भाई लोगों ने भारत बंद किया, हालांकि वह जगह-जगह से खुला रहा।
भाई लोगों से मेरा मतलब ‘भाई लोगों’ से ही है, वे अगर सिर तोड़ने के संकल्प के साथ लट्ठ लेकर न घूम रहे होते तो वणिक बिरादरी भला माल बेचने से क्या बाज आने वाली थी। वणिक बिरादरी के कर्मठों की मजबूरी है कि उन्हें भूख भी लगती है और नींद भी आती है, इसलिए वणिकाइन के हाथ की खीर-पूड़ी खाने और दिन भर की लूट-खसौट उसके हवाले करने के बाद नर्म-मुलायम गद्दों पर खुर्राटे भरने के लिए उन्हें घर भी जाना पड़ता है, वर्ना वे रात भर जगराता करके भी माल बेचने से बाज ना आएँ। सो, देश हित में भाई लोगों को उन्हें सिर तोड़ने की धमकी देकर अपने ‘भारत’ का शटर बंद रखने के लिए चेताना पड़ता है, तब कहीं जाकर ‘भारत’ कायदे से बंद होता है।
भारत जगह-जगह से खुला यूँ रहा कि जगह-जगह कांग्रेसी वणिकों की दुकानें भी हैं, वे भी काउन्टर के पीछे विपक्षी ‘भाइयों’ की खोपड़ी फोड़ने के लिए पर्याप्त हथियारों की व्यवस्था के साथ आराम से गल्ले पर बैठे रहे, कि देखते हैं कौन माई का लाल हमारी सरकार की मँहगाई बढाने की भीष्म प्रतिज्ञाओं को खंडित करता है। बीवी भले ही घर में हाईकमान को पानी पी-पीकर कोस रही हो कि खुद तो मौज मजे में है, और यहाँ सपोर्टरों को मँहगाई ने परेशान कर रखा है। समर्पित पुराना कांग्रेसी वणिक पार्टी के बचाव में अपना सिर टूटने का खतरा उठाकर भी अपनी दुकान खोले बैठा है, ताकि पार्टी की नज़र में महान होने का मौका मिल सके, और कोई ना कोई टिकट पक्का हो जाए। दूसरी ओर, जनता के सामने संत बनने का मौका भी रहे कि देखों यह कमीना विपक्ष तुम्हारी गली-गली में फजीहत कर रहा है, मगर हम भले ही चौगूने दाम पर माल बेच रहे हों पर, परोपकार में बेच तो रहे हैं, किसी को भूखों तो नहीं मरने दे रहे ! देश का भला ही तो कर रहे हैं। भारत भले ही बंद रहा हो परन्तु मँहगाई से दो गुना हो गए मुनाफे पर इन्हीं का एकाधिकार रहा, क्योंकि बंद समर्थक दुकानदार मजबूरी में दिन भर विपक्ष के पीछे घूमते रहे क्योंकि आखिर वे ही तो उनके महान कार्यकर्ताओं की गिनती में सबसे ऊपर आते हैं, और मौका लगने पर जनता भी कहलाते हैं।
इस बंद से मेरे सामने एक बहुत ही बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर ‘भारत’ है क्या चीज़, जो चंद राजनैतिक गुंडों के डंडा लहराने से बंद हो जाता है, और दिन भर हुडदंग-लीला कर बसें-वसें जलाने के बाद शाम को खुल जाता है। क्या बड़े-बडे़ औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि के रूप में गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ पर लोगों की जेब से पैसा निकालने के लिए तैनात ‘शोरूम’ भारत हैं, जिनके, काँच टूटने के डर से बंद होने को ‘भारत बंद’ होना कहा जाता है! या दो वक्त की रोटी की जद्दोजहद के अड्डे, छोटी-छोटी दुकानों के टपरे ‘भारत’ हैं जिन्हें एक दिन के बंद की सज़ा के रूप में एक दिन की कमाई से महरूम रहना पड़ता है। याकि बंद के आतंक से सहमे हुए अपने-अपने घरों में कैद मजदूर किसान, मध्यमवर्ग की आम जनता ‘भारत’ है जिसे इस बंद से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता। आखिर कौन है भारत जो बंद हो जाता है और खुल जाता है।
भारत जगह-जगह से खुला यूँ रहा कि जगह-जगह कांग्रेसी वणिकों की दुकानें भी हैं, वे भी काउन्टर के पीछे विपक्षी ‘भाइयों’ की खोपड़ी फोड़ने के लिए पर्याप्त हथियारों की व्यवस्था के साथ आराम से गल्ले पर बैठे रहे, कि देखते हैं कौन माई का लाल हमारी सरकार की मँहगाई बढाने की भीष्म प्रतिज्ञाओं को खंडित करता है। बीवी भले ही घर में हाईकमान को पानी पी-पीकर कोस रही हो कि खुद तो मौज मजे में है, और यहाँ सपोर्टरों को मँहगाई ने परेशान कर रखा है। समर्पित पुराना कांग्रेसी वणिक पार्टी के बचाव में अपना सिर टूटने का खतरा उठाकर भी अपनी दुकान खोले बैठा है, ताकि पार्टी की नज़र में महान होने का मौका मिल सके, और कोई ना कोई टिकट पक्का हो जाए। दूसरी