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शनिवार, 17 जुलाई 2010
नुक्कड़ नाटक दास्तान-ए-गैसकांड का मन्त्री और वैज्ञानिक प्रसंग
जादूगर - मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान
उल्टी खोपड़ी सीधा कान
लड़के, लौट आ !
जमूरा - लौट आया !
जादूगर - बैठ जा !
जमूरा - बैठ गया !
जादूगर - खड़ा हो जा !
जमूरा - खड़ा हो गया !
जादूगर - बता बाबू लोगों को कहाँ गया था......?
जमूरा - उस्ताद !
भोपाल और भोपाल के आसपास के
जायज़-नाजायज़ श्मशानों-कब्रिस्तानों में
नदी-नालों, सुनसान मैदानों में
एक-एक मरने वाले की आत्मा से मिलकर आया हूँ
सही सही फिगर नोट कर लाया हूँ !
जादूगर - शाबास लड़के !
तो फैला दे खबर तमाशबीनों में
उठा दे दर्द सबके सीनों में
कितनों ने गैस सूँघी कितने मरे
कितने शरीरों में बीमारियों के पोटले धरे
कितने उजड़ गए बाग-बगीचे और खेत हरे!
जमूरा - उस्ताद !
चार लाख ने सूँघी, बेहिसाब मरे
हज़ारों आँखों में अंधेरे भरे
खेत सूख गए तमाम
हज़ारों पेड़ों से पत्ते झरे !
जादूगर - जमूरे! सच बोलता है या झूठ !
उस्ताद को जेल में बन्द करवाएगा,
अपने मन से फिगर बताएगा !
जमूरा - नहीं उस्ताद, अपना कम्प्यूटर सही हिसाब बताता है,
अरे क्या मन्त्री समझ रखा है जो झूठ खोद लाता है.....?
जादूगर- ये सही है कि हिन्दुस्तान के मंत्रियों को झूठ बोलने की आदत पड़ चुकी है....! मगर लड़के, मैं भी जादूगर हूँ, एक नम्बर का जादूगर,
जिसको भी चाहा यहाँ बुलवा लिया
अच्छे अच्छों से सच उगलवा लिया
चाहे कहीं भी रखा हो लड़के
उस्ताद ने हर राज खुलवा लिया............
लड़के, चला जा!
जमूरा - चला गया !
जादूगर - लौट आ !
जमूरा - लौट आया !
जादूगर - बैठ जादूगर के मंतर पर
कस ले शिकंजा तंतर पर
घुस जा उस मन्त्री के बंगले में
झाँक कर देखना जरा जंगले में
ज़रा सी चमचागिरी कर पटा लेना
मौका देख कर बस उठा लेना
ख्वाब में दिखाना उसे पैसा और सीट
जनता की अदालत में लाना घसीट !
मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान
उल्टी खोपड़ी सीधा कान!
गिलि गिलि गिलि फूं
(जमूरा मजमें का चक्कर लगाता है। इस बीच मन्त्री बीच में आकर खड़ा हो जाता है।)
जमूरा - सर, लगता है आप बहुत परेशान हैं, मैं आपकी कुछ मदद करू सर ?
मन्त्री - ए-ए कौन है बे ? तुझे अन्दर किसने घुसने दिया ? जानता नहीं हमारे बंगले के चारों तरफ चौबीस घंटे पुलिस लगी रहती है, कोई मक्खी भी अन्दर नहीं घुस सकती.........
जमूरा - हम मक्खी नहीं हैं सर, प्रजा हैं प्रजा ! हममें और मक्खी में जमीन-आसमान का अन्तर है।
मन्त्री - वो कुछ भी हो, पर बता तुझे अन्दर किसने घुसने दिया, अभी टर्मिनेट करता हूँ हरामी को...........
जमूरा - सर ! हाईकमान का जिसके सिर पर हाथ होता है वो हर कहीं घुस जाता है।
मन्त्री - अच्छा तो हाईकमान के आदमी हो, पहले क्यों नहीं बताया! बैठो-बैठो !
जमूरा - हाँ ! हमारा उस्ताद अपना हाई कमान है।
मन्त्री - खामोश, उल्लू बनाते हो, बोलो काम क्या है ?
जमूरा - सर, काम-वाम तो बाद में देखेंगे, लगता है आप बड़े दुखी हैं, कोई गाना-वाना सुनाऊँ आपको ? सारे जहाँ से अच्छा...........
