युवर एक्सीलेंसी, इधर टुम्हारा जान को खतरा हाय। टुमको डेहली भेजने को मांगता, बुरा नई मानने का। टुमको इंपोर्टेड कार में घुमायेगा-फिराएगा, ऐश करायेगा। स्टेट प्लेन से भोपाल और हिन्दुस्तान भर का खूबसूरत नज़ारा दिखायेगा। टुमको मालूम हमको रिक्वेस्ट किया टुम्हारा सरकार ने कि सर, हम एक नाटक करने को मांगटा, आपको हीरो बनाने को मांगटा। हम बोला, हज़ारों लोगों को जान से मारने के बाद हम टो वैसे ही     डुनिया का हीरो है। फिर भी हम बोला, ठीक है। टुमको मालूम नाटक का नाम ? ‘‘एंडरसन की गिरफ्तारी’’।
   
जादूगर    -    हाँ और उन्होंने जनता को मूर्ख बनाने के लिए एक नाटक किया। ‘‘एंडरसन की गिरफ्तारी’’। कानूनी ज़रूरत पूरी करने के बहाने हज़ारों लोगों के हत्यारे को छोड़ दिया 25 हज़ार की ज़मानत लेकर। जब अपराध हो रहा होता है तब हमारा कानून चुप बैठा रहता है। और जब अपराध हो चुकता है वह भी इतना भयानक कि हज़ारों लोग तड़फते हुए दम तोड़ देते हैं और लाखों लोग बीमारी से घिरे धीरे-धीरे दम तोडेंगे, तब ये कानूनी नाटक सिर्फ 25 हज़ार की ज़मानत पर खूंखार हत्यारे को खुद ब खुद छोड़ देता है। हां तो जमूरे करदे इस मौत के सौदागर को कटघरे में खड़ा और बांध दे इसकी शैतानी आँखों पर उगलवाऊ पट्टा.....................!
(जमूरा पट्टा बांधता है)
गोरे आदमी चला जा !

एंडरसन    -    किढर अमरीका ? लाओ-लाओ कार लाओ, प्लेन लाओ!   
जादूगर    -    खामोश!
                    अटरम सटरम बकना मत तू
                    खरी बात ही कहना
                    फेंक रहा हूँ उगलवाऊ मन्तर
                    ज़रा तमीज़ से रहना
                    गिलि गिलि गिलि गिलि फूं......................
                    गोरे आदमी लौट आ !
एंडरसन    -    लौट आया!
जादूगर    -    जनता सवाल पूछेगी जवाब देगा ?
एंडरसन    -    देगा!
जादूगर    -    झूठ तो नहीं बोलेगा ?
एंडरसन    -    बोलेगा भी तो टुम क्या कर लेगा ? टुम्हारा सरकार हमारा मुट्ठी में हाय...............!
जादूगर    -    चुप...................तू कौन.........?
एंडरसन    -    एंडरसन दी गे्रट !
जादूगर    -    हिन्दुस्तान क्यूं आया.........?
एंडरसन    -    ज़हरीली गैस के सक्सेसफुल एक्सपेरीमेंट पर हमारे हिन्दुस्तानी एजेन्टों को बधाई देने.............!
जादूगर    -    दे दी ?
एंडरसन    -    दे दी पर मज़ा नहीं आया । हम उनके काम से नाखुश हाय ..............
जादूगर    -    क्यूं ?
एंडरसन    -    बहुत कम मरे............
जादूगर    -    दस हज़ार कम है बे ?
एंडरसन    -    हमारा प्लानिंग तो पूरा शहर साफ करने का ठा !

जादूगर    -    सुन रहे है साहेबान, प्लानिंग तो इनकी पूरा शहर साफ करने की थी ! अगर पूरा देश, पूरी दुनिया साफ करने की भी होती तो कोई बड़ी बात नहीं.......... एंडरसन......!

एंडरसन    -    उस्ताद!
जादूगर    -    कम्पनी हमारे मुल्क में क्यों लगाई!
एंडरसन    -    टो क्या हमारे मुल्क में लगाटा..... हमारे यहाँ का लोग बड़ा कीमटी हाय!
जादूगर    -    हमारे यहाँ के नहीं हैं कीमती.............

