//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
क्या होता है, कैसा होता है, कहाँ रहता है, कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, यह सब तो नहीं पता परन्तु यह कम्बखत 'सूतक' बैठेठाले आए दिन हमसे आ चिमटता है। पड़ोस में कोई मुसलमान रहता हो, ख्रिस्तान रहता हो, और किसी दूसरे धर्म, सम्प्रदाय का बन्दा रहा करता हो, उससे नहीं चिमटेगा। दुनिया के किसी देश में, किसी शहर में, किसी नस्ल, किसी जाति के आदमी से यह सूतक कभी नहीं चिमटेगा, मगर हम दुनिया में कहीं भी रहें यह बाकायदा घर ढूँढ़कर हम पर चढ़ बैठेगा और हम जैसे पवित्र दूध के धूले संस्कार-पुत्रों को अपवित्र कर जाएगा। फिर किसी सहस्यमय अशुद्धि से मुक्ति के लिए गोमूत्र छिड़कने से लेकर पूजा-पाठ और अर्धनग्न होकर पवित्र नदी (भले ही वह पर्याप्त प्रदूषित हो जो कि होती ही है) में डुबकी लगाने का प्रदर्शनकारी कर्मकांड। नदी ना हो तो आसपास किसी तालाब, पोखर, कुएं, बावड़ी पर हर हर गंगे के नाद के साथ शरीर से चिमटे सूतक को ठंडे पानी से रगड़-रगड़ कर छुटाने की हौलनाक कवायद। खुले में नंगे बदन स्नान की ऐसी कोई प्राकृतिक व्यवस्था ना हो तो घर ही में नगर निगम के बाल्टी भर मटमैले पानी में चम्मच भर गंगा जल डालकर भी काम चलाया जा सकता है।
ब्रम्हांड भर में कहीं भी ग्रहण हो और भारतीय पंडितों को पता भर चल जाए तो समझो सूतक चल पड़ा। हमारे देश में भले ही रात हो या घने बादलों की वजह से यह अनोखा खगोलीय कार्यक्रम ज़्यादा लोग देख भी न पाएँ, परन्तु सूतक बिलानागा बराबर हर एक से आ चिमटेगा और समय के अन्तर के हिसाब से देश-दुनिया भर में जरूरतमंद भारतीयों से चिपटता चला गया।
किसी के यहाँ बच्चा हो तब भी वह फौरन घर के हर सदस्य से आ चिमटता है। बच्चा भले ही किसी मेटरनिटी होम में पैदा हुआ हो, घर में सुख की नींद सो रहे परिवार के दूसरे सदस्य इस सूतक की चपेट में आ जाते हैं। इधर अस्पताल में डॉक्टर और तमाम स्टाफ को छोड़कर यह घर में बुढ्ढा-बुढ्ढी से जा चिमटेगा और वे अस्पताल जाकर बहु की सेवा सुश्रुषा करने की बजाय घर में बंद होकर बैठ जाएँगे। बच्चे का बाप मान लो किसी दूसरे शहर में हो तो सूतक पहली ट्रेन पकड़कर वहाँ पहुँच जाएगा और उससे जा चिमटेगा, बेचारा सवा महीने अपनी निजी कलाकृति का मुखड़ा भी देख नहीं पाएगा।
घर में कोई सिधार जाए सूतक बिना देर किये आ खड़ा होता है और इमर्जेंसी से भी खतरनाक निषेधाज्ञा लागू कर देता है। छुआछूत की धारा एक सौ चौवालिस लागू हो जाती है। परम्पराओं की तमाम धाराएँ ज़मीन तोड़-तोड़कर बाहर निकल पड़ती हैं। मृतक की आत्मा बाहर बिजली के खंभे (आजकल घरों में पेड़ कम ही होते हैं) पर बैठी देखती रहेगी कि किसने-किसने सूतक का पालन नहीं किया, किसने घर के बाहर कदम रखा, किसने किसी दूसरे के घर जाकर नाश्ता-पानी कर लिया। आत्मा को यह पसंद नहीं कि उसे भूखा रखकर लोग सूतक में खुद खाएँ-पिएँ। सूतक की निषेधाज्ञा का क्रूर तकाज़ा है कि यदि वह विराजमान है और पड़ोस में कोई मर भी रहा हो तो उसके मुँह में दो चम्मच पानी भी मत डालो।
यू तो हम भारतीयों पर जाति-धर्म से निरपेक्ष कोई ना कोई सूतक हमेशा चिमटा ही रहता है, मगर दिमाग को लगे अज्ञान के ग्रहण का सूतक बेहद अनिष्टकारी साबित हो रहा है। इस सूतक से मुक्ति के लिए विज्ञान के समुद्र में डुबकी लगवाई जाना ज़रूरी है, मगर परम्पराओं की नदी में डुबकी लगाने का व्यामोह लोगों से छूटता नहीं। विडंबना है कि आजकल नदियों में गले-गले तक कीचड़ के अलावा कुछ नहीं।
nice
जवाब देंहटाएंक्या गज़ब का लिखते है । सूतक तो इक बहाना भर था बहुत अच्छा सन्देश दे गये बातो-बातो मे। सुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख |कुछ कुरीतियों को अभी भी हम छोड़ नहीं पाते |एक घटना यद् आ रही है बात कुछ २० साल पुरानी है मेरी काकी साँस मुंबई में रहती थी एक ही लें में बने थे पड़ोसी गोवा के रहने वाले थे पर मराठी भाषा बोलते थे और काकीजी खास म. प्र .की रहने वाली एक दिन उन्होंने पड़ोसिन को बुलाकर कहा मेरे जेठ जी शांत हो गये है भोपाल में हमको सूटक हो गया है तो मुझे बड़े डिब्बे से आटा ,चांवल आदि सामान निकाल दीजिये \पड़ोसन काकी भी आई और अछे से सब सामान निकाल दिया फिर कहने लगी -परवा माझे पण धीर वारले |मेरे जेठ भी परसों शांत हो गये |
जवाब देंहटाएं@Shobhana Choure
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा, वाह शोभना जी बहुत ही मजे़दार अनुभव सुनाया आपने। बहुत बहुत धन्यवाद।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
pramod jee ,
जवाब देंहटाएंpranam !
vakai aap ne sutak ki har vidha kah di ki sutak kaha kaha hota hai , bilkul apne hindu ki baat karne to is se koi bach nahi sakta ,
sadhuwad