मन्त्री - खामोश, शहर में इतनी मौतें हो गईं और ये कम्बख्त हमें गाना सुनाएगा, अरे बदतमीज़, जानता नहीं हम सरकारी शोक में हैं...........
जमूरा - आप भी बिल्कुल गधे हैं सर, अरे अब फूट गया पम्पा, छूट गई गैस तो आप भला इसमें क्या कर सकते हैं ? यह तो बस्तियों की गलती है, शहर की गलती है, जो यूनियन कार्बाइड के पास जा बसा। अगर आपको पहले पता चल जाता तो आप आबादी को फैक्ट्री से 50-50 किलोमीटर दूर ट्रांसफर नहीं करा देते......और वो तो जनता हाथ धोकर पीछे पड़ गई कि पट्टा दो, पट्टा दो, आपने भी फैक्ट्री के पास पट्टे बाँट दिये कि ले पट्टा, ले पट्टा, वर्ना आप ऐसा गैर-जिम्मेदाराना काम कभी कर सकते थे ?
मन्त्री - करेक्ट माय बॉय, व्हाट इज योर नेम ? भई तुम्हें तो प्रेस में होना चाहिए, पब्लिसिटी में नौकरी करोगे, डायरेक्टर बना देते हैं.....। अच्छा किसी अखबार में रखवा देते हैं.........! अच्छा छोड़ो ! यह बताओ तुम्हें गैस-वैस तो नहीं लगी ? नहीं, लगी हो तो बता दो। दो हज़ार दिलवा देंगे, और सुनो, मर जाओ तो और भी अच्छा दस हज़ार दिलवा देंगे। अरे यार तुम तो कुछ बोलते ही नहीं..... अच्छा राशनकार्ड बन गया ? राशन-वाशन मिलता है ? नहीं बना हो तो बोलो........ जितने कहोगे बनवा देंगे.......... और वो क्या कहते है उसे क्लेम फार्म भरा कि नहीं! न भरा हो तो हमसे कहो चाहे जितने भरवा देंगे!
जमूरा - मन्त्री जी ! ज़रा जनता को बताइए, ये क्लेम फार्म क्या बला है ?
मन्त्री - अरे यार अभी जनता को क्लेम फार्म की क्या ज़रूरत है, फिर कोई नई फैक्ट्री बनेगी, गैस उगलेगी, लोग मरेंगे तब ही तो क्लेम फार्म भरे जाएंगे! तुम कहो तुम्हें क्या चाहिए ?
जमूरा - मुझे किसी चीज़ की जरूरत नहीं है............
मन्त्री - तो आया क्यों यहाँ झक मारने ?
जमूरा - उस्ताद ने बुलाया है आपको, जनता की अदालत में हाज़िर होने के लिए !
मन्त्री - जनता की अदालत ? ये क्या होती है ? भई अदालतें तो बस हमारी होती आईं हैं........
जमूरा - खामोश........
छू काली कलकत्ते वाली
पकड़ ले आ के सूरत काली
(जमूरा-जादूगर ठमकते हुए मजमें का चक्कर लगाते हैं, गाना गाते हैं....)
आओ लोगों तुम्हें दिखाएं मन्त्री हिन्दुस्तान का
लाशों पर मंडराता जैसे गिद्ध कब्रिस्तान का
मन्त्री आया रे, मन्त्री आया रे
मन्त्री आया रे, मन्त्री आया रे
देश बचाओ नारा देकर
देश को खुद ही खा जाए,
अमरीका हो या जापानी
मल्टीनेशनल खुलवाए
लोकतंत्र की आड़ में देखो तानाशाही करता है,
इनके महलों में दबा हुआ है पंजर हिन्दुस्तान का,
लाशों पर मंडराता जैसे गिद्ध कब्रिस्तान का।
रिश्वत खाओ, नोट कमाओ
इनका एक ही धन्धा है
हर मन्त्री के हाथ में देखो
प्रजातंत्र का डंडा है
रूप धरे बैठे हैं देखो सेवक सब शैतान का,
लाशों पे मंडराता जैसे गिद्ध कब्रिस्तान का।
मन्त्री आया रे, मन्त्री आया रे
मन्त्री आया रे मन्त्री आया रे
जमूरा - उस्ताद ! मन्त्री को पकड़ लाया
शिकंजे में जकड़ लाया
कहो तो मुर्गा इसे बनाऊँ
चुग्गा इसे खिलाऊँ!
