//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
झुँड के झुँड दशहरा मैदान पर टूटे, बुराई के प्रतीक रावण को फूँका और हिलते-डुलते घर चले आए। अपने भीतर के रावण को, जिसे वहीं भस्म होने के लिए छोड़ आना चाहिए था, उसे वापस ले आए! फिर घर आकर दारू पी, बीवी-बच्चों की कुटाई की और घोड़े बेचकर सो गए। सुबह उठकर फिर रावणी कुकर्मों में लगना है।
पुरातन प्रथाकारों ने प्रथाओं की लाँचिग में भारी गड़बड़ियाँ की हैं। जैसे श्रीराम ने रावण का अगर संहार किया ही था तो उस बुराई को वहीं-कहीं दाह-संस्कार, कडोलेंस वगैरह करवाकर किस्सा खत्म कर दिया जाना चाहिए था, उसका पुतला उठाकर भारत लाने और सदियों तक ढोते चले जाने की क्या तुक थी। अब देखिए, इसका नतीजा क्या हुआ, रावण को हम इतने सालों से जलाते आ रहे हैं, मगर वह इन्सानों के भीतर घुसकर जिन्दा ही रहता है। उसके खुद के तो दस सिर थे मगर वह जब इन्सान में प्रवेश करता है तो सिर सौ हो जाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम के सारे मूल्य तो आउटडेटेड पाए जा रहे हैं, इस मुए रावण के मूल्य ज़्यादा ही प्रचलित हो गए हैं। आजकल हर आदमी बढ़-चढ़ कर रावण बनने की प्रतियोगिता में लगा हुआ है।
रावण, कुभकर्ण, मेघनाथ, के पुतलों का वार्षिक दहन कार्यक्रम बरसों-बरस इस तरह समारोह पूर्वक न किया जाता तो रावणी कुसंस्कार-कुसंस्कृति के जीवाणू-कीटाणू हमारे देश में आकर सीधे-साधे भोले-भाले लोगों का डी.एन.ए. संक्रमित नहीं कर पाते। हमें जब पता ही नहीं चलता कि रावण कैसा होता है तो हम जाने-अनजाने रावण का रूप धर रावणलीलाएँ कैसे करते।
अँग्रेज़ भी यूरोप से ‘पूँजीवाद’ का मुर्दा अपने साथ उठा लाए थे, उसके साथ ‘पूँजीवादी’ कुसंस्कारों-कुसंस्कृति के जीव-कीट भी ले आए। दो सौ साल तक अँग्रेज़ यहाँ रहे, किसी ने मुर्दे की ठठरी नहीं बाँधी। वे यहाँ से चले गए, मुर्दा यही छोड़ गए। अब वह मुर्दा भयानक रूप से सड़ रहा है, बदबू मार रहा है। एक तरफ ‘पूँजीवाद’ का मुर्दा दूसरी तरफ रावण। दोनों हुंकार-हुंकार कर कदमताल कर रहे हैं। न रावण से छुटकारा मिल रहा है ने पूँजीवाद की सड़ांध से। हम लोग तो उत्सवधर्मिता के नशे में दोनों की मृत देह के सामने नगाड़े बजा रहे हैं।
मन में बजे नगाड़े तब तो रावण भागे।
जवाब देंहटाएं" रावणी कुसंस्कार-कुसंस्कृति के जीवाणू-कीटाणू हमारे देश में आकर सीधे-साधे भोले-भाले लोगों का डी.एन.ए. संक्रमित नहीं कर पाते " सर ...ठीक कहा ...यह एक सटीक, समसामयिक और जोरदार आघात है व्यर्थ की प्रथाओं पर ... सच कहा है ... युवाओं को हम जाने अनजाने ही बुराईओं पर विजय पाने के गैर-जिम्मेवार तरीके सिखा रहे है ... बाज आये अब तो ... !!!
जवाब देंहटाएंकल 08/10/2011 को आपकी कोई पोस्ट!
जवाब देंहटाएंनयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद
हर साल तो मारते हैं पर मरता ही नहीं।
जवाब देंहटाएंआपने दशहेरा मैदान का सही नक्शा खींचा है। शानदार प्रस्तुति बधाई स्वीकारें :)समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर भी आपका स्वागत है ...
जवाब देंहटाएंaaj ke haalaton ki chintansheel baangi..
जवाब देंहटाएंbahut badiya prastuti hetu aabhar!