एंडरसन    -    पालिसी उस्ताद पूँजीवाद की मेन पालिसी। भारत जैसे पिछडे़ देश में बिजनेस करना, गरीब लोगों को शोषण करना, साथ-साथ उन पर घातक रसायनों का, गैसों का प्रयोग करते रहना ताकि वक्त पड़ने पर कम से कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा लोग मारे जा सकें और प्रापर्टी को कोई नुकसान न हो! हम टो भई टुमारे मंत्रियों-अफसरों को थोड़ा बहुत खिला-पिला डेटे हैं, उनके बेटों, भांजों-भटीजों को अच्छी नौकरी दे देते हैं, टुम्हारा सरकार को करोड़ों रुपया दान करते हैं और आराम से बिना रोकटोक के काम करटे हैं। देखा नहीं, भोपाल में इटना सब होने के बाद भी टुम्हारा डिल्ली का सरकार मल्टी नेशनल का स्वागट करता ! बोलटा इंडिया में और ज़्यादा विडेशी पूँजी लगाओ।

जादूगर    -    सुना है तुम्हारे यहां इस गैस पर पाबंदी है ?
एंडरसन    -    सवाल ही नहीं उठता! टो क्या हम बिजनेस नहीं करें! हमारी तो अब भी यह कोशिश रहेगी कि हमारा कारखाना भोपाल टो क्या हिन्दुस्तान भर से कहीं ना जाने पाए, हम डेखटे हैं कैसे जाता है.......?

जमूरा    -    नहीं चलेगी, नहीं चलेगी, नहीं चलेगी ये चालाकी
                   देख ली दुनिया ने अब झाँकी
                   बना रखे षड़यंत्रों की
                   चकनाचूर करेंगे हम सब नसें तुम्हारे तंत्रों की...............
उस्ताद, बहुत हो गई बकवास, अब जनता भड़करने को है। अगर भड़क गई तो यह गोरा बंदर अपने मुल्क नहीं जा पाएगा। इसको दो एक पहलवानी लात, खुद-ब-खुद हुक्म समझ जाएगा। नही दोबारा यहां आएगा।
(जादूगर और जमूरा दोनों मिलकर उसे लात मारते हैं। एंडरसन भीड़ में घुस जाता है।)

( गैस त्रासदी पर लिखे गए नुक्कड़ नाटक ‘‘दास्तान-ए-गैसकांड का अंश, लेखक-राजीव लोचन व प्रमोद ताम्बट। इस नाटक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन 26 दिसम्बर 1984 को हुआ था। एंडरसन के संबंध में उठ रहे सवाल इस नाटक में आज से 26 साल पहले कितने सशक्त रूप में उठाए गए थे वह नाटक के इस एंडरसन प्रसंग से स्पष्ट है।मुख्य पृष्ठ का डिजाइन स्वर्गीय किशोर उमरेकर का है।)