जादूगर- नहीं लड़के
आ ज़रा सामने इससे दीदे लड़ा
कर दे इसे अदालत के कटघरे में खड़ा
बांध दे आँखों पर इसकी उगलवाऊ पट्टा
सुनवा दे जनता को इसकी हरामखोरी का रट्टा!
जमूरा - कर दिया उस्ताद !
जादूगर- मन्त्री!
मन्त्री - कौन है बे ?
जादूगर- तमीज़ से बोल तमीज़ से, जानता नहीं तू जनता की बीच जनता की अदालत में जनता के वकील के सामने खड़ा है!
मजमा बहुत बड़ा है,
ज़्यादा गड़बड़ करेगा तो जनता चीर कर फेंक देगी...........
मन्त्री - जनता.......... ओह यानी वोटर्स! माफ करना भाइयों, मैं समझा था कि मैं अपने दफ्तर में हूँ या विधानसभा में! पाँच-पाँच साल बाद मुलाकात होती है न, भूल हो जाती है। खैर! चलता है...........!
जादूगर- मन्त्री, जनता सवाल पूछना चाहती है, जवाब देगा ?
मन्त्री - भई जवाब तो सचिवालय से दिये जाते है, खैर फिर भी देगा!
जादूगर- झूठ तो नहीं बोलेगा ?
मन्त्री - खानदानी पेशा है उस्ताद छूट कैसे सकता है !
जादूगर- उस्ताद का जादू जोर दिखाएगा
तू तो क्या तेरे बाप से भी सच उगलवाएगा
मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान
उल्टी खोपड़ी सीधा कान
मन्त्री.......?
मन्त्री - उस्ताद !
जादूगर- मन्त्री लौट आ!
मन्त्री - लौट आया !
जादूगर- 2 दिसम्बर 84 की रात को कहाँ थे ?
मन्त्री - नहीं बताएंगे!
जादूगर- मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान
उल्टी खोपड़ी सीधा कान,
मन्त्री 2 दिसम्बर की रात को भोपाल में जो कोहराम मचा उसके बारे में क्या जानता है ?
मन्त्री - कुछ नहीं !
जादूगर- खामोश, सही सही बता क्या जानता है?
मन्त्री - यही कि फैक्ट्री के कर्मचारियों की लापरवाही की वजह से गैस शहर में टहलने निकल गई थी। गैस के शहर में टहलने की वजह से लगभग 2000 लोग जान से मारे गए जो खुद भी मेरा ख्याल है सड़कों पर टहल ही रहे होंगे !
जादूगर- खामोश, तू ऐसे नहीं मानेगा!
मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान
उल्टी खोपड़ी सीधा कान,
सम्हाल जबान वर्ना दूँगा तान......
मन्त्री - उस्ताद धीरे-धीरे, अभी बताता हूँ........
हमने रिश्वतें खाईं थी
हमने चन्दे खाए थे
और इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी को भोपाल लाए थे।
हमारे वैज्ञानिक मूर्ख हैं, उन्होंने हमें बताया ही नहीं कि इस फैक्ट्री में सिर्फ नोट ही नहीं ज़हर भी बनता है। ये एम.आई.सी, फास्ज़ीन, साइनाइड, फलाना, ढिकाना, आखिर क्या बला है हम जानते ही नहीं।
जादूगर- सारी दुनिया जानती है कि इस गैस ने कितने शहरों को गैस चेम्बरों में बदल डाला, कितने इन्सानों की जानें ले ली, कितने जानवर मार डाले, पेड़ पौधे, खेत तहसनहस कर डाले। इन्सानों को कीड़ो की तरह मारा। आबादी के पास जिसे बनाने के लिए सारी दुनिया में पाबंदी है। रासायनिक युद्धों में जिसके प्रयोग की तैयारी है, उस गैस के बारे में तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं ?
मन्त्री - मालूम है मालूम है! मगर हम किसी को क्या बताएँ ? जानते नहीं हम विधानसभा में गोपनीयता की शपथ खाते हैं। और फिर मरते हैं तो मरा करें! देश के लिए शहीद होना कोई बुरी बात है.......?