ओर, जनता के सामने संत बनने का मौका भी रहे कि देखों यह कमीना विपक्ष तुम्हारी गली-गली में फजीहत कर रहा है, मगर हम भले ही चौगूने दाम पर माल बेच रहे हों पर, परोपकार में बेच तो रहे हैं, किसी को भूखों तो नहीं मरने दे रहे ! देश का भला ही तो कर रहे हैं। भारत भले ही बंद रहा हो परन्तु मँहगाई से दो गुना हो गए मुनाफे पर इन्हीं का एकाधिकार रहा, क्योंकि बंद समर्थक दुकानदार मजबूरी में दिन भर विपक्ष के पीछे घूमते रहे क्योंकि आखिर वे ही तो उनके महान कार्यकर्ताओं की गिनती में सबसे ऊपर आते हैं, और मौका लगने पर जनता भी कहलाते हैं।
इस बंद से मेरे सामने एक बहुत ही बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर ‘भारत’ है क्या चीज़, जो चंद राजनैतिक गुंडों के डंडा लहराने से बंद हो जाता है, और दिन भर हुडदंग-लीला कर बसें-वसें जलाने के बाद शाम को खुल जाता है। क्या बड़े-बडे़ औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि के रूप में गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ पर लोगों की जेब से पैसा निकालने के लिए तैनात ‘शोरूम’ भारत हैं, जिनके, काँच टूटने के डर से बंद होने को ‘भारत बंद’ होना कहा जाता है! या दो वक्त की रोटी की जद्दोजहद के अड्डे, छोटी-छोटी दुकानों के टपरे ‘भारत’ हैं जिन्हें एक दिन के बंद की सज़ा के रूप में एक दिन की कमाई से महरूम रहना पड़ता है। याकि बंद के आतंक से सहमे हुए अपने-अपने घरों में कैद मजदूर किसान, मध्यमवर्ग की आम जनता ‘भारत’ है जिसे इस बंद से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता। आखिर कौन है भारत जो बंद हो जाता है और खुल जाता है।
बहुत सार्थक प्रश्न उठाया है इस प्रिविष्टि के माध्यम से...यह सब राजनैतिक खेल है और कुछ नहीं...आम जनता से किसी का लेना देना नहीं है..
जवाब देंहटाएंहमे भी कोई लेना देना नही बंद से। अच्छा कटाक्ष है। आभार।
जवाब देंहटाएंबंद तो खुला ही रहेगा और महंगाई रहेगी बंद। मतलब जिसे जो होना चाहिए, वह वही तो नहीं हो पा रहा है। आपका यह व्यंग्य हरिभूमि में सुबह 4 बजे पढ़ लिया था। बधाई भाई।
जवाब देंहटाएंYehan Bangalore main, Is Bandh may bhi kuch hotels aur daru ki dukane pichwade se khuli thi!
जवाब देंहटाएंdear sir, hidustan,bharat kabhi band ho nahi sakta, kitne bhi log aa jay, mohamad gajni se lekar angrej tak sab ne kosis ki kuch bo le gaye ,or kuch ye le jayenge ,par bharat kabhi bhi band nahi hoga,kam karne bale hat kam karenge ,
जवाब देंहटाएंdukan band, bus band, train band, rly station band ,school ,auto, bhi band, lekin admi ki soch ko kese band karoge,nirjeeb vastu ka band kiya or chalu kiya ,
जवाब देंहटाएंप्रमोद जी, भारत कोई खिलोना नही है ,की कुछ लोग डरा धमकाकर भारत बंद कर देंगे, बस ,ट्रेन, दुकान, ऑटो, टॅक्सी, स्कूल, आदि सब निर्जीब बस्तु है,इनको किया समजता है बंद ओर ना बंद, जीबित लोगो की सोच को बंद कर के दिखाए , जो इन हरकतो से नफरत करते है,जो नही चाहता ग़रीबो का चूल्हा भुजे ,जो नही चाहता कोई मशीन बंद हो , जो नही चाहता देश एक पल के लिए भी अपनी गति कम करे,आपका लेख उन तमाम लोगो को सोचने पर मजबूर कर देगा जो बात बात मे भारत बंद की बाते करते है , राकेश
जवाब देंहटाएंअखबार में समाचार पढा कि बिहार मे 10 दिन में से 7 दिन बंद रहा और कितनी परेशानी लोगों को हुई ...और आपने इतना जानदार लेख लिखा ...काश इसे देख कर कोई जागृत हो...उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंप्रमोद जी ,
जवाब देंहटाएंदेर से ही सही पर आपका भारत बंद लेख पढ़ लिया ! भैया बूँद -बूँद से ही सागर बनता है ,सो आपकी व्यंग्य की बूँदें रंग लाई हैं ! बहुत सुन्दर बन पड़ा है लेख ,जितनी बधाई दूं .कम पड़ेगी !
एक बात और वैसे भी व्यंग्य की बूंदों से साहित्य का सागर भरने वालों की संख्या बहुत सीमित है ,सो एक अहम् काम कर रहे हैं आप।
रेखा मैत्र