मंगलवार, 8 जून 2010

हरिभूमि में व्यंग्य - लेखन क्षमता का अदृभुत कमाल

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं लेकिन विकट प्रतिभाएँ गिनी-चुनी हैं। एक विकट प्रतिभा का अभी कुछ ही समय पहले आविर्भाव हुआ है। आई.पी.एल,. जिसका फुल-फार्म इंडियन पिसाई लीग, इंडियन पैसा लीग, इंडियन पापी लीग आदि-आदि किया जाकर अब भी अन्तिम होना बाकी है, के कमिश्नर ललित मोदी ने उनके ऊपर लगे छत्तीस-पेजी आरोपों का जवाब पन्द्रह हज़ार पन्नों में देकर बड़े-बडे़ लिख्खाड़ों को धराशायी कर दिया है। आम तौर पर जिस देश में चार लाइन मात्र लिखने में लोगों की नानी मरती हो, और खास तौर पर, लिखने वालों में चार पन्ने लिखने के बाद मौलिकता का गधे के सिर से सींग की तरह लोप होने लगता हो, उस देश में जीवन भर नोट कमाने की जुगत में रहने वाले एक खान्दानी बनिए ने रातों-रात मौलिकता की सम्पूर्ण भावनाओं के साथ पन्द्रह हज़ार शुभ्र-सफेद पन्ने काले कर मारे, वह भी बिना यह साहित्यिक चिंता पाले कि इन पन्द्रह हज़ार पन्नों को कोई पढ़ेगा भी या नही, है ना कमाल की बात ?
आई.पी.एल. के दीवानों के लिए भले ही यह कान पर जूँ रेंगाने वाली घटना ना हो मगर साहित्यकारों के लिए यह अवश्य ही एक चिंता में डालने वाली घटना हो सकती है। अवश्य ही यह एक महान व्यावसायिक जलन का विषय हो सकता है कि वे, जो जीवन भर कलम घसीट-घसीट कर रीम का रीम कागज़ काला करते रहने के लिए बदनाम हैं, मगर फिर भी कुल मिलाकर पन्द्रह हज़ार पृष्ठों का रद्दी में बिकने लायक कचरा तैयार नहीं कर पाते, इधर इस कल के छोकरे ने एक झटके में इतना कागज़ गोद दिया कि उसे छः बक्सों में रखकर ढोने के लिए चार कारों की व्यवस्था करना पड़ी। कमाल की उत्पादन क्षमता है। मेरा दावा है कि देश के सारे साहित्यकार भी अगर मिलकर इतने पृष्ठों का उत्पादन करना चाहे तो इतने कम समय में हरगिज़ नहीं कर सकते। उत्पादन तो दूर, आयतन की दृष्टि से इतने कम समय में तो वे शांत चित्त से पन्द्रह हज़ार पृष्ठों की सामग्री के समानुपातिक सोच भी लें तो साहित्य जगत में, विशेषकर साहित्य जगत के पुरस्कार खेमे में तूफान आ जाए।
यूँ तो मोदी की उस ऐतिहासिक रचना को कोई खानदानी किताबी कीड़ा तक पलटकर देखना नहीं चाहेगा, मगर फिर भी तीव्र गति से समसामयिक लेखन के इस कौशल को बिना किसी मूल्यांकन प्रक्रिया को अन्जाम दिए सम्पूर्ण सम्मान की नज़र से देखा जाना चाहिए। तत्काल सम्मान इत्यादि की घोषणा भी कर दी जाए तो इतर लोग भी जिनके पढ़ने के लिए इस कालजयी साहित्य की पन्द्रह हज़ार पेजी रचना की गई है, इसे पढ़ने से बच जाऐंगे। रचनाशीलता के इस महान जज़्बे की इज्ज़त करते हुए मोदी की इस कृति को अवश्य ही नोबल पुरस्कार के लिए भेजा जाना चाहिए। यह नोबल पुरस्कार के लिए भी सम्मान की बात होगी क्योंकि आज तक इतनी हृष्ट-पुष्ट कृति पुरुस्कारार्थ नहीं आई होगी। वे दें या ना दें, मोदी लें या ना लें, उनकी मर्ज़ी, मगर हमें मोदी जैसे भारतीयों की लेखन क्षमता का झंडा ऊपर उठाने के लिए यह प्रयास जरूर करना चाहिए।