जादूगर- खामोश, जो तुम्हें चुनकर सीट पर बैठाते हैं, अपनी रक्षा का पहरेदार बनाते हैं, उन्हीं की जान के दुश्मन बन जाते हो तुम लोग!
मन्त्री - हम कुछ भी करें तुम्हारे बाप का क्या जाता है ?
जादूगर- खामोश, जब मालूम था कि फैक्ट्री किसी भी वक्त शहर को मुर्दाघर बना सकती है तो भी इसे आबादी से दूर हटाया क्यों नहीं गया ? जबकि जनता ने कई बार माँग की ?
मन्त्री - उस्ताद, जनता ने माँग ज़रूर की होगी, आंदोलन नहीं किया ! मांग तो हर कोई करता ही रहता है। किसी भी चीज़ के लिए जोरदार आन्दोलन-वान्दोलन होना चाहिए, तोड़-फोड़, आगज़नी होना चाहिए, तभी हमारी नींदें खुलती हैं। यूँ ही कैसे हम फैक्ट्री हटा देते ? और अगर उनकी ज़रा सी माँग पर हम फैक्ट्री हटा देते तो भई हमारी तिजोरियों कैसे भरतीं ? चुनावों, भाषणों, अधिवेशनों में पैसा खर्च होता है, वो कहाँ से आता ? हमारे लौंडे-लपाड़े अय्याशी कैसे करते ?
जादूगर- मन्त्री, पिछले सालों में हुई तमाम दुर्घटनाओं पर तुमने ध्यान क्यों नहीं दिया ? जनता की सुरक्षा का इंतज़ाम क्यों नहीं किया ? किया तो क्यों किया सुरक्षा के हर नियम का उल्लंघन! जनता की जान से खेलकर जहर बनाने का परमीशन क्यों दिया ?
मन्त्री - नियमों का उल्लंघन हम नहीं तो क्या तुम करोगे ? जनता की जान से हम नहीं तो क्या तुम खेलोगे ? सुरक्षा के इन्तज़ाम में पैसा खर्च होता है उस्ताद, अगर फैक्ट्री सुरक्षा के इन्तज़ाम में पैसा खर्च करती तो उसके मुनाफे पर असर पड़ता, और मुनाफे पर असर पड़ता तो हमारी तिजोरियों पर असर पड़ता, है कि नहीं ?
जादूगर- मन्त्री बता कितने मरे ?
मन्त्री - यही कोई डेढ़ हज़ार !
जादूगर- लोग कहते है 10 हज़ार करीब मरे है !
मन्त्री - कहते होंगे, बिल्कुल कहते होंगे। 10 हज़ार, 20 हज़ार, 30 हज़ार, सब कहते होंगे.......! हम किसी की बात का खंडन नहीं करते.........
जादूगर- राहत कार्य कैसा चल रहा है ?
मन्त्री - चुनाव तक तो ठीक ही चलेगा, उसके बाद अल्ला मालिक!
जादूगर- अब स्थिति कैसी है ?
मन्त्री - सारे खतरे टल गए हैं!
जादूगर- कैसे मान लें खतरे टल गए हैं ?
मन्त्री - जब हम कह रहें हैं तो टल ही गए होंगे !
जादूगर- हवा-पानी, खाने-पीने का सामान ठीक-ठाक है ?
मन्त्री - भई ये हम नहीं बता सकते, क्योंकि अपने यहाँ तो तब भी बाहर से सब्ज़ी आई और अब भी आ रही है, और आती रहेगी।
जादूगर- तुम नहीं बता सकते तो कौन बताएगा ?
मन्त्री - विज्ञान की बातें वैज्ञानिक बताएगा!
जादूगर- कौन सा वैज्ञानिक !
मन्त्री - देश का चोटी का वैज्ञानिक!
जादूगर- जमूरे! लौट आ!
मन्त्री - लौट आया !
जादूगर- अबे तू नहीं......... लड़के!
जमूरा - उस्ताद लौट आया!
जादूगर- हो जा सवार उड़न तश्तरी पर
लगा चक्कर दिल्ली नगरी पर
देख तो कहा छुपा बैठा है चोटी वाला.....
जमूरा - उस्ताद देख लिया!
जादूगर- क्या देखा ?
जमूरा - बीमार है उस्ताद !
