//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
कुछ कीडे़ होते हैं, उड़ने की कला का सही इस्तेमाल ही नहीं जानते। यूँ उड़ते हैं मानों आँख पर पट्टी बाँध रखी हो। उड़ते हैं, यहाँ टकराते हैं, उड़ते हैं, वहाँ टकराते हैं। इस टकराया-टकराई में मुमकिन है अपना सिर या कि हाथ-पैर भी तुड़ा बैठते हों और बिना इलाज के जीवन भर के लिए अपंग हो जाते हों। कुछ कीड़े तीर की गति से किसी के थोबडे़ पर जा भिड़ते हैं, या कपड़ों में जा घुसते हैं और अंततः इस गुस्ताखी के लिए उस गुस्सैल बंदे के हाथों मसलकर मार दिये जाते हैं, उड़ने की इतनी अनोखी और महत्वपूर्ण कला धरी की धरी रह जाती है। अरे भई, प्रकृति ने पंख दिये है कि जितना चाहे उतना ऊँचा उड़ो, लेकिन वे खुले आसमान में उड़ने की बजाय मरने के लिए ज़मीन पर ही फुर्र-फुर्र करते रहते हैं।
मख्खी भी एक उड़न्तू जीव है, शरीर में बाकायदा पंखों की व्यवस्था है। इच्छा शक्ति हो तो ऊँची उड़ान भर सकती है, आसमान में चन्द्रमा पर जाकर बैठ सकती है, मगर बैठेगी कहाँ, घूरे पर। चाहे तो प्रधानमंत्री के घर में डायनिंग टेबल पर आराम से आसन जमाकर रबड़ी खा सकती है, मगर वह किसी झुग्गी बस्ती में जाकर बूदार मानव विष्ठा पर बैठक करेगी, मरे जानवर की सड़ी देह पर जाकर भिन-भिनाएगी। औकात से ज़्यादा किसी को कुछ मिल जाए तो ऐसा ही होता है, जैसे मख्खियों को बिना योग्यता के पंख मिल गएँ हैं मगर उन्हें गटर में बैठने में ही मज़ा आता है ।
एक होता है मच्छर, सुविधाजनक रूप से आदमी का खून पीने के लिए इसे छोटे-छोटे पंख और एक नुकीली स्ट्राँ मिली हुई है, गॉड गिफ्ट की तरह, मगर यह प्राणी कान पर भिन-भिन कर या आदमी के सर पर चक्करदार उड़ानें लगा-लगाकर अपना टाइम खराब करता है। आखिरकार किसी स्प्रे का शिकार होकर स्वर्ग सिधार जाता है। कर्म के हिसाब से देखा जाए तो मच्छरों को पंखों की कोई आवश्यकता नहीं थी, खून ही तो पीना है कैसे भी पी लो। खून पीने के बाद वैसे भी वे उड़ तो पाते नहीं, मारे और जाते हैं। इसलिए बिना पंखों के भी उनका काम चल सकता था। आदमी को देखों पंख नहीं है, मुँह में स्ट्राँ भी नहीं है, लेकिन मौका लगते ही दबोच में आ गए आदमी का खून गटागट पीता है, साँस भी नहीं लेता।
कीट-पतंगे, चाहें तो ‘पतंगों’ की तरह उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं, मृत्यु उनके करीब भी नहीं आ सकती। मगर नहीं, वे उड़ेंगे तो सीधे अपनी मौत की दिशा में दौडेंगे। दो कौड़ी की ‘शमा’ या सौ-दो सौ वॉट के बल्ब की मामूली सी गर्मी में जल मरेंगे। बारिश में कई छोटे-छोटे जीवों के शरीर में पंख फूट आते हैं, तुच्छ जीवन बचाने के लिए फ्री-फंड का प्राकृतिक तोहफा। मगर उन्हें उड़ने की कला का कोई खानदानी अनुभव तो होता नहीं, टेम्परेरी सुविधा मिली होती है, सो पानी से नहीं तो ‘बेक’ होकर बेमौत मरते हैं। अपने सक्षिप्त से जीवनकाल में एक बार ढंग से उड़ भी नहीं पाते।
चीलों का ऊँचे आसमान में धीर-गंभीर मंथर गति से हवा में संतुलन कायम कर घंटों उड़ान भरते रहना बड़ा पुरसुकून लगता है, लेकिन उनका पेट भरा हुआ हो तभी, वर्ना वह अनंत ऊँचाइयों से भी पिद्दी से चूहे को देखकर अपनी नियत खराब कर लेती है, पूरी तौर पर नीचे की और गिरकर उस पर झपट पड़ती है। गिद्धों के पास विशाल पंख हैं, ताकत है, चाहें तो दुनिया का सबसे ऊँचा उड़ने वाला पक्षी बन सकते हैं, मगर वे मरे हुए जानवरों की बदबूदार देह में जीवन सुख ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उड़ना-वुड़ना सब भूल जाते है। बस आँतें चीथते रहते हैं।
इंसान का मामला एकदम अलग है, किसी किसी इंसान का तो एकदम ही अलग। इन्हें पंख नहीं होते पर वे ज़मीन पर कभी नहीं रहते। नाली के कीड़े होकर भी आसमान में उड़ते हुए नज़र आते हैं। इतना ही नहीं, ज़मीन से उड़ते समय गंदी नाली का कीचड़ भी अपने साथ लपेट ले जाकर वे आसमान को भी गंदा किया करते हैं। अपनी कीचड़ युक्त चहलकदमी से सारे आकाश को बदरंग कर देते हैं।
अद्भुत है यह उड़ने की कला भी, जिनके पास पंखों की नेमत है वे उँचाई पर जाने के लिए उनका उपयोग नहीं कर पा रहे, और जिनके पास किसी साइज़, कलर, डिजाइन का कोई पंख नहीं वे आसमान में बैठे नीचे लोगों पर कुल्लियाँ कर रहे हैं।