रविवार, 6 जून 2010

मालामाल करने की चिरौरियाँ

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

    वैसे तो हमारे खानदान में कभी किसी को कोई ईनाम-इकराम नहीं मिला, किसी की कोई लॉटरी नहीं लगी, किसी ने विरसे में हमारे लिए धनदौलत की कोई पोटली नहीं छोड़ी, मगर जबसे मैंने पत्राचार और ब्लॉगिंग के लिए इन्टरनेट का इस्तेमाल तेज़ किया है, दुनिया भर के सैकड़ों दयालु और उदार किस्म के बदमाश मुझे नाना तौर-तरीकों से जबरदस्ती मालामाल कर देने पर तुले हुए हैं। पता नहीं मेरे बारे में उन्हें यह गलतफहमी कैसे हो गई कि हिन्दी का लेखक है तो ज़रूर लॉटरीखोर और सट्टेबाज़ होगा। याकि उनका आकलन है कि भारतीय लेखक है तो मुफ्तखोर तो ज़रूर होगा, लालच का मारा पक्का जाल में आ फँसेगा। या फिर शायद वे सोच रहे हैं कि दुनिया में सबसे बेवकूफ कोई है तो वह है भारतीय लेखक, फिर व्यंग्यकार हो तो उससे मूर्ख तो कोई हो ही नहीं सकता, इसलिए इन दिनों सैकड़ों की तादात में इन्टरनेट के ठगों ने मेरे ऊपर कड़ी फील्डिंग लगा रखी है, जाल बिछा रखा है और इंतज़ार कर रहे हैं कि कब में उसमें जा फसूँ।
    सुदूर विदेशों से, या क्या पता यहीं किसी होटल में बैठकर, कई लॉटरी और सट्टे वाले रोज़ मेरे ईमेल बाक्स में ढेरों बधाइयाँ भेज रहे हैं। कांग्रेच्यूलेशंस, यू हैव वन 1 लैख यू.एस. डालर्स। कांग्रेच्यूलेशंस, यू आर द विनर ऑफ द यू.एस. नेशनल लॉटरी, क्लेम फॉर ट्वेंटी फाइव थाउजेंड पाउंड। कांग्रेच्यूलेशंस, यू आर द जैकपॉट विनर......। और बधाइयों के साथ तुरन्त अपना नाम, पता, दूरभाष आदि जानकारी भेजने का निवेदन, व देरी होने की सूरत में दावा खारिज कर दिये जाने की सख्त धमकी भी होती है। सच कह रहा हूँ, अव्वल तो मैंने कभी कोई लॉटरी का टिकट खरीदा ही नहीं, ना ही कहीं कोई सट्टे की पर्ची ही लगाई है, फिर पता नहीं क्यों ये दानी लोग जबरदस्ती मेरी आर्थिक स्थिति सुधारने पर उतारू है। जब देश की अर्थव्यवस्था सैद्धातिक रूप से मेरी आर्थिक दशा सुधारने के सरासर खिलाफ है तो फिर ये बेचारे क्यों खामोखां परेशान हो रहे हैं, क्या पता !
    एक कोई पीटर साहब हैं। वे मेरे नाम लाखों डॉलर छोड़कर मरे हैं। अब उनके वकील जैफरसन चुपचाप यह पैसा खा जाने की बजाय मेरे पीछे हाथ धोकर पड़े हैं कि मैं अपनी अमानत हासिल करने के लिए उनसे सम्पर्क करूँ। मैंने अपने माँ-बाप से पूछ लिया है कि अपने खानदान में कभी कोई पीटर नाम का आदमी हुआ है क्या ? उन्होंने भी अपनी याददाश्त पर काफी ज़ोर डालकर देख लिया, पुराने पारिवारिक पोथी-पत्रों को भी पलट लिया, मगर कहीं से कोई सूत्र इन पीटर साहब से जुड़ता नज़र नहीं आ रहा।
    एक कोई मूसा महाशय हैं, जो नाम से ही गैंगस्टर प्रजाति के प्रतीत होते हैं। वे चाहते हैं कि उनका किसी बैंक में फँसा हंड्रेड बिलियन फाइव थाउजेंड यू.एस. पाउंड मेरे खाते में ट्रांसफर कर दिया जाए। किसी की भी कसम खवा लो, यह जो रकम ऊपर लिखी है, भारतीय मुद्रा में दरअसल कितनी होती है मुझे नहीं मालूम। मुझे भय है कि इतनी बड़ी रकम मेरे खाते में आने से कहीं मुझे हार्ट अटैक ना हो जाए या मेरी बैंक के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स कहीं खुशी के मारे पागल ना हों जाएँ।
    एक साहब मुझे अपना बिजनेस पार्टनर बनाना चाहते हैं। दुनिया भर के बड़े-बडे़ देशों को छोड़कर वे भारत जैसे भुक्कड़ देश के एक, ‘बिजनेस’ ही से नफरत करने वाले शख्स की पाटनरी आखिर क्यों चाहते हैं और दुनिया के बड़े-बडे़ घरानों को लात मारकर वे मुझ ही से पाटनरी में धोका क्यों खाना चाहते हैं, यह एक बड़े रहस्य की बात हैं। लगता है उन्हें डूबने का शौक चर्रा रहा है और यह सच है कि दुनिया में अगर बिजनेस डुबाने में सचमुच कोई उनके काम आ सकता है तो वह मैं ही हूँ।
    मुझे मालामाल करने के लिए की जा रही रोज़ की नई-नई विदेशी चिरौरियों से तंग आकर अब मैं इन्टरनेट पर रातों-रात अपना ठिकाना बदलने की तैयारी कर रहा हूँ, जैसे कोई किराएदार चुपचाप बिना किराया दिये मकान छोड़कर भाग जाता है। मगर मुश्किल यह है कि बिना किराया, फ्री-फंड के इस मकान इन्टरनेट पर कोई पता-ठिकाना ऐसा नहीं है जहाँ ये बदमाश आपको ढूँढ़ते हुए ना जा पहुँचें। आप चाहकर भी इनकी आपको मालामाल कर देने की चिरौरियों से बच नहीं सकते। एकबार आप इनके हत्थे लग भर जाओ, ये बिना थके यूँ आपके पीछे लग जाएंगे कि अरेबियन कहानियों का जिन्न भी शर्मा जाए।