जादूगर- अरे बेवकूफ बना रहा हॅ कोई बीमार-वीमार नहीं है!
जमूरा - उस्ताद उससे चलते नहीं बनता!
जादूगर- क्यों ?
जमूरा - पद्मश्री मिली है उस्ताद, उठाते नहीं बनती!
जादूगर- क्यों उठाते नहीं बनती ?
जमूरा - उस्ताद फोकट में मिली हो तो कहाँ से उठाते बनेगी!
जादूगर- कुछ भी हो लड़के जा ज़बरदस्ती उठा ला.........
मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान
उल्टी खोपड़ी सीधा कान......
(जमूरा वैज्ञानिक को पकड़कर लाता है।)
जमूरा - उस्ताद पकड़ लाया........
जादूगर- आइए आइए, तबियत कैसी है आपकी! दो सेकण्ड कार्बाइड में क्या खड़े रहे तबियत खराब ? अच्छा भई जनता सवाल पूछना चाहती है जवाब दोगे ?
(वैज्ञानिक मन्त्री की ओर देखता है, न में सर हिलाता है।)
वैज्ञानिक- नो कमेन्ट !
(मंत्री हंसता है।)
जमूरा - उस्ताद! यह ठहरा सरकारी नौकर, इसके पास अपनी ज़बान कहाँ ! ज्रा मन्तर मारो तब बोलेगा................
जादूगर- मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान...........
वैज्ञानिक- पानी साफ है, परन्तु उबालकर पियो !
सब्ज़ियाँ साफ हैं पर धोकर खाओ !
हवा साफ है परन्तु सांस मत लो........
जादूगर- अबे ज़िन्दगी भर यही बकता रहेगा ?
मन्त्री- उस्ताद! अपन जो बताता है वही कहता रहेगा..............
मोटी-मोटी तनख्वाह पाता है, सरकारी वैज्ञानिक है,
सरकारी बंगले में रहता है, सरकारी गाड़ी में घूमता है,
सरकारी टेलीफोन का इस्तेमाल करता है,
हम जो बताएँगे वही करेगा।
जमूरा - उस्ताद! छोनों एक नम्बर के बदमाश हैं। इन पर कंठफोड़ महामंत्र फेंको !
जादूगर- चल काली कलकत्ते वाली
तेरी फूँक ना जाए खाली
जो भी तेरे सामने आए
झूठ कभी ना बोलने पाए
मुर्राट घुसड़मल मुर्दा मस्सान गिली-गिली-गिली फूँ.........
(मन्त्री और वैज्ञानिक समवेत स्वर में)
हमें नहीं मालूम हवा कैसी है!
हमें नहीं मालूम पानी कैसा है!
हमें नहीं मालूम गैस पीड़ितों के फेफड़े कितने ज़ख्मी हैं!
हमें नहीं मालूम गैस पीड़ितों का खून कैसा है!
हमें नहीं मालूम गैस पीड़ित कब तक जिएँगे!
हमें नहीं मालूम गैस पीड़ित कब मर जाएँगे!
और अगर आप सब अब भी हमसे ये उम्मीद लगाए बैठे हैं,
कि हम उनका मुकम्मल इलाज करवाएँगे,
उन्हें दवा दिलवाएँगे,
उन्हें भरपूर मुआवज़ा दिलवाएँगे,
विधवाओं को पेंशन दिलवाएँगे,
अनाथ बच्चों को परवरिश दिलवाएँगे
बेघरबारों का पुनर्वास करवाएँगे...........
अगर आपको हमसे ऐसी उम्मीदें हैं
तो माफ कीजिएगा जनाब,
आप लोग घनघोर बेवकूफ हैं !
जादूगर- खामोश, बहुत हो गई बकवास। भाइयों यही है इन लोगों का असली रूप। ये मन्त्री, जो हमें 2 दिसम्बर की रात मरता छोड़ भाग गए थे, और अब जो लोग किसी तरह जिन्दा हैं उन्हें भी बेवकूफ बनाया जा रहा है। और ये देश के चोटीदार सरकारी वैज्ञानिक ! विज्ञान के नाम पर बहुराष्ट्रीय कम्पनी देश में क्या कर रही है इसकी जानकारी रखना इनका काम है, इन्हें है जानकारी मगर राजनीति के हाथ का खिलौना बनकर इन्होंने भी अपने ज़मीर बेच खाए। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दलाली इनका धर्म है।
लड़के जा छोड़ आ इनको जहां से लाया था!
(लड़का दोनों को लात मारता है दोनों भीड़ में शामिल हो जाते हैं।)
( गैस त्रासदी पर लिखे गए नुक्कड़ नाटक ‘‘दास्तान-ए-गैसकांड का अंश, लेखक-राजीव लोचन व प्रमोद ताम्बट। इस नाटक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन 26 दिसम्बर 1984 को हुआ था। एंडरसन के संबंध में उठ रहे सवाल इस नाटक में आज से 26 साल पहले कितने सशक्त रूप में उठाए गए थे वह नाटक के इस एंडरसन प्रसंग से स्पष्ट है। मुख्य पृष्ठ का डिजाइन स्वर्गीय किशोर उमरेकर का है।)
(समुचित ज्ञान ना होने के कारण नाटक की पोस्ट समुचित सिमिट्री में नहीं है। पाठकगण कृपया असुविधा के लिए क्षमा करेंगे।)
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
हरिभूमि में व्यंग्य- कौन है भारत जो बंद हो जाता है
//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
भाई लोगों ने भारत बंद किया, हालांकि वह जगह-जगह से खुला रहा।
भाई लोगों ने भारत बंद किया, हालांकि वह जगह-जगह से खुला रहा।
भाई लोगों से मेरा मतलब ‘भाई लोगों’ से ही है, वे अगर सिर तोड़ने के संकल्प के साथ लट्ठ लेकर न घूम रहे होते तो वणिक बिरादरी भला माल बेचने से क्या बाज आने वाली थी। वणिक बिरादरी के कर्मठों की मजबूरी है कि उन्हें भूख भी लगती है और नींद भी आती है, इसलिए वणिकाइन के हाथ की खीर-पूड़ी खाने और दिन भर की लूट-खसौट उसके हवाले करने के बाद नर्म-मुलायम गद्दों पर खुर्राटे भरने के लिए उन्हें घर भी जाना पड़ता है, वर्ना वे रात भर जगराता करके भी माल बेचने से बाज ना आएँ। सो, देश हित में भाई लोगों को उन्हें सिर तोड़ने की धमकी देकर अपने ‘भारत’ का शटर बंद रखने के लिए चेताना पड़ता है, तब कहीं जाकर ‘भारत’ कायदे से बंद होता है।
भारत जगह-जगह से खुला यूँ रहा कि जगह-जगह कांग्रेसी वणिकों की दुकानें भी हैं, वे भी काउन्टर के पीछे विपक्षी ‘भाइयों’ की खोपड़ी फोड़ने के लिए पर्याप्त हथियारों की व्यवस्था के साथ आराम से गल्ले पर बैठे रहे, कि देखते हैं कौन माई का लाल हमारी सरकार की मँहगाई बढाने की भीष्म प्रतिज्ञाओं को खंडित करता है। बीवी भले ही घर में हाईकमान को पानी पी-पीकर कोस रही हो कि खुद तो मौज मजे में है, और यहाँ सपोर्टरों को मँहगाई ने परेशान कर रखा है। समर्पित पुराना कांग्रेसी वणिक पार्टी के बचाव में अपना सिर टूटने का खतरा उठाकर भी अपनी दुकान खोले बैठा है, ताकि पार्टी की नज़र में महान होने का मौका मिल सके, और कोई ना कोई टिकट पक्का हो जाए। दूसरी ओर, जनता के सामने संत बनने का मौका भी रहे कि देखों यह कमीना विपक्ष तुम्हारी गली-गली में फजीहत कर रहा है, मगर हम भले ही चौगूने दाम पर माल बेच रहे हों पर, परोपकार में बेच तो रहे हैं, किसी को भूखों तो नहीं मरने दे रहे ! देश का भला ही तो कर रहे हैं। भारत भले ही बंद रहा हो परन्तु मँहगाई से दो गुना हो गए मुनाफे पर इन्हीं का एकाधिकार रहा, क्योंकि बंद समर्थक दुकानदार मजबूरी में दिन भर विपक्ष के पीछे घूमते रहे क्योंकि आखिर वे ही तो उनके महान कार्यकर्ताओं की गिनती में सबसे ऊपर आते हैं, और मौका लगने पर जनता भी कहलाते हैं।
इस बंद से मेरे सामने एक बहुत ही बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर ‘भारत’ है क्या चीज़, जो चंद राजनैतिक गुंडों के डंडा लहराने से बंद हो जाता है, और दिन भर हुडदंग-लीला कर बसें-वसें जलाने के बाद शाम को खुल जाता है। क्या बड़े-बडे़ औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि के रूप में गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ पर लोगों की जेब से पैसा निकालने के लिए तैनात ‘शोरूम’ भारत हैं, जिनके, काँच टूटने के डर से बंद होने को ‘भारत बंद’ होना कहा जाता है! या दो वक्त की रोटी की जद्दोजहद के अड्डे, छोटी-छोटी दुकानों के टपरे ‘भारत’ हैं जिन्हें एक दिन के बंद की सज़ा के रूप में एक दिन की कमाई से महरूम रहना पड़ता है। याकि बंद के आतंक से सहमे हुए अपने-अपने घरों में कैद मजदूर किसान, मध्यमवर्ग की आम जनता ‘भारत’ है जिसे इस बंद से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता। आखिर कौन है भारत जो बंद हो जाता है और खुल जाता है।
भारत जगह-जगह से खुला यूँ रहा कि जगह-जगह कांग्रेसी वणिकों की दुकानें भी हैं, वे भी काउन्टर के पीछे विपक्षी ‘भाइयों’ की खोपड़ी फोड़ने के लिए पर्याप्त हथियारों की व्यवस्था के साथ आराम से गल्ले पर बैठे रहे, कि देखते हैं कौन माई का लाल हमारी सरकार की मँहगाई बढाने की भीष्म प्रतिज्ञाओं को खंडित करता है। बीवी भले ही घर में हाईकमान को पानी पी-पीकर कोस रही हो कि खुद तो मौज मजे में है, और यहाँ सपोर्टरों को मँहगाई ने परेशान कर रखा है। समर्पित पुराना कांग्रेसी वणिक पार्टी के बचाव में अपना सिर टूटने का खतरा उठाकर भी अपनी दुकान खोले बैठा है, ताकि पार्टी की नज़र में महान होने का मौका मिल सके, और कोई ना कोई टिकट पक्का हो जाए। दूसरी ओर, जनता के सामने संत बनने का मौका भी रहे कि देखों यह कमीना विपक्ष तुम्हारी गली-गली में फजीहत कर रहा है, मगर हम भले ही चौगूने दाम पर माल बेच रहे हों पर, परोपकार में बेच तो रहे हैं, किसी को भूखों तो नहीं मरने दे रहे ! देश का भला ही तो कर रहे हैं। भारत भले ही बंद रहा हो परन्तु मँहगाई से दो गुना हो गए मुनाफे पर इन्हीं का एकाधिकार रहा, क्योंकि बंद समर्थक दुकानदार मजबूरी में दिन भर विपक्ष के पीछे घूमते रहे क्योंकि आखिर वे ही तो उनके महान कार्यकर्ताओं की गिनती में सबसे ऊपर आते हैं, और मौका लगने पर जनता भी कहलाते हैं।
इस बंद से मेरे सामने एक बहुत ही बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर ‘भारत’ है क्या चीज़, जो चंद राजनैतिक गुंडों के डंडा लहराने से बंद हो जाता है, और दिन भर हुडदंग-लीला कर बसें-वसें जलाने के बाद शाम को खुल जाता है। क्या बड़े-बडे़ औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि के रूप में गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ पर लोगों की जेब से पैसा निकालने के लिए तैनात ‘शोरूम’ भारत हैं, जिनके, काँच टूटने के डर से बंद होने को ‘भारत बंद’ होना कहा जाता है! या दो वक्त की रोटी की जद्दोजहद के अड्डे, छोटी-छोटी दुकानों के टपरे ‘भारत’ हैं जिन्हें एक दिन के बंद की सज़ा के रूप में एक दिन की कमाई से महरूम रहना पड़ता है। याकि बंद के आतंक से सहमे हुए अपने-अपने घरों में कैद मजदूर किसान, मध्यमवर्ग की आम जनता ‘भारत’ है जिसे इस बंद से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता। आखिर कौन है भारत जो बंद हो जाता है और खुल जाता है।
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